आलेख : समान नागरिक संहिता से मजबूत होगा भारत का लोकतंत्र - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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मंगलवार, 27 जून 2023

आलेख : समान नागरिक संहिता से मजबूत होगा भारत का लोकतंत्र

देश में फिलहाल यूनिफॉर्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता का मुद्दा गरम है. कुछ दिनों पहले दरअसल विधि आयोग ने विभिन्न नागरिकों और योग्य धार्मिक संगठनों, संस्थानों से इस मसले पर राय मांगी थी. उसके बाद कुछ मुस्लिम नेताओं ने यूसीसी के विरोध में बातें कीं और फिर यह बुद्धिजीवी वर्ग के बीच भी बहस का मुद्दा बन गया. मीडिया में भी इस पर बहस होने लगी. आज मंगलवार को प्रधानमंत्री मोदी ने भोपाल में बीजेपी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए लोगों को यूनिफॉर्म सिविल कोड की याद दिलाई. पसमांदा मुसलमानों का जिक्र किया और यह साफ कर दिया कि 2024 के चुनाव की भेरी बज चुकी है और उसमें यूसीसी का मुद्दा भी जमकर चमकेगा. 2024 के चुनाव में जो मुद्दे सबसे बड़े होंगे उनमें एक मुद्दा है यूनिफॉर्म सिविल कोड। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मध्य प्रदेश की सभा में इसकी श्रीगणेश भी कर दिया है। मतलब साफ है जुलाई में होने वाले संसद सत्र में यूनिफॉर्म सिविल कोड विधेयक लाया जा सकता है। मोदी के इस भाषण के बाद यूसीसी पर राजनीति गरमा गई है। विपक्ष जहां इसे एक वर्ग को टारगेट करने की दुहाई दे रहा है, वहीं मोदी ने साफ कर दिया है कि एक एक परिवार एक घर में दो कानून अब नहीं चलेगा। हालांकि एक सर्वे के मुताबिक देश की 80 फीसदी जनता भी चाहती है कि देश में कानून लागू हो। एक समान नागरिक संहिता सभी धार्मिक समुदायों के लिए एक सामान्य कानून सुनिश्चित करेगी और उनके व्यक्तिगत कानूनों को प्रतिस्थापित करेगी, जो संपत्ति, विवाह, विरासत और गोद लेने के मामलों से संबंधित धर्मग्रंथों और रीति-रिवाजों पर आधारित हैं। यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होने से हर मजहब के लिए एक जैसा कानून आ जाएगा। यानी मुस्लिमों को भी तीन शादियां करने और पत्नी को महज तीन बार तलाक बोले देने से रिश्ता खत्म कर देने वाली परंपरा खत्म हो जाएगी 

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फिरहाल, संविधान द्वारा समान नागरिक संहिता के लिए आधार उपलब्ध कराने के बावजूद विपक्ष इसे एक वर्ग विशेष को टारगेट करने की बात कहकर विरोध करता रहा है। लेकिन सच यह है कि विपक्ष इस मसले पर सिर्फ वोटबैंक की राजनीति कर रही है। इससे सिवाय फायदे के किसी का भी नुकसान नहीं है। भारत का संविधान, अपने निदेशक सिद्धांतों में कहता है, “राज्य पूरे भारत में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा।“ “यदि कोई राष्ट्र और राज्य धर्मनिरपेक्ष हैं, तो कानून धर्म पर आधारित कैसे हो सकते हैं? प्रत्येक आस्तिक के लिए, संसद या राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित एक कानून होना चाहिए। बता दें, 1985 में शाहबानो केस के बाद इस चर्चा ने जोर पकड़ा कि धार्मिक आजादी के मौलिक अधिकारों को छेड़े बिना देश के सभी धर्मों के लिए एक कानून क्यों नहीं हो सकता. नवंबर 2019 और मार्च 2020 में यूनिफार्म सिविल कोड प्रपोज किया गया, लेकिन संसद में पेश करने से पहले ही इसे वापस ले लिया गया. वैसे भी समान नागरिक संहिता एक ऐसा मुद्दा रहा है, जो हमेशा से बीजेपी के एजेंडे में रहा है. 1989 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने पहली बार अपने घोषणापत्र में इस मुद्दे को शामिल किया था. 2019 में भी बीजेपी ने इसे दोहराया था. बीजेपी  का मानना है कि जब तक समान नागरिक संहिता को अपनाया नहीं जाता, तब तक लैंगिक समानता नहीं आ सकती. आज भोपाल में जनसभा को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने जिस तरह यूसीसी का जिक्र किया, उससे यह साफ है कि 2024 के चुनाव में और उससे पहले जो राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के चुनाव हैं, उसकी तैयारी भी बीजेपी कर चुकी है. यह मुद्दा उछाल कर बीजेपी ने दिखा दिया है कि कमोबेश यूसीसी का मुद्दा भी चुनाव में रहेगा जरूर.  


जहां तक विपक्ष का सवाल है तो पहले लोग तीन तलाक का विरोध कर रहे थे, अब यूनिफॉर्म सिविल कोड का विरोध कर रहे हैं, इसको लेकर मुसलमानों में जो भ्रम है उसे दूर करने की जिम्मेदारी भ्ी सरकार की ही है। यह अलग बात है कि पूरा विपक्ष ’’समान नागरिक संहिता को सबसे पहले हिंदू धर्म में लागू किये जाने की वकालत कर रहा है। उसके मुताबिक एससी/एसटी समेत हर एक व्यक्ति को देश के किसी भी मंदिर में पूजा करने की अनुमति दी जानी चाहिए. हमें समान नागरिक संहित केवल इसलिए नहीं चाहिए क्योंकि संविधान ने हर धर्म को सुरक्षा दी है.’’ हालांकि पीएम मोदी ने साफ कह दिया है हिक ’’यूनिफॉर्म सिविल कोड के नाम पर लोगों को भड़काने का काम हो रहा है. जबकि एक घर में परिवार के एक सदस्य के लिए एक कानून हो, परिवार के दूसरे सदस्य के लिए दूसरा कानून हो तो क्या वो घर चल पाएगा क्या? फिर ऐसी दोहरी व्यवस्था से देश कैसे चल पाएगा. हमें याद रखना है कि भारत के संविधान में भी नागरिकों के समान अधिकार की बात कही गई है.’’ ’’ये लोग (विपक्षी दल) हम पर आरोप लगाते हैं लेकिन सच ये है कि यही लोग मुसलमान-मुसलमान करते हैं. अगर ये मुसलमानों के सही मायने में हितैषी होते अधिकांश परिवार, मेरे मुस्लिम भाई-बहन शिक्षा में पीछे न रहते, रोजगार में पीछे न रहते, मुसीबत की जिंदगी जीने के लिए मजबूर न रहते. सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार कहा है, सुप्रीम कोर्ट डंडा मारती है, कह रही है कि कॉमन सिविल कोड लाओ लेकिन ये वोट बैंक के भूखे लोग (विरोध कर रहे हैं.)


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देखा जाएं तो भाजपा, बल्कि उसके पूर्ववर्ती संगठन जनसंघ के समय से ही तीन बड़े लक्ष्य उसके रहे हैं. पहला तो, कश्मीर के लिए जो विशेष अनुच्छेद था, 370. उसकी समाप्ति. दूसरे, राम मंदिर और तीसरा समान नागरिक संहिता. तो, संसद के जरिए वह अनुच्छेद 370 को तो 2019 में हटा चुकी है. राम मंदिर का निर्माण कोर्ट के फैसले से हो रहा है और लगता है कि वह भी अगले साल तक देश को समर्पित हो जाएगा. इसके बाद अब बचा, तीसरा समान नागरिक संहिता का मुद्दा. यह बीजेपी के लिए चुनावी मुद्दा भी नहीं है. हालांकि, याद करना चाहिए कि जब नागरिकता संशोधन कानून में बदलाव करने की कोशिश हुई थी, जिसे सीएए कहा गया तो विपक्षी पार्टियों की शह पर पूरे देश के मुसलमान किस तरह सड़कों पर इकट्ठा हुए थे? लोगों को यह भी आशंका थी कि जब बीजेपी यूसीसी लाएगी तो कैसा विरोध होगा औऱ इस विरोध को भी दो तरह से देखा जा रहा था. एक खेमा यह मान रहा था कि ये जो विरोध है, वह मुस्लिम मतदाताओं को फिर से कांग्रेस की तरफ ले जाएगा, जैसा कर्नाटक चुनाव में हुआ और उसके बरक्स हिंदू वोट भी एकजुट होगा. हालांकि, अभी तक हिंदू उस तरह से एक वोटबैंक नहीं बना है. पीएम ने अपने भाषण में पसमांदा मुसलमानों का भी अलग से जिक्र किया है औऱ यूसीसी को उनकी बेहतरी के लिए एक जरूरी शर्त बताया है. जहां तक मुसलमानों के एक वर्ग पसमांदा मुसलमानों के पीएम द्वारा जिक्र करने की बात है, तो उसको समझने के लिए थोड़ा पीछे जाना होगा. जब भी हिंदू धर्म की आलोचना होती है या इस पर प्रहार होता है तो इसकी जाति-व्यवस्था का उदाहरण दिया जाता है. इसके साथ ही यह भी बताया जाता है कि अब्राहमिक मजहबों इस्लाम और ईसाइयत में जातिवाद नहीं है.


हालांकि, जो पसमांदा समुदाय है मुस्लिमों में, जिसमें लोहार, जोलाहे, मोमिन और अंसार जैसी जो जातियां हैं, वे साफ कर देती हैं कि मुस्लिम समाज में भी ऊंच-नीच और जातिभेद बरकरार है. हमने भी अपने टाइम में देखा है और आप भी देख सकते हैं कि जो सैयद या पठान टाइप के ऊंचे मुसलमान हैं, वे छोटी जाति वाले मुसलमानों के साथ उठना-बैठना पसंद नहीं करते. बिहार के एक पत्रकार अली अनवर ने तो बहुत पहले इस पर बहुत काम किया था, बहुत अध्ययन किया और पसमांदा समाज के लिए आंदोलन भी छोड़ा. उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर पसमांदा समाज का मुद्दा उछाला और इसका उनको राजनीतिक पुरस्कार भी मिला. वह जनता दल से सांसद भी बने. बहुतेरे पत्रकार मित्र हैं जो इस बात को स्वीकारते हैं. आजादी के बाद मुसलमानों को विभिन्न दलों ने वोटबैंक बना कर रखा. उनको कोई आर्थिक या सामाजिक फायदा नहीं मिला. मिला भी तो उनको जो उनमें भी उच्च वर्ग के थे, या मुस्लिमों के सवर्ण थे. हालांकि, संविधान का अनुच्छेद 44 ही यह कहता है कि राज्य की यह प्राथमिक जिम्मेदारी है कि वह हरेक नागरिक को एक समान कानून, एक समान नागरिक संहिता के तहत लेकर आए. संविधान सभा में तो खुद बाबासाहेब अंबेडकर ने कहा है कि उनको यह समझ नहीं आता कि धर्म के आधार पर, जाति के आधार पर कानून अलग कैसे हो सकते हैं? तो फिर, जिसके हितों पर आंच आएगी, जिनके अपने लॉ बोर्ड हैं, वह तो समान नागरिक संहिता के लागू होते ही खत्म हो जाएगा. तो, वे तो आंदोलन करेंगे ही. चुनौती यही है और राजनीतिक दल तो चुनौतियों से रास्ता निकालते ही हैं. देखना यही है कि बीजेपी कैसे इससे निबटती है?


भारत में व्यक्तिगत कानून प्रायः महिलाओं के साथ भेदभाव करते हैं, विशेष रूप से विवाह, तलाक, उत्तराधिकार और संरक्षण से संबंधित मामलों में। समान नागरिक संहिता इस तरह के भेदभाव को समाप्त करने और लैंगिक समानता को बढ़ावा देने में मदद करेगी। समान नागरिक संहिता व्यक्तिगत कानूनों के मौजूदा ढुलमुल तंत्र को नियमों के एक समूह से प्रतिस्थापित कर विधिक प्रणाली को सरल बनाएगी जो सभी व्यक्तियों पर समान रूप से लागू होगी। इससे सभी नागरिकों के लिये कानून अधिक सुलभ हो जाएँगे और वे इसे आसानी से समझ पाएँगे। समान नागरिक संहिता कानून के अनुप्रयोग में निरंतरता सुनिश्चित करेगी, क्योंकि यह सभी के लिये समान रूप से लागू होगी। यह कानून के अनुप्रयोग में भेदभाव या असंगति के जोखिम को कम करेगी। यह धर्म या व्यक्तिगत कानूनों के आधार पर भेदभाव को समाप्त करेगी तथा यह सुनिश्चित करेगी कि कानून के तहत सभी को समान अधिकार एवं सुरक्षा प्राप्त हो। समान नागरिक संहिता भारतीय विधि प्रणाली के आधुनिकीकरण और इसमें सुधार की अनुमति देगी, क्योंकि यह समकालीन मूल्यों एवं सिद्धांतों के साथ कानूनों को अद्यतन करने और सामंजस्य बनाने का अवसर प्रदान करेगी। जबकि विश्व डिजिटल युग में आगे बढ़ रहा है, युवाओं की सामाजिक प्रवृत्ति एवं आकांक्षाएँ समानता, मानवता और आधुनिकता के सार्वभौमिक एवं वैश्विक सिद्धांतों से प्रभावित हो रही हैं। समान नागरिक संहिता के अधिनियमन से राष्ट्र निर्माण में उनकी क्षमता को अधिकतम कर सकने में मदद मिलेगी। समान नागरिक संहिता सभी व्यक्तियों द्वारा अनुपालन किये जाने हेतु नियमों का एक सामान्य समूह प्रदान कर विभिन्न धार्मिक या सामुदायिक समूहों के बीच तनाव एवं संघर्ष को कम करने में मदद कर सकती है।


समान नागरिक संहिता क्या है?

समान नागरिक संहिता भारत के लिये प्रस्तावित एक विधिक ढाँचा है जो देश के सभी नागरिकों के लिये चाहे वे किसी भी धर्म से संबंधित हों, विवाह, तलाक, गोद लेने एवं उत्तराधिकार जैसे व्यक्तिगत विषयों से संबंधित सार्वभौमिक या एक समान कानूनों को संहिताबद्ध और लागू करेगा। इस संहिता की आकांक्षा संविधान के अनुच्छेद 44 में व्यक्त हुई है जहाँ कहा गया है कि राज्य, भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिये एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा। भारतीय संसद द्वारा वर्ष 1956 में हिंदू व्यक्तिगत कानूनों (जो सिखों, जैनियों और बौद्धों पर भी लागू होते हैं) को संहिताबद्ध किया गया था। इस संहिता विधेयक को चार भागों में विभाजित किया गया हैः हिंदू विवाह अधिनियम, 1955, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956, हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956, हिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम, 1956, दूसरी ओर, वर्ष 1937 का शरीयत कानून भारत में मुसलमानों के सभी व्यक्तिगत मामलों को नियंत्रित करता है। इसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि राज्य व्यक्तिगत विवादों के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगा और एक धार्मिक प्राधिकरण क़ुरआन और हदीस की अपनी व्याख्या के आधार पर एक घोषणा करेगा।


विशेष विवाह अधिनियम, 1954ः

विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के तहत किसी भी नागरिक को, चाहे वह किसी भी धर्म का हो, नागरिक विवाह की अनुमति है। यह किसी भी भारतीय व्यक्ति को धार्मिक रीति-रिवाजों से बाहर विवाह करने की अनुमति देता है।


शाह बानो केस (1985)ः

इस मामले में शाह बानो द्वारा भरण-पोषण के दावे को व्यक्तिगत कानून के तहत ख़ारिज कर दिया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता (ब्तच्ब्) की धारा 125कृजो पत्नियों, बच्चों और माता-पिता के भरण-पोषण के संबंध में सभी व्यक्तियों पर लागू होता है, के तहत शाह बानो के पक्ष में निर्णय दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने आगे यह अनुशंसा भी की थी कि लंबे समय से लंबित समान नागरिक संहिता को अंततः अधिनियमित किया जाना चाहिये। सर्वोच्च न्यायालय ने सरला मुद्गल निर्णय (वर्ष 1995) और पाउलो कॉटिन्हो बनाम मारिया लुइज़ा वेलेंटीना परेरा केस (वर्ष 2019) में भी सरकार से न्ब्ब् लागू करने का आह्वान किया। सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय आपराधिक संहिता की धारा 125 लागू करके शाह बानो के पक्ष में फैसला दिया और यह सभी नागरिकों पर लागू होता है, चाहे वे किसी भी धर्म के हों। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश, वाईवी चंद्रचूड़ ने कहा कि एक सामान्य नागरिक संहिता कानून के प्रति असमान निष्ठाओं को दूर करके राष्ट्रीय एकता के उद्देश्य में मदद करेगी। और इसलिए, अदालत ने संसद को यूसीसी तैयार करने का निर्देश दिया। दूसरी ओर, राजीव गांधी सरकार अदालत के फैसले से संतुष्ट नहीं थी; इसका समर्थन करने के बजाय, सरकार ने शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को रद्द करने और तलाक के मामले में मुस्लिम पर्सनल लॉ को प्रभावी बनाने के लिए मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 बनाया। इस अधिनियम में यह उल्लेख किया गया था कि मुस्लिम महिला को तलाक यानी इद्दत के बाद केवल तीन महीने तक भरण-पोषण का अधिकार है और फिर वह अपना भरण-पोषण अपने रिश्तेदारों या वक्फ बोर्ड में स्थानांतरित कर सकती है।


पहली बार कब हुआ था यूसीसी का जिक्र

समान नागरिक कानून का जिक्र 1835 में ब्रिटिश सरकार की एक रिपोर्ट में भी किया गया था. इसमें कहा गया था कि अपराधों, सबूतों और ठेके जैसे मुद्दों पर समान कानून लागू करने की जरूरत है. इस रिपोर्ट में हिंदू-मुसलमानों के धार्मिक कानूनों से छेड़छाड़ की बात नहीं की गई है. हालांकि, 1941 में हिंदू कानून पर संहिता बनाने के लिए बीएन राव समिति का गठन किया गया. राव समिति की सिफारिश पर 1956 में हिंदुओं, बौद्धों, जैनियों और सिखों के उत्तराधिकार मामलों को सुलझाने के लिए हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम विधेयक को अपनाया गया. हालांकि, मुस्लिम, ईसाई और पारसियों लोगों के लिये अलग कानून रखे गए थे.


डॉ. आंबेडकर ने यूसीसी पर क्या कहा था

भारतीय संविधान की मसौदा समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव आंबेडकर ने कहा था कि हमारे पास पूरे देश में एक समान और पूर्ण आपराधिक संहिता है. ये दंड संहिता और आपराधिक प्रक्रिया संहिता में शामिल है. साथ ही हमारे पास संपत्ति के हस्तांतरण का कानून है, जो संपत्ति और उससे जुड़े मामलों से संबंधित है. ये पूरे देश में समान रूप से लागू है. इसके अलावा नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट हैं. उन्होंने संविधान सभा में कहा कि मैं ऐसे कई कानूनों का हवाला दे सकता हूं, जिनसे साबित होगा कि देश में व्यावहारिक रूप से समान नागरिक संहिता है. इनके मूल तत्व समान हैं और पूरे देश में लागू हैं. डॉ. आंबेडकर ने कहा कि सिविल कानून विवाह और उत्तराधिकार कानून का उल्लंघन करने में सक्षम नहीं हैं.


गोवा में लागू है कानून

गोवा में एक समान पारिवारिक कानून है, इस प्रकार यह एकमात्र भारतीय राज्य है जहां समान नागरिक संहिता है और 1954 का विशेष विवाह अधिनियम किसी भी नागरिक को किसी विशेष धार्मिक व्यक्तिगत कानून के दायरे से बाहर शादी करने की अनुमति देता है। बता दें कि संविधान में गोवा को विशेष राज्य का दर्जा दिया गया है. वहीं, गोवा को पुर्तगाली सिविल कोड लागू करने का अधिकार भी मिला हुआ है. राज्य में सभी धर्म और जातियों के लिए फैमिली लॉ लागू है. इसके मुताबिक, सभी धर्म, जाति, संप्रदाय और वर्ग से जुड़े लोगों के लिए शादी, तलाक, उत्तराधिकार के कानून समान हैं. गोवा में कोई भी ट्रिपल तलाक नहीं दे सकता है. रजिस्ट्रेशन कराए बिना शादी कानूनी तौर पर मान्य नहीं होगी. संपत्ति पर पति-पत्नी का समान अधिकार है. हालांकि, यहां भी एक अपवाद है. जहां मुस्लिमों को गोवा में चार शादी का अधिकार नहीं है. वहीं, हिंदुओं को दो शादी करने की छूट है. हालांकि, इसकी कुछ शर्तें भी हैं.


कई देशों में लागू है यूसीसी

दुनिया के कई देशों में समान नागरिक संहिता लागू है. इनमें हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान और बांग्लादेश भी शामिल हैं. इन दोनों देशों में सभी धर्म और संप्रदाय के लोगों पर शरिया पर आधारित एक समान कानून लागू होता है. इनके अलावा इजरायल, जापान, फ्रांस और रूस में भी समान नागरिक संहिता लागू है. हालांकि, कुछ मामलों के लिए समान दीवानी या आपराधिक कानून भी लागू हैं. यूरोपीय देशों और अमेरिका में धर्मनिरपेक्ष कानून है, जो सभी धर्म के लोगों पर समान रूप से लागू होता है. दुनिया के ज्यादातर इस्लामिक देशों में शरिया पर आधारित एक समान कानून है, जो वहां रहने वाले सभी धर्म के लोगों को समान रूप से लागू होता है.


यूसीसी के बाद भारत में क्या होंगे बदलाव

भारत में अगर यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होता है तो लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ा दी जाएगी. इससे वे कम से कम ग्रेजुएट तक की पढ़ाई पूरी कर सकेंगी. वहीं, गांव स्तर तक शादी के पंजीकरण की सुविधा पहुंचाई जाएगी. अगर किसी की शादी पंजीकृत नहीं होगी तो दंपति को सरकारी सुविधाओं का लाभ नहीं मिलेगा. पति और पत्नी को तलाक के समान अधिकार मिलेंगे. एक से ज्यादा शादी करने पर पूरी तरह से रोक लग जाएगी. नौकरीपेशा बेटे की मौत होने पर पत्नी को मिले मुआवजे में माता-पिता के भरण पोषण की जिम्मेदारी भी शामिल होगी. उत्तराधिकार में बेटा और बेटी को बराबर का हक होगा. पत्नी की मौत के बाद उसके अकेले माता-पिता की देखभाल की जिम्मेदारी पति की होगी. वहीं, मुस्लिम महिलाओं को बच्चे गोद लेने का अधिकार मिल जाएगा. उन्हें हलाला और इद्दत से पूरी तरह से छुटकारा मिल जाएगा. लिव-इन रिलेशन में रहने वाले सभी लोगों को डिक्लेरेशन देना पड़ेगा. पति और पत्नी में अनबन होने पर उनके बच्चे की कस्टडी दादा-दादी या नाना-नानी में से किसी को दी जाएगी. बच्चे के अनाथ होने पर अभिभावक बनने की प्रक्रिया आसान हो जाएगी।




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सुरेश गांधी

वरिष्ठ पत्रकार

वाराणसी

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