वर्तमान में कुछ विद्वानों का मानना है कि ’राष्ट्रीय पुनरुत्थान के लिए प्राथमिकता से लेकर उच्च शिक्षा तक संपूर्ण शिक्षा को भारतीय मूल्यों पर आधारित, भारतीय संस्कृति की जड़ों से पोषित तथा भारत केंद्रित बनाने हेतु नीति, पाठ्यक्रम तथा पद्धति में भारतीयता लाने के लिए आवश्यक अनुसंधान, प्रबोधन, प्रशिक्षण, प्रकाशन और संगठन करना चाहिए। यह ध्येय वाक्य इसलिये बनाया गया है कि हमारी आने वाली पीढ़ी या वर्तमान के नौजवान जो स्कूली शिक्षा या उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं, उनको इस ध्येय से ओत-प्रोत शिक्षा नीति पाठ्यक्रम तथा पद्धति से पढ़ाया जाएगा एवं प्रशिक्षित किया जाएगा। ताकि वे लोग अपनी शिक्षा पूरी कर राष्ट्रीय पुनरुत्थान कर सकें।’ इसका मतलब यह है कि हमारे सम्पूर्ण कार्य का केन्द्र बिन्दु सिर्फ और सिर्फ विद्यार्थी होना चाहिए। जब हमारा केन्द्र बिन्दु विद्यार्थी हैं तो हमको इस विद्यार्थी की वर्तमान स्थिति क्या है? इस पर तो कोई चर्चा ही नहीं होती। वर्तमान के विद्यार्थियों की मनोदशा क्या है? उसकी आशा, अपेक्षा एवं आकांक्षा क्या है? वह किस तरह के दुष्चक्र में फंसा हुआ है? उसको निकालने का रास्ता क्या है? गांवों के, गरीबों के, मध्यम वर्ग के, उच्च वर्ग के विद्यार्थियों की मनोदशा क्या है? इन पर भी कोई चर्चा होनी चाहिए। इन्हें ध्यान में रखकर अपने वर्तमान ध्येय को प्राप्त करने की कार्ययोजना बनाई जाए। तभी हम व्यवहारिक धरातल पर कुछ कर पाएंगे। जबकि उपनिषद के अनुसार, ‘शिक्षा वह है जिसका प्रमुख साध्य मुक्ति है।’ डॉ. भीवराव अम्बेडकर के अनुसार, ‘शिक्षा से तात्पर्य बालक और मनुष्य के शरीर, मन तथा आत्मा के सर्वांगीण एवं सर्वाेत्कृष्ट विकास से है।’ डॉ. लवी गौतम के अनुसार, ‘शिक्षा व्यक्ति की उन सभी भीतरी शक्तियों का विकास है, जिससे वह अपने वातावरण पर नियंत्रण रखकर अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह कर सके।’ अरस्तु के अनुसार, ‘शिक्षा स्वस्थ शरीर-मस्तिष्क का निर्माण है।’ पेस्टालॉजी के अनुसार, ‘शिक्षा मनुष्य की अन्तर्निहित शक्तियों का स्वाभाविक, सामंजस्यपूर्ण तथा प्रगतिशील विकास है।’ तो स्पेन्सर के अनुसार, ‘शिक्षा पूर्ण जीवन है।’ काण्ड कहते हैं कि शिक्षा, व्यक्ति की उस सब पूर्णता का विकास है, जिसकी उसमें क्षमता है। फ्रावेल का भी मानना है कि शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जो बालक के आंतरिक गुणों का विकास करती है। रूसो कहते हैं कि प्रत्येक बालक की प्राकृतिक शक्तियों, क्षमताओं तथा योग्यताओं के स्वतः एवं स्वाभाविक विकास का नाम शिक्षा है। जॉन ड्यूवी के अनुसार, ‘शिक्षा अनुभवों के सतत् पुनर्निर्माण द्वारा जीवन की प्रक्रिया है। वह व्यक्ति में उन समस्त क्षमताओं का विकास है, जो उसको अपने वातावरण को नियन्त्रित करने एवं अपनी सम्भावनाओं को पूर्ण करने योग्य बनाती है।
मेरे अनुभव, मेरे विचार-
मैं स्वयं भी लगभग 11 हजार विद्यार्थियों से सीधे सम्पर्क में रहता हूँ। इसलिए बालक का सर्वांगीण विकास करने वाली व्यवहारिक और तकनीकी शिक्षा को ही असली शिक्षा मानता हूँ। मेरे अनुभव के अनुसार-
1-कुल विद्यार्थियों में से 80 प्रतिशत विद्यार्थी सिर्फ परीक्षा पास करने के लिये जितना जरूरी होता है उतना ही पढ़ते हैं। 10 प्रतिशत विद्यार्थी बिल्कुल नहीं पढ़ते हैं। 10 प्रतिशत विद्यार्थी ही मन लगाकर सारा पाठ्यक्रम पढ़ते हैं। यह वस्तु स्थिति कमोबेश सभी शैक्षणिक संस्थानों की है।
2-विद्यार्थी कालेज या विश्वविद्यालय में आना ही नहीं चाहता। यदि किसी दबाव या प्रलोभन में आ भी जाए तो कक्षा में नहीं जाना चाहता। इस मनोवृत्ति के विद्यार्थियों की संख्या भी 60 से 70 प्रतिशत है।
3-नब्बे प्रतिशत विद्यार्थी सिर्फ पास होने और नौकरी पाने के लिए पढ़ता है। न तो उसे समाज से कोई लेना-देना, न देश से कोई लेना-देना, न उसे हमारी सभ्यता, संस्कृति, आचार, विचार एवं महापुरुषों का कोई ज्ञान और न ही वह कोई ज्ञान प्राप्त करना चाहता है।
4-काफी बड़ी संख्या में विद्यार्थी किसी भी तरह भारत छोड़कर विदेश में जाकर पढ़ना चाहता है या नौकरी करना चाहता है। उसे भारत में अपना कोई भविष्य नजर नहीं आता। भारत माता से उसे कोई प्यार नहीं है। यह भावना हर आय समूह के नौजवानों में है। पंजाब में तो यह शत प्रतिशत के आस-पास पहुँच रही है। यह बड़ी चिन्ता का विषय है।
5-गाँवों में बड़ी संख्या में नौजवान अपना भविष्य निर्माण अच्छी पढ़ाई-लिखाई में न देखकर तरुण अवस्था में ही राजनीतिक गतिविधियों में कूदकर राजनीति में अपना भविष्य देख रहे हैं। ये नौजवान दिन-रात अपने राजनैतिक आकाओं के इर्द-गिर्द घूमते हैं एवं गुण्डागर्दी करते रहते हैं।
6-शहरों से लेकर छोटे गाँवों तक भ्रष्टाचारी, कमीशनखोरी, नशाखोरी, दारूबाजी युवाओं में बहुत ज्यादा घर कर गयी है। इससे लगभग सारा नौजवान ग्रसित है।
7-स्कूलों से लेकर महाविद्यालयों तक जातिवाद एवं साम्प्रदायिक कटुता का जहर सभी नवयुवकों में फैलता जा रहा है। जो हमें एक नये वर्ग संघर्ष की ओर ले जाता दिख रहा है। ऐसी अवस्था में जब तक उनमें राष्ट्रीय एवं सामाजिक चेतना का संचार नहीं होगा हम अपने ध्येय वाक्य को करीब नहीं ला सकते हैं।
विद्वानों को नौजवानों तक बनानी होगी पहुंच-
हमें यह देखना होगा कि राष्ट्रीय भावना एवं सामाजिक समरसता से युक्त वरिष्ठ जन जब तक नौजवानों के बीच नहीं जाएंगे, उनका हर स्तर पर जनजागरण नहीं करेंगे तब तक हमारा कार्य सिर्फ कागजों पर रहेगा। जमीनी स्तर पर उसका कोई असर नहीं होगा। यह मेरा अटल विचार है।
ऐसे बने पाठ्यक्रम-
अब आते हैं पाठ्यक्रम पर, जब तक बच्चा छठी क्लास में नहीं आता तब तक वह क्या पाठ्यक्रम पढ़ रहा है? उसे कौन पढ़ा रहा है? उस पर किसका नियंत्रण है? पूरे देश में, गाँवों में, शहरों में, गली-गली में स्कूल चल रहे हैं। उनमें वे क्या पढ़ रहे हैं? तथा उन्हें कौन पढ़ा रहा है? इसका लेखा-जोखा किसके पास है? जबकि वस्तुस्थिति यह है कि उस अबोध बालक के दिमाग में जितने संस्कार अंकित होने होते हैं वे 90 प्रतिशत तक अंकित हो जाते हैं। जिसका कोई नियमन नहीं है। छठी क्लास में प्रदेश की सरकार शिक्षा का नियमन करती है। पाठ्यक्रम सरकार बनाती है। जो जैसी विचारधारा की सरकार वैसा उसका पाठ्यक्रम। उसमें हम-आप क्या कर सकते हैं? जो स्कूल केन्द्रीय शिक्षा बोर्ड से संचालित होते हैं उनके पाठ्यक्रम राष्ट्रीय शिक्षा परिषद बनाती है। उसमें भी यदि हमारे विचार परिवार की सरकार है तो हम थोड़ा-बहुत सुझाव दे सकते हैं बस। पूर्णतया हमारा पाठ्यक्रम तो वहाँ भी नहीं चल सकता।
उच्च शिक्षा का पाठ्यक्रम-
अब आते हैं उच्च शिक्षा में, उच्च शिक्षा में जो सम्बद्ध महाविद्यालय है उनको वही पाठ्यक्रम पढ़ाना होगा जो उनका विश्वविद्यालय उनको बनाकर देगा। विश्वविद्यालय वही पाठ्यक्रम बनाएंगे जो उनकी सरकार एवं यूजीसी चाहेगी। जो स्ववित्त पोषित विश्वविद्यालय है, वह वही पाठ्यक्रम बनाएंगे जो इण्डस्ट्री चाहेगी। जिससे उनके बच्चों की नौकरी लग सके। पाठ्यक्रम बनाते वक्त इन विश्वविद्यालयों को यूजीसी, एआईसीटीई, पीसीआई एवं एनसीटीई आदि द्वारा निर्देशित किये गये पाठ्यक्रमों की भी पालना करनी पड़ेगी। इसके अलावा देश के जाने-माने विश्वविद्यालय एवं उच्च व्यवसायिक एवं तकनीकी संस्थानों द्वारा बनाये गये पाठ्यक्रमों का भी ध्यान रखना पड़ेगा। इसके अलावा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चल रहे पाठ्यक्रम एवं तकनीक का भी ध्यान रखना होगा। मुझे डर है कि इतनी बड़ी चुनौतियों में हमारा ध्येय वाक्य ध्यान में रखते हुए हमारे सभी मानकों को पूरा करते हुए सरकारी या स्ववित्त पोषित विश्वविद्यालय अपना पाठ्यक्रम बना लेंगे।
बेहतर शिक्षा व्यवस्था के लिए कुछ जरूरी सुझाव-
1- बच्चों को हुनरमंद बनाने के लिए दसवीं कक्षा से ही उन्हें जॉब ऑरियंटेड शिक्षा दी जाए।
2- ऐसी शिक्षा व्यवस्था की जाए जिससे बच्चों का मानसिक, शारीरिक व बौद्धिक विकास हो।
3- ऐसी शिक्षा दी जाए जिससे बच्चे समाज व देश की मुख्यधारा से जुड़ सकें।
4- शिक्षा के मूल आयाम जैसे साहित्य, कला, क्रीड़ा, संस्कृति, इतिहास, विज्ञान एवं अनुसंधान आदि पर विशेष ध्यान दिया जाए। इनकी उचित शिक्षा उचित समय पर उचित बच्चों को विशेष रूप से दी जानी चाहिए। उनपर सरकार एवं समाज को पैसा खर्च करना चाहिए। उनसे अर्थार्जन की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए।
5- शिक्षा ऐसी हो, जिसमें संप्रेषणीयता का अभाव कतई न हो। इसके लिए गहन अध्ययन जरूरी है। इसके लिये नई पद्धतियों का गठन किया जाना चाहिए।
6- शिक्षा व्यवस्था ऐसी हो, जो बच्चों को सिर्फ मल्टीनेशनल कंपनी का नौकर नहीं बल्कि आत्मविश्वासी, उद्यमशील एवं स्वावलम्बी बनाए।
7- तकनीकी एवं व्यवसायिक शिक्षा सबके लिए अनिवार्य हो।
निष्कर्ष यानी लब्बोलुबाव-
मेरा सुझाव है कि हमें इन सभी बिन्दुओं एवं सुझावों को ध्यान में रखते हुए वर्तमान शिक्षा के सभी घटकों को सम्मिलित करते हुए पाठ्यक्रम बनाकर सभी विश्वविद्यालयों को देना चाहिए। जिसमें वे थोड़ा परिवर्तन करते हुए उसे लागू कर दें। इतना करवाने के लिये भी हमें बहुत जोर लगाना पडे़गा। हमारी केवल गाइड लाइन से तो कुछ नहीं होगा।
डॉ. अशोक कुमार गदिया
(लेखक मेवाड़ विश्वविद्यालय, चित्तौड़गढ़, राजस्थान के कुलाधिपति एवं
भारतीय शिक्षण मण्डल मेरठ प्रांत के अध्यक्ष हैं।)
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