प्रमुख निष्कर्ष
- 60% उत्तरदाताओं के पास रोजगार का अनुबंध नहीं होने के बावजूद कोयला क्षेत्र सबसे ज्यादा आकर्षक नियोजक है क्योंकि इसमें नौकरी की सुरक्षा है। साथ ही साथ इतना ही मेहनताना चुकाने वाले अन्य विकल्पों की कमी भी है।
- 10 में से 6 कामगारों को यह नहीं मालूम है कि भविष्य में कोयला खदानें बंद की जा सकती हैं।
- 94% उत्तरदाताओं ने बताया कि उन्होंने कभी किसी प्रशिक्षण कार्यक्रम में हिस्सा नहीं लिया है। इससे उनकी कार्यकुशलता में वृद्धि की योजनाओं के नदारद होने की तरफ इशारा मिलता है।
- 85% उत्तरदाताओं ने क्षमता वृद्धि या पुनर्कार्यकुशलता कार्यक्रमों में हिस्सा लेने में दिलचस्पी दिखाई।
- सिर्फ 6% उत्तरदाता ही ऐसे रहे जिन्होंने कोयला क्षेत्र के अलावा रोजगार के वैकल्पिक अवसर के लिए किसी भी तरह का प्रशिक्षण लिया है और सिर्फ 24% लोग ही अक्षय ऊर्जा क्षेत्र से जुड़ी ट्रेनिंग में शामिल रहे।
- रोजगार के वैकल्पिक स्रोतों के लिहाज से 32% कामगारों ने रोजगार के विकल्प के तौर पर अपनी पहली पसंद के रूप में कृषि और उससे संबंधित क्षेत्र से जुड़ने की इच्छा जाहिर की। इसके अलावा 30% कामगारों ने अपने दूसरे विकल्प के तौर पर विनिर्माण क्षेत्र को चुना, जबकि तीसरे विकल्प के रूप में 27% कामगारों ने खनन तथा अन्य खनिजों के उत्खनन क्षेत्र का जिक्र किया।
झारखंड में इस वक्त 113 कोयला खदानें संचालित की जा रही हैं और यह संख्या देश की कुल कोयला खदानों की एक चौथाई से ज्यादा (26%) है। इन खदानों से हर साल 115 मिलियन टन से ज्यादा कोयला निकाला जाता है। झारखंड में कोयला खनन उद्योग से करीब तीन लाख लोगों को सीधे तौर पर रोजगार मिलता है। यह भारत में इस तरह की नौकरियों का लगभग 38% हिस्सा है। भारत को अपनी ऊर्जा की बढ़ती आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अक्षय ऊर्जा स्रोतों के विस्तार को प्राथमिकता देनी ही होगी। भारत में वर्ष 2017 तक नेट जीरो का लक्ष्य हासिल करने का इरादा जाहिर किया है और वह इस वक्त कोयले के इस्तेमाल को चरणबद्ध ढंग से खत्म करने पर ध्यान केंद्रित कर रहा है। हालांकि कोयले को चलन से बाहर करने से देश के विभिन्न राज्यों में लाखों कामगारों और उनसे जुड़े समुदायों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो जाएगा। झारखंड जैसे राज्यों में इसका ज्यादा असर होगा जहां बड़ी संख्या में कोयला खदानें हैं और बहुत भारी मात्रा में कोयले का उत्पादन होता है। अर्नेस्ट एंड यंग एलएलपी के एसोसिएट पार्टनर अमित कुमार ने कहा, "यह रिपोर्ट झारखंड तथा कोयले से समृद्ध भारत के अन्य राज्यों के लिए न्याय संगत रूपांतरण से संबंधित नीतिगत निर्णयों को आकार देने के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है। यह बहुत जरूरी है कि भारत का कोयले को चलन से चरणबद्ध तरीके से बाहर करने का संकल्प मूर्त रूप ले। साथ ही साथ ऐसे नीतिगत कदम भी उठाए जाएं जो इस रूपांतरण से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले कामगारों और समुदायों का कल्याण सुनिश्चित कर सकें।"
यह रिपोर्ट अनेक स्तरों पर मौजूद चुनौतियों की एक पूरी श्रृंखला का खाका पेश करती है। इन चुनौतियों में अल्पकाल में (2030 तक) रोजगार के लिए कोयला क्षेत्र पर बढ़ती निर्भरता, छोटी और भूमिगत खदानों को बंद करना, कोयला खदानों को बंद करने की समय सीमा को लेकर जागरूकता की कमी, ऊर्जा रूपांतरण के लिए धन की कमी तथा रोजगार के विकल्पों का अभाव शामिल है। रिपोर्ट दीर्घकालिक परिदृश्य यानी वर्ष 2030 के बाद की चुनौतियों, जैसे कि सरकार की आमदनी में कमी, आर्थिक और मजबूरन प्रवासन विस्थापित श्रमिकों को रोजगार देने के अवसरों की कमी, संबंधित उद्योगों में रोजगार के अवसरों की कमी, गैर अनुबंधित कामगारों की सुरक्षा संबंधी व्यवस्था की कमी, वित्तीय सुरक्षा की कमी, कार्यकुशलता की कमी और व्यवहार संबंधी बदलावों में रुकावटों को रेखांकित करती है। यह रिपोर्ट खदानों को बंद करने, कोयला खदानों के अंदर और उनके आसपास की जमीन को दूसरे प्रयोगों में लाने की योजना, क्षेत्रीय अर्थव्यवस्थाओं की मौजूदा स्थिति पर जिला स्तरीय रिपोर्टिंग, संभावनापूर्ण क्षेत्रों की पहचान, खास तौर पर वह क्षेत्र जहां कोयला खदानें पहले से ही मौजूद हैं, ऊर्जा रूपांतरण गतिविधियों पर उपकर लगाना, कारोबारों का विविधीकरण, कार्यकुशलता आधारित प्रशिक्षण, रोजगार उत्पन्न करने की योजनाओं को बढ़ावा इत्यादि से संबंधित दिशानिर्देशों को बेहतर बनाने का आह्वान करती है। इस अध्ययन में एक व्यापक नीतिगत कार्ययोजना की जरूरत पर भी जोर दिया गया है, जिसके जरिए अध्ययन में की गई सिफारिशों और दिए गए सुझावों पर विचार किया जा सके।
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