आज़ादी के सात दशकों बाद भी देश में कुछ जातियां, समुदाय और वर्ग ऐसे हैं जो आज भी गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर कर रहे हैं. जिन्हें आज भी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं, जो समाज के मुख्यधारा से कटे हुए हैं. लेकिन विधवाओं का वर्ग ऐसा है जो सभी धर्मों, जातियों और समुदायों में मौजूद हैं. अफ़सोस की बात यह है कि इस वर्ग को स्वयं समाज द्वारा सभी प्रकार की सुविधाओं से वंचित कर बहिष्कृत जीवन जीने पर मजबूर कर दिया जाता है. इस वर्ग के कल्याण के उद्देश्य से हर साल 23 जून को अंतरराष्ट्रीय विधवा दिवस मनाया जाता है. यह दिवस विधवाओं के सामने आने वाली चुनौतियों के बारे में जागरूकता बढ़ाने, उनके अधिकारों और कल्याण के प्रति समर्पित है. इसके माध्यम से विधवाओं के सामने आने वाली सामाजिक, आर्थिक और कानूनी कठिनाइयों को उजागर करना और इन मुद्दों को हल करने के लिए कार्रवाई को बढ़ावा देना है.
इस दिवस की स्थापना 2010 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा की गई थी. इसकी शुरुआत एक गैर-सरकारी संगठन लूंबा फाउंडेशन द्वारा की गई थी, जो दुनिया भर में विधवाओं के कल्याण और सशक्तिकरण को बढ़ावा देने के लिए कार्यरत है. साथ ही इस विशेष दिन का उद्देश्य विधवाओं द्वारा सामना की जाने वाली कठिनाइयों की ओर सभी का ध्यान आकर्षित करना है, जो अकसर भेदभाव, गरीबी, सामाजिक बहिष्कार और अन्य चुनौतियों का सामना करती हैं. यह दिवस लैंगिक समानता, महिला सशक्तिकरण और विधवाओं के लिए सामाजिक न्याय को भी बढ़ावा देना है. उल्लेखनीय है कि 2011 की जनगणना के अनुसार, देश में 4 करोड़ से अधिक विधवाएं हैं. भारत में इसका दर राज्यों के हिसाब से अलग-अलग है. भारत में कुल विधवा दर लगभग 8.3 प्रतिशत है. भारत में अधिकांश विधवाएं वृद्ध हैं. लगभग 58 प्रतिशत विधवाओं की आयु 60 वर्ष और उससे अधिक हैं. सामाजिक और सांस्कृतिक कारकों के कारण भारत में विधवाओं के बीच पुनर्विवाह की दर आम तौर पर कम है. 2011 की जनगणना के अनुसार, 60 वर्ष और उससे अधिक आयु की केवल 15 प्रतिशत विधवाओं का पुनर्विवाह हुआ है. देश में कई विधवाएं आर्थिक कठिनाइयों का सामना कर रही हैं और गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने को विवश हैं. 2011-12 में किए गए राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण में बताया गया है कि ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 46 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 32 प्रतिशत विधवाएं गरीबी रेखा से नीचे जीवन व्यतीत कर रही हैं. इसके अलावा देश में विधवाओं की शिक्षा तक सीमित पहुंच हैं. 2011 की जनगणना के अनुसार, 60 वर्ष और उससे अधिक आयु की लगभग 57 प्रतिशत विधवाएं निरक्षर हैं.
अधिकांश विधवाएं विरासत के अधिकारों से वंचित हैं और वे यौन शोषण या हिंसा की शिकार होती हैं. भारतीय विधवाएं अभी भी अतीत के मानदंडों, परंपराओं और सांस्कृतिक उपेक्षाओं से पीड़ित हैं. विधवाओं द्वारा सामना की जाने वाली दो आम समस्याएं- सामाजिक स्थिति का नुकसान और वित्तीय स्थिरता में कमी है. विधवाओं को अपने जीवन के दौरान आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ता है. जिसके कारण वे अपने बच्चों को शिक्षा के लिए स्कूल भेजने के बजाय काम पर भेजने के लिए बाध्य हैं. राजस्थान के जालोर जिले के बागरा कस्बे की विधवाओं को कुछ ऐसे ही बुरे हालात से गुजरना पड़ रहा हैं. कस्बे की रहने वाली सीता देवी के पति की जब दस साल पहले सड़क हादसे में मौत हुई थी, तब उनके बच्चों की उम्र पांच से छह साल के बीच थी. पति की असामयिक मृत्यु के कारण उन्हें अपने पुत्र का स्कूली दाखिला निरस्त कर उसे पैतृक कार्य में लगाना पड़ा. सीता देवी से जब विधवाओं के कल्याण के लिए सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं व उनसे मिलने वाले लाभ के बारे में पूछने पर वह कहती हैं, 'मुझे सरकार की ओर से विधवा पेंशन के नाम पर मात्र 750 रुपये मिलते हैं. इसके अलावा किसी प्रकार की कोई मदद नहीं मिल रही है. 750 रुपये में घर चलाना संभव नहीं है. इस कारण मैंने मजबूरीवश अपने बड़े बेटे का स्कूल छुड़वाकर उसे काम पर लगा दिया और खुद भी मजदूरी कर रही हूँ. अनपढ़ होने के कारण हमें विधवा कल्याण की दिशा में सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं की कोई जानकारी नहीं मिलती और न ही इस बारे में कोई बताता है.'
इसी तरह पिछले साल कस्बे की एक अन्य महिला सविता देवी के पति का भी सड़क दुर्घटना में आकस्मिक निधन हो जाने के कारण परिवार के भरण-पोषण के लिए उन्हें भी अपने तेरह साल के बड़े बेटे का स्कूल छुड़वाकर पैसे कमाने के लिए शहर भेजना पड़ा. 'शिक्षा से वंचित रखकर बेटे पर कम उम्र में घर की जिम्मेदारी डाल देना कितना ठीक है?' इस प्रश्न के जवाब में वह कहती हैं, 'हम भी नहीं चाहते कि बेटा पढ़ाई की उम्र में पैसा कमाए, लेकिन मजबूरी इंसान से क्या कुछ नहीं करवाती. घर पर दो बेटियां और एक छोटा लड़का भी है. कुल मिलाकर पांच लोगों की दैनिक जरूरतों का खर्च. बेटियां बड़ी हैं इसलिए उन्हें काम पर भेज नहीं सकते और छोटा बेटा अभी स्कूल में पढ रहा है.' सरकार की ओर से क्या लाभ मिल रहा है? इस सवाल के जवाब में वह कहती हैं, 'फिलहाल तो पेंशन के रूप में 750 रुपये ही मिलते हैं. वे माह के बीच या आखिर में खाते में जमा होते हैं. इसके अतिरिक्त किसी और तरह की कोई आर्थिक सहायता नहीं मिल रही है. हमने बीपीएल में नाम जुड़वाने की कोशिश की, पर बहुत दौड़-भाग के बाद भी नतीजा सिफर ही रहा. मैं खुद भी मजदूरी करती हूं. दो सौ रुपये दिन के मिल जाते हैं. जिससे घर चलाने में आसानी होती है. बेटा अभी शहर में दुकान पर है और काम सीख रहा है. इसलिए फिलहाल घर का खर्च तो मैं ही चला रही हूं.'
विधवाओं के कल्याण और उनकी बदतर आर्थिक-सामाजिक स्थिति के बारे में समाजसेवी दिलीप सिंह का कहना है, 'जिले में विधवाओं की सबसे बड़ी समस्या आर्थिक संकट है. ग्रामीण क्षेत्रों में घर और पूरे परिवार की आजीविका की जिम्मेदारी अकेले पति के कंधों पर होती है. उनके असमय गुजर जाने के बाद घर का संतुलन बिगड़ जाता है. महिलाओं के अशिक्षित होने के कारण उनके पास मजदूरी करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता है. हालांकि समाज भी अपने स्तर पर विधवाओं की आर्थिक मदद करता रहा है, लेकिन ज्यादातर मामलों में विधवाएं समाज का सहयोग लेने से इनकार कर देती हैं. कारण है उन्हें समाज के अन्य लोगों के बीच असहाय और हीन समझने का डर होता है, जो उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाती है. जहां तक बात विधवाओं की सामाजिक स्थिति की है, तो पहले की अपेक्षा अब स्थिति बेहतर हो रही है. समाज विधवा पुनर्विवाह को मान्यता दे रहा है. विधवाओं पर सामाजिक बंदिशें भी कम हो रही हैं. समाज में जैसे-जैसे शिक्षा का प्रकाश फैल रहा है, वैसे-वैसे विधवा जीवन से जुड़ी संकीर्ण मानसिकता कम होती जा रही हैं.'
ई-मित्र संचालक प्रवीण कुमार के अनुसार, 'देश व राज्य में विधवाओं की आर्थिक सहायता के लिए सरकारी कार्यक्रम और सामाजिक पहल के तौर पर कई योजनाएं संचालित हैं, जैसे कि राष्ट्रीय विधवा पेंशन योजना, स्वाधार गृह योजना, प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना (पीएमएमवीवाई), महिलाओं के लिए प्रशिक्षण और रोजगार कार्यक्रम में सहायता योजना, राष्ट्रीय पारिवारिक लाभ योजना, अन्नपूर्णा योजना इत्यादि.' विकसित और विकासशील दोनों देशों में विधवाओं को अपनी सामाजिक स्थिति में कई परिवर्तनों का सामना करना पड़ता हैं. भारत में विधवाओं को अकसर सामाजिक कलंक और विभिन्न भेदभावपूर्ण प्रथाओं का सामना करना पड़ता हैं. खास तौर से पारंपरिक और रूढ़िवादी समुदायों में विधवाओं को पुनर्विवाह प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता हैं. उन्हें सामाजिक जीवन से बहिष्कृत कर दिया जाता है. यहां तक कि उनके पहनावे, शुभ-कार्य में प्रवेश, साज-शृंगार व आभूषण पहनने और नाचने-गाने पर समाज की पाबंदियां होती हैं. हालांकि समय के साथ समाज में विधवाओं के प्रति आदर और सम्मान का भाव जाग रहा है और उनके स्वतंत्र जीवन को बाधित करने वाली परंपराएं और प्रतिबंध अपनी पकड़ ढीली कर रहे हैं. लेकिन अभी भी आर्थिक रूप से विधवाओं को सशक्त बनाने की चुनौती कायम है.
देवेन्द्रराज सुथार
जालोर, राजस्थान
(चरखा फीचर)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें