—डॉ० शिबन कृष्ण रैणा—
कश्मीर छोड़े मुझे लगभग चालीस-पच्चास साल हो गए। बीते दिनों की यादें अभी भी मस्तिष्क में ताज़ा हैं। बात उन दिनों की है जब भारत-पाक के बीच पांच दिवसीय क्रिकेट मैच खूब हुआ करते थे। मुझे याद है कि हमारे समय में भारत-पाक क्रिकेट खेल के दौरान यदि पाक टीम भारत के हाथों हार जाती थी तो स्थानीय लोगों का गुस्सा 'पंडितों' पर फूट पड़ता था। उनके टीवी/रेडियो सेट तोड़ दिए जाते, धक्का-मुक्की होती थी आदि। भारत टीम के विरुद्ध नारे बाज़ी भी होती। और यदि पाक टीम जीत जाती तो मिठाइयां बांटी जाती या फिर रेडियो सेट्स पर खील/बतासे वारे जाते। यह बातें पचास/साठ के दशक की हैं। तब मैं कश्मीर में ही रहता था और वहां का एक स्कूली-छात्र हुआ करता था। भारतीय टीम में उस ज़माने में पंकज राय, नारी कांट्रेक्टर, पोली उमरीगर, गावस्कर, विजय मांजरेकर, चंदू बोर्डे, टाइगर पड़ौदी, एकनाथ सोलकर आदि खिलाड़ी हुआ करते थे।क्रिकेट की कॉममेंट्री ज्यादातर रेडियो पर ही सुनी जाती थी। कहने का तात्पर्य यह है कि कश्मीर में विकास की भले ही हम लम्बी-चौड़ी दलीलें देते रहें, भाईचारे का गुणगान करते रहें या फिर ज़मीनी हकीकतों की जानबूझकर अनदेखी करते रहें, मगर असलियत यह है कि लगभग पाँच /सात दशक बीत जाने के बाद भी हम घाटी के आमजन का मन अपने देश के पक्ष में नहीं कर सके हैं। सरकारें वहां पर आयीं और चली गयीं, मगर कूटनीतिक माहौल वहां का जस का तस बना रहा। कौन नहीं जानता कि वादी पर खर्च किया जाने वाला अरबों-खरबों रुपैया सब अकारथ जा रहा है। 'नेकी कर अलगाववादियों/देश-विरोधियों की जेबों में डाल' इस नई कहावत का निर्माण वहां बहुत पहले हो चुका था। यह एक दुखद और चिंताजनक स्थिति है और इस स्थिति के मूलभूत कारणों को खोजना और यथासम्भव शीघ्र निराकरण करना बेहद ज़रूरी है। कश्मीर समस्या न मेरे दादाजी के समय में सुलझ सकी, न पिताजी के समय में ही कोई हल निकल सका और अब भी नहीं मालूम कि मेरे समय में यह पहेली सुलझ पाएगी या नहीं? दरअसल,कश्मीर समस्या न राजनीतिक-ऐतिहासिक समस्या है, न ही सामाजिक-आर्थिक और न ही कूटनीतिक। यह संख्याबल की समस्या है। किसी करिश्मे या चमत्कार से कश्मीर में अल्प संख्यक/पण्डित समुदाय बहुसंख्यक बन जाय तो बात ही दूसरी हो जाय। यकीन मानिए "हमें क्या चाहिए? आज़ादी!" के बदले "भारत-माता की जय","जय माता दी" आदि के जयकारे लगेंगे। इतिहास गवाह है कि 12-13वीं शताब्दी तक कश्मीर एक हिंदू-बहुल भूभाग था। बाद में छल-बल और ज़ोर-जब्र से विदेशी आक्रांताओं ने घाटी के असंख्य हिंदुओं को या तो खदेड़ दिया या फिर तलवार की नोक पर उनका धर्मांतरण किया और इस तरह से कश्मीर में स्थायी तौर पर इस्लाम की नींव पड़ी। यही 'इस्लामीकरण' और उससे जुड़ा 'जिहाद' कश्मीर-समस्या की मूल जड़ है।स्वतंत्रता मिलने के बाद भी एक विशेष समुदाय की बेलगाम बढ़ती जनसंख्या के प्रति हम उदाससीन या जानबूझकर लापरवाह रहे,इसी का खामियाजा अब भुगता जा रहा है।क्यों नहीं समूचे देश में सब पर लागू होने वाला एक 'जनसंख्या नियंत्रण कानून' लागू हो ?न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी।
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