भारतीय समाज आज भी रूढ़िवाद और अंधविश्वास से बाहर नहीं आया है. अनपढ़ तो अनपढ़, शिक्षित भी इससे जकड़े हुए हैं. समाज में बुराई सदियों से चली आ रही है. यह ऐसा रोग है जिसने समाज की नींव खोखली कर दी है. खासकर महिलाएं और किशोरियां झाड़फूंक, जादू-टोना, तंत्र-मंत्र, ओझा-गुणी के चक्कर में गाढ़ी कमाई के पैसे गंवा रही हैं. हम चांद व मंगल पर मानव जीवन की संभावनाओं की तलाश रहे हैं. वहां आशियाना बसाने के लिए नित्य नई खोजें कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ बिल्ली द्वारा रास्ता काटने पर रुक जाना, उल्लू का घर की छत पर बैठने को अशुभ मानना, बाई आंख फड़कने पर अशुभ समझना, मानव बलि देना और भी अनेक ऐसे अंधविश्वास आज भी मौजूद हैं. ऐसा भी नहीं है कि अंधविश्वास केवल हमारे भारत में ही मौजूद है बल्कि यह हर उस जगह पर विविध रूपों में विद्यमान है जहां मानव की बसावट है.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो 2021 की रिपोर्ट की मानें तो भारत में 6 लोगों की मृत्यु का कारण मानव बलि और 68 लोगों की मृत्यु का कारण जादू-टोना बताया गया है. जादू-टोना के सबसे अधिक मामले छत्तीसगढ़ में 20, मप्र में 18 और तेलंगना में 11 दर्ज किए गए हैं. वहीं एनसीआरबी 2020 की रिपोर्ट में भारत में जादू टोना से 88 मौतें और मानव बलि से 11 लोगों की जानें गई हैं. भारत में जादू-टोना और अंधविश्वास से संबंधित अपराधों के लिए कोई समर्पित केंद्रीय कानून नहीं था. वर्ष 2016 में लोकसभा में डायन शिकार निवारण विधेयक लाया गया लेकिन यह पारित नहीं हुआ, बाद में मसौदा प्रावधानों में किसी महिला पर डायन का आरोप लगाकर या जादू-टोना के बहाने यातना देने या अपमान करने के लिए दंड का प्रावधान किया गया. आईपीसी की धारा 302 के तहत मानव बलि को शामिल किया गया है. संविधान के अनुच्छेद 51 ए (एच) के तहत भारतीय नागरिकों के लिए वैज्ञानिक सोच, मानवतावाद और सुधार की भावना को विकसित करना मौलिक कर्तव्य में शामिल किया गया. वहीं ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडीज एक्ट 1954 के तहत अन्य प्रावधानों का भी उद्देश्य भारत में प्रचलित विभिन्न अंधविश्वास की गतिविधियों में कमी लाना है. बिहार पहला राज्य है जिसने जादू-टोना रोकने एवं महिला को डायन के रूप में चिन्हित करने व अत्याचार, अपमान और महिलाओं की हत्या रोकने के लिए कानून बनाया, जो 1999 में द प्रिवेंशन ऑफ़ विच प्रैक्टिस एक्ट के रूप में प्रभावी हुआ.
भारत बहुत बड़ा देश है जहां दर्जनों धर्म मजहब के लोग निवास करते हैं जिनकी अपनी मान्यताएं व रीति- रिवाज होते हैं. मगर सभी में प्रायः अंधविश्वास एक जैसा देखा जाता है. यह आडंबर समाज के लिए यह बेहद घातक है. एक प्रगतिशील समाज के लिए अंधविश्वास जैसी चीजें प्रगति व नई सोच में बाधक होती हैं जिसकी जड़ में अज्ञानता बसी होती है. अंधविश्वास व्यक्ति के मन में भय निराशा, ज्ञान की कमी आदि का घर होता है. मगर आज के पढ़े-लिखे नौजवान भी उन पुराने रीति-रिवाजों व आडंबरों में जकड़े हुए हैं जिनके मूल में कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता है. आज के तकनीकी एवं विज्ञान की प्रगति के दौर में भी अंधविश्वास का होना, कठोरता से उनका पालन करना, हमारी बौद्धिक कमजोरी को प्रदर्शित करता है. समाज में ऐसे बहुत से कार्य हैं जिन्हें सामान्य व्यक्ति समझ नहीं पाता और वह उसे चमत्कार मान लेता है. हैरत की बात यह है कि शिक्षित और पढ़े-लिखे लोग भी अंधविश्वास के चंगुल में फंसे हुए हैं. कुछ लोग अंधविश्वास के कारण बाबा साधुओं-तांत्रिकों के बहकावे में आकर अपनी इज्जत एवं धन गवां बैठते हैं. इसका एक उदाहरण बिहार के मुजफ्फरपुर जिलान्तर्गत साहेबगंज प्रखंड के हुस्सेपुर गांव में देखने को मिला. जहां 18 वर्षीय चंपा (बदला हुआ नाम) को तबीयत ख़राब होने पर झाड़ फूंक के नाम पर ओझा ने दुष्कर्म का प्रयास किया. सवाल यह है कि आखिर कब तक ऐसे ढोंगी बाबाओं द्वारा चंपा जैसी लड़कियों का शोषण होता रहेगा? इसके लिए देश और समाज को जागरूक होना पड़ेगा. हालांकि आज भी ग्रामीण क्षेत्र में लोग ओझा और झाड़फूंक करने वालों पर विश्वास करते हैं. गांव की वयोवृद्ध महिला फूलमती देवी को विश्वास है कि ओझा के पास जाने से सब कुछ ठीक हो जाता है. आंगनबाड़ी सहायिका सुनीता देवी बताती हैं कि कभी-कभी बच्चे खेलते-खेलते उल्टी कर देते हैं या फिर बेहोश हो जाते हैं, तो उनके माता-पिता को लगता है कि किसी ने जादू-टोना कर दिया है और वे अपने बच्चे को सीधे ओझा के पास ले जाते हैं जबकि इसका डॉक्टरी इलाज संभव है.
स्थानीय युवा किसान पंकज सिंह कहते हैं कि देश-विदेश के वैज्ञानिकों ने नई-नई चीजों का आविष्कार किया है परंतु आज भी देश और समाज काले जादू से घिरा हुआ है. अधिकतर स्त्रियां पुत्र संतान पाने के लिए बाबाओं के चक्कर लगाती हैं. ऐसे में बाबा भोली- भाली महिलाओं से मोटी रकम वसूलते हैं. देश में आए दिन अंधविश्वास की जद में महिलाओं का मानसिक और शारीरिक शोषण आम बात है. हर व्यक्ति जीवन में किसी न किसी समस्या से जूझता रहता है. ऐसे में जब भी परेशान लोगों को कोई उपाय नहीं सूझता तो वे बाबाओं के चक्कर में जा फंसते हैं. दरअसल, जागरुकता के अभाव में गांव में निरक्षर लोग चिकित्सकीय उपचार से ज्यादा जादू-टोना, झांड़फूंक, ताबीज और टोटकों में विश्वास करते हैं. इसकी दूसरी वजह गांव के चंद शिक्षित लोगों का भी जादू-टोना, झांड़फूंक आदि में विश्वास करना है. हालांकि यह जरूर है कि शिक्षा और जागरूकता की वजह से नई पीढ़ियों की मानसिकता बदली है. वे अंधविश्वास व रूढ़ियों में तर्क खोजते हैं. यह इस बात को भी साबित करता है कि जबतक समाज के प्रबुद्धजनों व शिक्षित लोगों की मनःस्थिति नहीं बदलेगी, तबतक समाज से रूढ़ियां और अंधविश्वास जैसी चीजे़ं अपनी जड़े जमाई रहेगी.
सिमरन कुमारी
मुजफ्फरपुर, बिहार
(चरखा फीचर)
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