बिहार के मुजफ्फरपुर जिला मुख्यालय से लगभग 55 किलोमीटर दूर दियारा इलाके की मीना देवी, गिन्नू देवी, माया देवी आदि कहती हैं कि दिनभर दूसरों के खेतों में निकौनी (खुरपी से घास निकालना) करने के बाद कही 60-70 रुपये मजदूरी मिलती है. इस पैसे से किसी तरह रूखा-सूखा और किसानों से मांग-मांग कर घर-गृहस्थी की नैया चल रही है. वृद्ध माया देवी कहती हैं कि पति वृद्ध हो गए हैं जिसकी वजह से काम-धंधा भी करना बंद कर दिए हैं. वहीं एक बेटा ड्राइवरी का काम करता है. दूसरे बेटे को पढ़ाने के लिए पैसे नहीं थे तो वह भी परदेस में काम-धंधा की तलाश में चला गया है. किसी तरह इंटर की पढ़ाई कराई थी. दो-दो बेटियों की शादियां की है. अब मजदूरी नहीं हो पाती, शरीर थक चुका है. उसी गांव की गिन्नू देवी कहती हैं कि पति नागालैंड रहते हैं. एक बेटा को पढ़ाने के लिए शहर में रखी हूं. थोड़ी सी जमीन है. कुछ किसानों की जमीन एक तय राशि पर ली हूं. दिनभर श्रम करने के बाद किसी तरह रोजी-रोटी चलती है. साल में एक बार किसान को पैसे चुकाने पड़ते हैं. महिलाओं ने बताया कि सरकारी राशन की वजह से घर में अनाज की कमी नहीं होती है. यदि राशन कार्ड नहीं होता तो 60-70 रुपए में खाने का इंतज़ाम कैसे होता? उज्ज्वला रसोई गैस कनेक्शन होने के बाद भी गैस भराने के लिए नकद पैसे की जरूरत पड़ती है.
पति को खो चुकी तराना बीबी दूसरों के खेतों में काम करके चूल्हा-चौका चला रही हैं. पति के मरने के बाद न जमीन है न कोई कमाने वाला व्यक्ति, एक बेटा और एक बेटी है. बेटी की शादी किसी तरह महाजन से पैसे लेकर व चंदा करके कर दी है. बेटा पेंटिंग का काम सीखता है. तीन सदस्यीय परिवार का पेट भरने के लिए तराना बीबी दूसरों की खेतों में काम करके किसी तरह रोजी-रोटी चला रही हैं. एक समय था कि उनके श्वसुर देवरिया कोठी पर अंग्रेज की हवेली में नौकरी किया करते थे, मगर आज पाई-पाई के मोहताज हैं. तराना बीबी कहती हैं कि पहले तो 40-50 रुपए की मजदूरी से पूरा परिवार भरपेट भोजन करके चैन की नींद सोता था. अब तो 60-70 मिलने के बाद भी सब्जी के पैसे पूरे नहीं होते हैं. साल में रबी और खरीफ फसल में किसानों के खेत से कुछ किलो अन्न मिल जाता है तथा राशन कार्ड से पर्याप्त अनाज की समस्या दूर हो जाती है. उसी गांव की मजबून बीबी कहती हैं कि जब गांव में पुरुषों को 8 घंटे की मजदूरी 400-500 रुपए मिलती है, तो खेतों में काम करने करने वाली महिलाओं को भी उसी अनुपात में मज़दूरी मिलनी चाहिए. गांव में महिला श्रमिकों के श्रम का मूल्य कम आंका जाता है. कौन सुनेगा हम गरीब महिलाओं का दर्द? कौन दिलाएगा हमें हमारा वाजिब हक? मजबून बीबी का यह प्रश्न तमाम किसानों व सरकार में बैठे अधिकारियों से है। पारू ब्लॉक के चांदकेवारी पंचायत के किसान पंकज कुमार, ओमप्रकाश प्रसाद कहते हैं कि खेती बाड़ी तो घाटे का सौदा हो गया है. महंगाई के कारण पुरुष मजदूरों से काम कराने के लिए 200-300 प्रति दिन के हिसाब से देना पड़ता है जबकि महिला मजदूर निकौनी के लिए 60-70 रुपए में चार से पांच घंटे काम कर देती है. यही काम पुरुषों से कराया जाए तो काफी महंगा साबित होता है. गांव के वृद्ध बिहारी प्रसाद कहते हैं कि गांव में खेती ही अर्थोपार्जन का जरिया है. पुरुष मजदूरों को उपयुक्त मजदूरी नहीं मिलती इसलिए दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, मुंबई आदि महानगरों में नौकरी करने निकल जाते हैं. गरीब परिवार की महिलाएं घर-गृहस्थी व बच्चों की पढ़ाई के लिए किसानों के खेतों में काम करती हैं.
गांव की श्रमिक महिलाओं का दर्द झकझोड़ने वाला है. जहां आज के समय में मोबाइल रिचार्ज 99 रुपए से कम में नहीं होता वहीं महिलाओं को 60-70 रुपए में श्रम करना पड़ता है. इसे एक तरह से श्रम का शोषण कहना बेमानी नहीं है. यह महिलाएं अपने श्रम अधिकारों के हनन से अनभिज्ञ हैं. जबकि बिहार में न्यूनतम मजदूरी की नई दर में 2022 से 11 रुपए की बढ़ोतरी हो चुकी है. अकुशल कोटि के श्रमिकों को न्यूनतम 373 रुपए मजदूरी देने का प्रावधान है. वहीं अर्ध कुशल कोटि के मजदूरों को 388 रुपए एवं कुशल मजदूरों को 472 रुपए न्यूनतम मजदूरी देने का प्रावधान लागू है. अति कुशल कामगारों की मजदूरी 577 रुपए निर्धारित है. जबकि महिला हो या पुरुष कामगार, उन्हें भी न्यूनतम मजदूरी मिलनी चाहिए. यहां भी लैंगिक असमानता व्याप्त है. मजबूरी में मजदूरी कर रही महिलाओं के हित की बात जमीन पर करने वाली कोई संस्था भी नहीं है. बहरहाल, महिलाओं के श्रम को कमतर समझने वाले किसान, साहूकार या पैसे वाले के अंदर समानता का बोध होना आवश्यक है. पुरुषों को अधिक मजदूरी और गरीब महिलाओं को कम मजदूरी यक्ष प्रश्न है. सरकारी श्रम कानून का पालन करना एवं न्यूनतम मजदूरी देने के लिए महिला श्रमिकों को भी आवाज उठानी चाहिए. गांव में बेवा, गरीब, उपेक्षित महिलाओं को उचित पारिश्रमिक देकर ही खुशहाल देश बनाने की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है. इसके लिए प्रशासनिक स्तर पर भी महिलाओं की व्यथा-कथा को समझने का प्रयास करना आवश्यक है.
वंदना कुमारी
मुजफ्फरपुर, बिहार
(चरखा फीचर)
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