विश्व के अधिकांश क्षेत्र पिछले कई वर्षों से लगातार बढ़ रहे तापमान और बढते प्रदूषण के साथ जी रहे हैं। आज वैश्विक तापन अर्थात लगातार बढ रहे तापमान एवं बढते प्रदूषण का असर सिर्फ इंसानों पर ही नहीं पृथ्वी पर रह रहे सभी जीवों एवं अजैविक पदार्थों पर हो रहा है। यही वजह है कि कई जीव-जन्तु विलुप्त हो रहे हैं। साथ ही लोग कैंसर जैसी कई गंभीर बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं। इनके अतिरिक्त मौसम में आ रहे बदलाव भी हमारे सामने है। पहाडों पर बर्फ गिरने का समय हो या मैदानी क्षेत्रों में वर्षा इन सभी में बहुत अधिक बदलाव हुये हैं। साथ ही आप देखते हैं की चक्रवातों की संख्या भी बढी है और सूखे की समस्या भी बढ रही है। इन सबके पीछे का कारण मौसम में आने वाले परिवर्तन हैं। मौसम के इस परिवर्तन के पीछे मानवीय गतिविधियां हैं। इन सभी कारणों से विश्व पर्यावरण दिवस की महत्ता और बढ जाती है। विश्व पर्यावरण दिवस मनाने के पीछे के कारणों की अगर चर्चा करें तो सबसे प्रमुख कारण रहा एक ऐसी विकास(?) व्यवस्था को पूरी दुनिया में लागू करना जो पर्यावरण अनुरूप ना होकर पर्यावरण विरोधी थी। जिसमें किसी भी प्राकृतिक संसाधन को लेकर एकमात्र भाव उसके उपभोग का था उसके उपयोग का नहीं था, तो वास्तव में उपभोग आधारित वैश्विक व्यवस्था ने विभिन्न प्रकार की पर्यावरण समस्याओं को जन्म दिया। विश्व की लगभग सभी प्राचीन सभ्यताओं में पर्यावरण के साथ एक सहजीविता का संबंध बनाए रखने की बात की गई है इसके कई उदाहरण हमारे यहां अलग-अलग ग्रंथों में दिए गए हैं। उनमें से कुछ उदाहरणों को यहां देखते हैं
"रक्षय प्रकृति पातुं लोकाः" अर्थात लोक के रक्षा के लिए प्रकृति की रक्षा आवश्यक है सुभाषित हमें प्रकृति संरक्षण के बारे में बताता है जो वर्तमान में सभी पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान है।
अग्निं बूमो वनस्पतिनोषधीरुत वीरुथः।
इद्रं बृहस्पति सूर्य ते नो मुंचन्त्वहंस।।
अर्थात हम परमात्मा की शरण में जाते हैं, हम वनदेवता वृक्षों पौधों और औषधियों की शरण में जाते हैं, हम इंद्र बृहस्पति और सूर्य की शरण में जाते हैं। हम अपने किसी भी ग्रंथ का जब अध्ययन करते हैं तो उसमें प्रकृति की संरक्षण की बात मिलती है, जैसे ऋग्वेद की एक ॠचा में कहा गया है कि वनस्पतियां, जल धाराएं, आकाश, वन और वृक्ष से आच्छादित पर्वत हमारी रक्षा करें। इसके ठीक विपरीत वर्तमान विकास का आधार प्रकृति का संरक्षण नहीं बल्कि उसका दोहन है। इस विचार के मूल में यह सिद्धांत है कि गॉड ने प्रकृति में मौजूद हर संसाधन को इंसानों के उपभोग के लिए बनाया है और मूलतः यही उपभोग वादी विचारधारा पर्यावरण के लगभग सभी समस्याओं के जन्मदाता है।
पर्यावरण में ह्रास का प्रारंभ औद्योगिक क्रांति के साथ जुड़ा हुआ है। जैसे-जैसे औद्योगिक विकास होता गया वैसे वैसे संसाधनों का दोहन की गति तीव्र होती चली गयी। अगर हम वैश्विक स्तर की बात करें तो पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं के लिए सबसे पहला कानून 16 वीं शताब्दी में लंदन में बना था जब वहां वायु प्रदूषण की बहुत ही भीषण समस्या से लोगों को जूझना पड़ा था। इसके ठीक बाद मध्य 18वीं शताब्दी में भारत के जोधपुर राज्य के राजा ने बिश्नोई समाज की मांग पर पेड़ पौधों और जानवरों के विशेषकर काले हिरणों के संरक्षण पर एक कानून बनाया जो अंग्रेजों ने भी मान्य रखा और स्वतंत्रता के बाद भारत के कानून में भी उसे शामिल किया गया। पूरे विश्व में पर्यावरण संरक्षण को लेकर लोगों के बीच में चर्चा का प्रारंभ प्रथम विश्व युद्ध के आसपास से गति प्राप्त कर चुका था। द्वितीय विश्वयुद्ध और उसके बाद ही घटनाओं ने लोगों को इस विषय में और अधिक सोचने पर मजबूर किया। विश्व की कुछ प्रमुख पर्यावरण संबंधी घटनाएं रहीं जापान में मिनामाटा एवं इटाई इटाई, अमेरिका में लव कैनल दुर्घटना इंग्लैंड के लंदन में क्लासिकल स्माग और अमेरिका के लॉस एंजिल्स में फोटोकेमिकल स्मॉग का निर्माण इत्यादि। इसी बीच सन 1962 में रसल कार्सन की किताब साइलेंट स्प्रिंग आती है जिसने लोगों को रासायनिक कीटनाशकों के पर्यावरण पर पडने वाले गंभीर प्रभावों से अवगत कराया। साइलेंट स्प्रिंग के लिए प्रेरणा जनवरी 1958 में कार्सन के दोस्त, ओल्गा ओवेन्स हॉकिन्स द्वारा द बोस्टन हेराल्ड को लिखा गया एक पत्र था, जिसमें डक्सबरी, मैसाचुसेट्स में उनकी संपत्ति के आसपास पक्षियों की मौत का वर्णन किया गया था, जिसका कारण मच्छरों को मारने के लिए किया गया डीडीटी का हवाई छिड़काव था। जिसकी प्रति हॉकिन्स ने कार्सन को भेजी। कार्सन ने बाद में लिखा कि इसी पत्र ने उन्हें रासायनिक कीटनाशकों के कारण होने वाली पर्यावरणीय समस्याओं के अध्ययन के लिये प्रेरित किया। इस पुस्तक का रासायनिक कंपनियों द्वारा घोर विरोध किया गया, लेकिन इसने जनता की राय को प्रभावित किया और अमेरिकी कीटनाशक नीति को उलट दिया, कृषि उपयोगों के लिए डीडीटी पर एक राष्ट्रव्यापी प्रतिबंध , और एक पर्यावरण आंदोलन प्रारम्भ हुआ जिसके कारण यू.एस. पर्यावरण संरक्षण एजेंसी की स्थापना हुयी। भारत के संदर्भ में देखें तो जहां अमेरिका में डीडीटी प्रतिबंधित है वहीं भारत में उपलब्ध है। वास्तव में विकसित देशों में हुई वैज्ञानिक क्रान्ति के फलस्वरूप हुआ औद्योगीकरण पर्यावरण ही नहीं समूचे जैवमण्डल के लिए खतरनाक भी बनता गया। कई औद्योगिक इकाइयों के कारण ऐसी भयावह दुर्घटनाएँ हुई कि दुनिया हिल गई। विज्ञान के इस अभिशाप को अमेरिका, इग्लैण्ड, जापान सहित अन्य देशों में देखा गया। इन समस्याओं से परेशान होकर लोगों ने मानव के हित में पर्यावरण के महत्व पर सोचना शुरू किया। लेकिन उपरोक्त घटनाओं के होने के पहले भी 1949 में, संसाधनों के संरक्षण और उपयोग पर संयुक्त राष्ट्र वैज्ञानिक सम्मेलन (लेक सक्सेस, न्यूयॉर्क, 17 अगस्त से 6 सितंबर) उन संसाधनों की कमी और उनके उपयोग को संबोधित करने वाला पहला संयुक्त राष्ट्र निकाय था। हालाँकि, ध्यान मुख्य रूप से इस बात पर था कि आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए उन्हें कैसे प्रबंधित किया जाए, न कि संरक्षण के दृष्टिकोण से। यह 1968 तक नहीं था कि संयुक्त राष्ट्र के किसी भी प्रमुख अंग द्वारा पर्यावरणीय मुद्दों पर गंभीरता से ध्यान दिया गया था। 29 मई 1968 को आर्थिक और सामाजिक परिषद ने पर्यावरणीय मुद्दों को एक विशिष्ट रूप में अपने एजेंडे में शामिल किया और मानव पर्यावरण सम्बंध पर पहला संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन आयोजित करने का फैसला किया गया – जिसे बाद में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा इसका समर्थन किया गया। 1972 में विश्व के पहले पर्यावरण सम्मेलन को याद रखने एवं लोगों के पर्यावरण के प्रति जागरूकता फैलाने के लिये विश्व पर्यावरण दिवस मनाने का संकल्प लिया गया।
[लेखक पर्यावरण विज्ञान में स्नात्कोत्तर एवं यूजीसी नेट हैं। विभिन्न प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिये पर्यावरण विज्ञान पढाते हैं। पर्यावरण, उर्जा एवं स्वास्थ्य सम्बंधी विषयों पर आलेख प्रकाशित होते रहे हैं। शोध पत्रिका सभ्यता सम्वाद के कार्यकारी सम्पादक हैं। स्वास्थ्य सम्बंधी विषयों पर कार्य करने वाली संस्था स्वस्थ भारत के न्यासी हैं]
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