विपक्षी एकजुटता : मोदी को उखाड़ना नहीं, अपने-अपने क्षत्रपों को है बचाना - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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रविवार, 25 जून 2023

विपक्षी एकजुटता : मोदी को उखाड़ना नहीं, अपने-अपने क्षत्रपों को है बचाना

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विपक्ष को एकजुट करने के प्रयास में लगे हुए हैं. लेकिन हकीकत इसके ठीक उलट है। यह अलग बात है कि मोदी के खौफ के आगे सभी विपक्षी दलों का मकसद एक ही है- बीजेपी को केंद्र की सत्ता से बेदखल करना। मकसद समान होने के बावजूद सबके अपने-अपने हित हैं। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है एक तरफ जो पार्टियां राज्यों में अपना वर्चस्व बनाने के लिए सिर फुटौव्वल कर रही हैं, वे लोकसभा के लिए एक साथ एक मंच पर कैसे आएंगी? राज्यों में लड़ाई तो राष्ट्रीय स्तर पर दोस्ती कैसे? और अगर सहमती बन भी गयी तो सीटों का बंटवारा कैसे होगा? दरअसल, विपक्षी एकता तो बहाना है असल मकसद है मोदी की आंधी में अपने-अपने राज्यों को बचाना है। कांग्रेस और वाम दलों को छोड़ कर ज्यादातर विपक्षी एकता मिशन में क्षेत्रीय दलों के क्षत्रप हैं। जबकि उनका अपने-अपने राज्यों में एक का दूसरे राजनीतिक दल से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है। खास बात यह है कि उन्हीं दलों की वोटबैंक में सेंधमारी कर अपने को भाजपा से मुकाबले में बताती है। यही वजह है कि क्षत्रप अपने राज्यों में कांग्रेस को स्थान नहीं देना चाहते हैं, क्योंकि उनका सियासी आधार कांग्रेस की जमीन पर खड़ा है  

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फिरहाल, लोकसभा 2024 चुनाव में अब करीब नौ माह ही बचे है. ऐसे में मैदान मारने के लिए हर दल अपनी पूरी ताकत झोंके पड़े है। जबकि मोदी सरकार के कामकाज से अधिकतर जनता संतुष्ट है. हालांकि, महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दों को लोग मोदी सरकार की बड़ी नाकामयाबी मानते है. विपक्ष इसी मुद्दे पर लगातार भाजपा को घेर भी रहे है। लेकिन धार नहीं दे पा रहे है। इसी वजह से विपक्षी दलों ने एकजुटता की कड़ी में क्षेत्रीय क्षत्रपों के साथ समझौता करने का निर्णय लिया है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विपक्ष को एकजुट करने के प्रयास में कुछ हद तक सफलता भी पायी है। यह अलग बात है कि मोदी के खौफ के आगे सभी विपक्षी दलों का मकसद एक ही है- बीजेपी को केंद्र की सत्ता से बेदखल करना। पटना में तीन घंटे की मंथन में एक ही मुद्दे पर सैद्धांतिक सहमति बनी कि भाजपा मुक्त भारत के लिए सभी विपक्षी दल साथ रहेंगे। बैठक में कोई रणनीति नहीं बन पाई। उल्टे बैठक के बाद सीएम अरविंद केजरीवाल ने पटना से लेकर दिल्ली तक यह संकेत दे दिया कि विपक्षी एकता की बात बेमानी है। कहा जा सकता है मकसद समान होने के बावजूद सबके अपने-अपने हित हैं। यही हित और स्वार्थ की टकराहट विपक्षी एकता की कामयाबी में संदेह के कारण हैं। दरअसल, विपक्षी एकता तो बहाना है असल मकसद है मोदी की आंधी में अपने-अपने राज्यों को बचाना है।


कांग्रेस और वाम दलों को छोड़ कर ज्यादातर विपक्षी एकता मिशन में क्षेत्रीय दलों के क्षत्रप हैं। जबकि उनका अपने-अपने राज्यों में एक का दूसरे राजनीतिक दल से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है। खास बात यह है कि उन्हीं दलों की वोटबैंक में सेंधमारी कर भाजपा के मुकाबले में चुनाव लड़ते है। ममता की टीएमसी ने बंगाल से कांग्रेस और वाम दोलों का जिस तरह सफाया किया है, वे कैसे उन दलों से तालमेल बिठा पाएंगी, कहना कठिन है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से लेकर सपा प्रमुख अखिलेश यादव और आरजेडी नेता तेजस्वी यादव समेत तमाम विपक्षी दल के नेता चाहते हैं कि कांग्रेस उनके प्रभाव वाले राज्यों से चुनाव नहीं लड़े, ताकि भाजपा से सीधे मुकाबले में वोटों का बंटवारा नहीं हो। बंगाल, दिल्ली, तमिलनाडु, झारखंड, पंजाब, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना और ओडिशा में जनता के बीच मजबूत पकड़ रखने वाली पार्टियों को प्राथमिकता देनी चाहिए। दिलचस्प यह है कि ममता ने आरंभ में बिना कांग्रेस के विपक्षी एकता का अभियान छेड़ा था, जिसका किसी दल ने समर्थन नहीं किया। नीतीश कुमार की पहल पर जब विपक्षी एकता मिशन की शुरुआत हुई, तब से ममता बनर्जी कांग्रेस को उसकी औकात बताने की कोशिश करती रही हैं। दिल्ली और पंजाब में आप और कांग्रेस एक दूसरे के दुश्मन हैं। दिल्ली और पंजाब की सत्ता आप ने कांग्रेस को धकेल कर ही हासिल की है। दोनों राज्यों के बड़े कांग्रेसी नेताओं को ऐसा लगता है कि आप से नजदीकी बढ़ी तो इन दो राज्यों में कांग्रेस के लिए सत्ता में लौटने के सपने पर पानी फिर जाएगा। विपक्षी बैठक के दो दिन पहले बयान आया कि दिल्ली और पंजाब को कांग्रेस भूल जाएं तो राजस्थान और मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव में आप अपना उम्मीदवार नहीं उतारेगी। अब खुद अरविंद केजरीवाल ने बयान दिया है कि अध्यादेश पर सभी साथ नहीं आएं तो विपक्षी एकता का कोई मतलब नहीं है।


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राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और राहुल गांधी से मुलाकात में पंजाब और दिल्ली इकाइयों के नेता अपनी पीड़ा बता चुके हैं। कांग्रेस इसी वजह से चुप है। 80 सीटों वाले यूपी में सपा के संबंध किसी दल से ठीक नहीं हैं। अखिलेश यादव के लिए कांग्रेस बड़ा दुश्मन रही है। हालांकि एक बार उन्होंने कांग्रेस के तालमेल से चुनाव भी लड़ा था। चुनाव की नाकामी के लिए वे कांग्रेस को जिम्मेवार मानते रहे हैं। ऐसी स्थिति में कौन किसका साथ कितनी ईमानदारी से देगा, यह देखने वाली बात होगी। खास यह है कि गठबंधन के बावजूद सपा की बीजेपी को हराने की 3 कोशिशें विफल हो चुकी हैं. महाराष्ट्र में शिवसेना के नेता और पूर्व सीएम उद्धव ठाकरे कट्टर हिन्दुत्व विचारधारा के हैं। सीएए, एनआरसी, कामन सिविल कोड, मंदिर जैसे मसलों पर वे कैसे विपक्षी एकता के बाद बनने वाले कामन मिनिमम प्रोग्राम में अपनी बातों को शामिल करा पाएंगे, जब कांग्रेस समेत ज्यादातर पार्टियां इसके खिलाफ हैं। जम्मू कश्मीर से धारा 370 के खात्मे के सवाल पर केजरीवाल का स्टैंड नेशनल कांफ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला को नागवार लगा था। उन्होंने अपनी पीड़ा का इजहार भी बैठक में किया। उद्धव ठाकरे हिन्दुत्व पर कैसे अपना रुख बदलेंगे। यानी कॉमन मिनिमम प्रोग्राम तैयार करना भी विपक्ष के लिए बड़ी चुनौती होगी। मतलब साफ है मकसद एक होने के बावजूद सभी विपक्षी दलों की विचारधारा एक नहीं है। और मोदी खौफ में तालमेल बन भी गया तो इनका मुखिया कौन होगा? ये बड़ा सवाल है।  देखा जाएं तो सपा प्रमुख अखिलेश यादव संभवतः यूपी में कांग्रेस को 15 सीटें, ममता बनर्जी बंगाल में लगभग 6 सीटें देने पर सहमत हो सकती हैं और दिल्ली में कांग्रेस और आप के बीच 4 व 3 का फॉर्मूला विवाद सुलझा सकता है. कांग्रेस पार्टी के लिए यह एक लिटमस टेस्ट है और देखना होगा कि क्या उसे क्षेत्रीय दलों से वह स्वीकार्यता और महत्व मिल पाता है जिसकी वह उम्मीद करती है. यूपीए 2004 में अस्तित्व में आया और फिर उसे दूसरा कार्यकाल मिला. तब सोनिया गांधी यूपीए की चेयरपर्सन थीं. यूपीए 3 के लिए नेतृत्व का मुद्दा भी एक विवादास्पद है क्योंकि सोनिया गांधी ने अब पार्टी में जिम्मेदारी नहीं ली है. पीएम मोदी के लिए प्रमुख चुनौती कौन होगा या क्या यह एक सामूहिक चुनौती होगी? इस पर भी सबकी नजर रहेगी.


कांग्रेस की रणनीति बीजेपी की रणनीति से बिल्कुल अलग है। बीजेपी के लिए नरेंद्र मोदी तुरूप का इक्का है। जिनकी लोकप्रियता आज भी बरकरार है। बीजेपी के पास अर्जुन जैसा धनुर्धर है। उसके राष्ट्रीयता, हिंदुत्व के अलावा समाज कल्याण योजनाओं पर आमजनमानस फिदा है।  यह अलग बात है कि बीजेपी अभी नए भारत की सांस्कृतिक धरोहरों व आधुनिकता से ओतप्रोत नयी संसद, भारत की विश्व गुरु की छवि के अलावा मोदी की अमेरिकी यात्रा और सितंबर में होने वाली जी-20 शिखर सम्मेलन, जिसमें दुनिया के तमाम नेता भारत पहुंचेंगे और राम मंदिर, जिसका उद्घाटन जनवरी में होगा, बड़ा मुद्दा होगा। मतलब साफ है बीजेपी इन्हीं मुद्दों के साथ मोदी की उपलब्धि बताते हुए चुनाव में उतरेगी। इसके मुकाबले विपक्ष के पास सिवाय मोदी को हटाने के कोई मुद्दा नहीं होगा। तब जनता सोचने को विवश होगी कि एक तरफ चारा घोटाला के लालू, ममता का खून खराबा और अखिलेश के माफिया प्रेम व मुस्लिम परस्ती के मुकाबले भाजपा ही बेहतर है। वैसे भी विपक्ष के मोदी जैसा कोई नेता भी नहीं है, जो सबको स्वीकार्य हो। यह एक वास्तविकता और सच्चाई भी है। विपक्ष महंगाई का मुद्दा उठाएगा लेकिन उसे नारों में बदलना एक चुनौती होगी। वैसे भी विपक्ष के 18 दलों का इकट्ठा हो जाना और तस्वीरें खिंचवाना कोई नई बात नहीं है। यह पहले भी कई बार हो चुका है। इस बार भी सबसे बड़ा संकट सीटों का होगा। हर क्षेत्रीय पार्टी चाहेगी कि भाजपा के मुकाबले सिर्फ वही इकलौता चुनाव लड़े। जबकि जहां कांग्रेस या अन्य दुसरे नंबर रही वो सीट कैसे छोड़ सकते है। देखा जाएं तो क्षत्रपों का एक ही मकसद है मुस्लिम वोट विखरने न पाएं। उन्हें लगता है कि 2019 के चुनाव में गैर भाजपा दलों को जो 62 फीसदी मत मिले थे, यदि वे अच्छी संख्या में एकजुट हो गए तो भाजपा को हराने का मौका बन सकता है। मतलब साफ है क्षत्रपों की ख्वाहिश होगी कि उनके राज्य में वहीं सर्वेसर्वा हों, कांग्रेस या अन्य दल उन्हें पूरी तरह से समर्थन दें।


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ओड़िशा के सीएम नवीन पटनायक, तेलंगाना के सीएम केसी राव, आंध्रप्रदेश के सीएम जगन मोहन रेड्डी ने विपक्षी एकता में कोई रुचि नहीं दिखाई। यानी विपक्ष शासित तीन प्रदेशों के सीएम बैठक से दूर रहें। यूपी की सीएम रह चुकीं बीएसपी सुप्रीमो मायावती को एकता मिशन से अलग ही रखा गया। अरविंद केजरीवाल तो शुरू से वैकल्पिक राजनीति की बात करते रहे हैं और दो राज्यों में उन्होंने सरकारें भी बना लीं। यानी पीएम बनने की उनकी भी महत्वाकांक्षा है। पीएम फेस पर राहुल गांधी के अलावा कांग्रेस कभी दूसरे नाम पर सोचती ही नहीं। इसलिए विपक्ष के लिए पीएम फेस तय करना भी एक बड़ी चुनौती होगी। भाजपा अभी से चिल्लाना शुरु कर दिया है, सभी लुटेरे एक साथ हो गए है। भ्रष्टाचारियों वंशवादियों और आतंकवादियों की ये बरात है. ठगों की बरात का दूल्हा कौन होगा यह किसी को पता नहीं है. यूपी में ं 2014 के बाद जितने चुनाव हुए हैं, उन सभी में बीजेपी ने जीत के इतिहास गढ़े हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी गठबंधन को 80 में से 73 सीटें हासिल हुईं. इसके बाद 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा-कांग्रेस गठबंधन के सामने 403 सीटों में बीजेपी गठबंधन 325 सीटें जीतने में सफल हुई. इसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा बसपा गठबंधन के बावजूद बीजेपी गठबंधन ने 80 में से 64 सीटें जीत लीं. फिर 2022 में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में बीजेपी ने 37 सालों पुराना रिकॉर्ड तोड़ने हुए दोबारा सरकार बनाई और बीजेपी गठबंधन को 403 में 255 सीटों पर जीत हासिल हुई. 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में सपा का प्रदर्शन काफी खराब रहा. दोनों ही बार सपा सिर्फ 5-5 सीटें जीत सकी. विपक्षी एकजुटता पर मायावती ने ट्वीट कर कहा, दिल मिले न मिले हाथ मिलाते रहिए, वाले हालात इस वक्त उन दलों के हैं, जो बैठक में शामिल रहे हैं. ये निशाना सीधे तौर पर सपा और कांग्रेस पर है. राहुल गांधी ने भी कबूल किया कि सभी दलों में कुछ न कुछ मतभेद तो है, लेकिन सबका इरादा एक है- भाजपा को हराना।


क्या कांग्रेस अपना वजूद खत्म करेगी?

जहां तक बिहार से जेपी आंदोलन की तर्ज पर विपक्षी एकता की दुहाई व मोदी को उखाड़ फेकने की दुहाई दी जा रही है, वो यह भूल गए है कि 25 जून को इमर्जेंसी लाकर कांग्रेस ने लोकतंत्र की हत्या की थी. अब उसी कांग्रेस की गोद में बैठकर किस लोकतंत्र की बात करेंगे। कर्नाटक विधानसभा चुनाव नतीजों के वोटिंग ट्रेंड का आकलन करते हैं तो राज्य की 29 लोकसभा सीटों में से सिर्फ बीजेपी को 4 सीटों पर बढ़त मिली है। जबकि 21 सीटों पर कांग्रेस आगे रही है। इन राज्यों के चुनाव नतीजों को 2024 के लोकसभा चुनाव से जोडकर देखा जाएगा। इस तरह से 2023 में होने वाले विधानसभा चुनाव के नतीजे से जो तस्वीर उभरेगी, उसके बाद 2024 के चुनाव का परिदृश्य साफ होगा और उससे पहले तक विपक्षी दलों के बीच शह-मात का खेल जारी रह सकता है। जबकि विपक्षी दल आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा से मुकाबला करने के लिए कांग्रेस की कुर्बानी चाहते हैं। कांग्रेस इस एकता के पीछे छिपे विपक्षी दलों के अपने राज्यों में अकेला रहने की नीयत को अच्छी तरह पहचानती है। इस एकता की कवायद को लेकर विपक्षी दलों की हालत इधर कुआं और उधर खाई जैसी हो गई है। विपक्षी दलों को भाजपा के साथ ही कांग्रेस से भी खतरा है। भाजपा से मुकाबले में वोटों के बिखराव को रोकने के लिए विपक्षी दल कांग्रेस को भी अपने जनाधार वाले राज्यों से चुनावी मैदान से हटाने चाहते हैं। दुसरी तरफ, कांग्रेस ने बेशक अपनी महत्वाकांक्षा का खुलकर इजहार नहीं किया है, किन्तु उसके इरादों से साफ जाहिर है कि राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाना है। विपक्षी दल चाहते हैं कि कांग्रेस को सिर्फ उन्हीं 200 संसदीय सीटों पर फोकस करना चाहिए जहां बीजेपी से उसका सीधा मुकाबला है। विपक्ष की शर्तों पर कांग्रेस राजी नहीं है। वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए हो रही विपक्षी एकता के मसले पर जो बात ममता कह रही हैं वही अखिलेश और केसीआर भी कह रहे हैं कि जहां पर जो दल मजबूत है, वो चुनाव लड़े और विपक्ष के बाकी दल उसे समर्थन करें। लेकिन कांग्रेस इस पर रजामंद नहीं है। कांग्रेस को पता है कि जहां भाजपा से सीधा मुकाबला है, वहां तीसरा मजबूत दल नहीं है। इसलिए विपक्ष की यह खैरात कांग्रेस को पसंद नहीं है। इन सीटों पर अन्य दल चाह कर भी कांग्रेस और भाजपा के बीच आकर मुकाबले त्रिकोणीय या बहुल नहीं बना सकते, ऐसे में कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के आधार वाले राज्यों में चुनाव नहीं लडने की शर्त को कभी भी स्वीकार नहीं करेगी। विपक्षी दलों को लगता है कि कांग्रेस उनके प्रदेश में अगर मजबूत होती है, तो भविष्य में उनके लिए ही चिंता बढ़ा सकती है। इसीलिए विपक्षी दल कांग्रेस को उन्हीं सीटों के इर्द-गिर्द रखना चाहते हैं, जहां उसका मुकाबला सीधा भाजपा से है। कांग्रेस इस बात को समझती है कि केंद्र की सत्ता दोबारा से हासिल करनी है तो उसे पहले राज्यों में मजबूत होना होगा, इसीलिए कांग्रेस विपक्षी एकता से ज्यादा फोकस राज्यों के चुनाव पर कर रही है ताकि पहले खुद मजबूत हो ले। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में विपक्ष द्वारा कांग्रेस को सुझाई जा रही 200 सीटों के नतीजों को देखें तो बीजेपी 178 सीटें जीतने में सफल रही थी। कांग्रेस को महज 16 सीटें मिली थीं। 6 सीटें अन्य के खाते में गई थीं। इससे पहले वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में इन 200 सीटों में से बीजेपी 168 सीटें जीतने में कामयाब रही थी और कांग्रेस को सिर्फ 25 सीटें मिली थीं। इसके अलावा 7 सीटें दूसरे दलों ने जीती थीं।


उत्तर भारत में भाजपा के मुकाबले मजबूत है कांग्रेस

कांग्रेस और बीजेपी के बीच ज्यादातर सीधा मुकाबला उत्तर भारत के राज्यों में है। मध्य प्रदेश (29), कर्नाटक (28), राजस्थान (25), छत्तीसगढ़ (11), असम (14), हरियाणा (11), हिमाचल (4), गुजरात (26), उत्तराखंड (5), गोवा (2), अरुणाचल प्रदेश (2), मणिपुर (2), चंडीगढ़ (1), अंडमान और निकोबार (1) और लद्दाख (1) में लोकसभा सीट है। इस तरह ये 162 लोकसभा सीटें होती हैं जहां पर कांग्रेस और बीजेपी के बीच ही मुकाबला होना है। वहीं 38 लोकसभा सीटें उन राज्यों की हैं जहां क्षेत्रीय दल मजबूत स्थिति में हैं, लेकिन इन सीटों पर मुकाबला कांग्रेस से होता है। इस फेहरिस्त में पंजाब की कुल 13 सीटों में से 4, महाराष्ट्र की 48 सीटों में से 14, यूपी की 80 में 5, बिहार की 40 में से 4, तेलंगाना की 17 में से 6 और 5 सीटें आंध्र प्रदेश और केरल की हैं। कर्नाटक के बाद अब मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में विधानसभा चुनाव होने हैं। कर्नाटक विधानसभा चुनाव नतीजों के वोटिंग ट्रेंड का आकलन करते हैं तो राज्य की 29 लोकसभा सीटों में से सिर्फ बीजेपी को 4 सीटों पर बढ़त मिली है जबकि 21 सीटों पर कांग्रेस आगे रही है। इन राज्यों के चुनाव नतीजों को 2024 के लोकसभा चुनाव से जोडकर देखा जाएगा। इस तरह से 2023 में होने वाले विधानसभा चुनाव के नतीजे से जो तस्वीर उभरेगी, उसके बाद 2024 के चुनाव का परिदृश्य साफ होगा और उससे पहले तक विपक्षी दलों के बीच शह-मात का खेल जारी रह सकता है। कांग्रेस से अंदरूनी खतरे के कारण पूर्व में भी विपक्षी एकता के प्रयास सिरे नहीं चढ़ सके हैं। सीटों के लिए हो रही इस खींचतान के कारण पटना में होने वाली बैठक से विपक्षी एकता के बहुत उत्साहवर्द्धक परिणाम आने की संभावना क्षीण है। साल 2014 से ही देश में लोकसभा चुनाव मोदी के चेहरे के नाम पर जीता जाता रहा. 2014 लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 282 सीटें और साल 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 303 सीटें जीतीं थी. 2019 में तो अकेले हिंदी पट्टी में मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने 50 फीसदी के करीब वोट शेयर के साथ 141 सीटें जीतीं थीं. लोकसभा सीटों की बात की जाए तो उत्तर प्रदेश में 80 सीटें, महाराष्ट्र में 48 सीट, बंगाल में 42, बिहार में 40, तमिलनाडु में 39, पंजाब में 13, केरल में 20, हरियाणा में 10, झारखंड में 14, दिल्ली में 7, जम्मू कश्मीर में 5 सीटें हैं. वहीं इन राज्यों में बीजेपी प्लस के पास कुल 162 सीटें हैं. यहां यह बताना भी जरूरी है कि 2019 लोकसभा चुनाव में बिहार में जेडीयू, पंजाब में अकाली दल और महाराष्ट्र में शिवसेना ने मिलकर चुनाव लड़ा था. गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में कांग्रेस का सीधा मुकाबला भाजपा से रहता है। असम और हरियाणा में कांग्रेस प्रमुख विपक्षी दल है। पंश्चिम बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र और झारखंड में भी कांग्रेस की महत्वपूर्ण उपस्थिति है। नीतीश जिस विपक्षी एकता की बात कर रहे हैं उसमें कांग्रेस ही एकमात्र ऐसा दल है, जिसका वोट बैंक पूरे देश में है। आंकड़े भी इसको प्रमाणित करते हैं। 2019 के आम चुनाव में कांग्रेस ने 421 सीटों पर चुनाव लड़कर 52 सीटें जीती थी। जबकि भाजपा ने 437 सीटों पर चुनाव लड़कर 303 सीटें जीती थी। 2019 लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले एनडीए को करीब 45ः वोट मिले जिसमें 38 फीसदी वोट भाजपा के खाते में गया था। दूसरी ओर यूपीए को मिले 26 प्रतिशत वोट में कांग्रेस को लगभग 20 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे। 29 प्रतिशत वोट ऐसे क्षेत्रीय दलों को मिले थे जो न एनडीए का हिस्सा थे और न यूपीए। इस तरह नीतीश कुमार की कोशिश भाजपा विरोधी उसी 55 प्रतिशत वोट को एकजुट करने की है, जिससे भाजपा को 2024 में सत्ता से बेदखल किया जा सके।


बुलंद है कांग्रेस के हौसले

पहले हिमाचल फिर कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भाजपा की करारी हार के बाद भाजपा बैकफुट पर नजर आ रही है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के धुआंधार प्रचार व रोड शो के उपरांत भी दोनों ही प्रदेशों में भाजपा अपनी सरकार नहीं बचा सकी थी. इससे कांग्रेस सहित सभी विपक्षी दलों के हौसले बुलंद नजर आ रहे हैं. राहुल गांधी से लेकर प्रियंका गांधी तक सक्रिय है और देश भर में बीजेपी के खिलाफ माहौल बनाने में जुटे हैं. कांग्रेस का मानना है की राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, जम्मू-कश्मीर विधानसभा के आगामी चुनाव में यदि विपक्षी दल एकजुट होकर चुनाव लड़े तो भाजपा को आसानी से हराया जा सकता है. यदि इन प्रदेशों के विधानसभा चुनाव में भाजपा हार जाती है तो अगले लोकसभा चुनाव में उसका मनोबल काफी कमजोर हो जाएगा. वहीं इन प्रदेशों में जीतने से विपक्षी दलों की एकजुटता और अधिक मजबूत होगी. जिसका लाभ उन्हें आगामी लोकसभा चुनाव में मिल सकेगा. लेकिन क्षेत्रीय दल बहुत ज्यादा कांग्रेस को सियासी स्पेस नहीं देना चाहते हैं. इसकी वजह यह है कि केजरीवाल से लेकर अखिलेश यादव और ममता बनर्जी तक जिस सियासी आधार पर खड़ी है, वो कभी कांग्रेस का हुआ करता था. ऐसे मे कांग्रेस को उभरने से उन्हें अपनी सियासी जमीन खिसकने का भय सता रहा है. 





Suresh-gandhi


सुरेश गांधी

वरिष्ठ पत्रकार

वाराणसी

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