वैसे तो पुरी का जगन्नाथ मंदिर विश्वभर में प्रसिद्ध है। लेकिन इस मंदिर से जुड़ी कई ऐसी बातें हैं जिनके बारे में बहुत कम ही लोग जानते हैं. खास यह है कि जगन्नाथ पुरी में किसी भी स्थान से आप मंदिर के शीर्ष पर लगे सुदर्शन चक्र को देखेंगे तो वह आपको सदैव अपने सामने ही लगा दिखेगा. मंदिर के ऊपर स्थापित ध्वज सदैव हवा के विपरीत दिशा में लहराता है. इस मंदिर का रसोई घर दुनिया का सबसे बड़ा रसोई घर है. प्रतिदिन सायंकाल मंदिर के ऊपर स्थापित ध्वज को मानव द्वारा उल्टा चढ़कर बदला जाता है. मंदिर के सिंहद्वार में पहला कदम रखते ही मंदिर के भीतर किसी भी भक्त को सागर द्वारा निर्मित ध्वनि नहीं सुनाई देती, लेकिन जैसे ही आप मंदिर से बाहर एक भी कदम रखते हैं आप इस आवाज को सुन पाएंगे. जगन्नाथ पुरी के रसोईघर में भगवान जगन्नाथ को चढ़ाए जाने वाले महाप्रसाद को बनाने के लिए 500 रसोइए और उनके 300 सहायक-सहयोगी एकसाथ काम करते हैं. यहां सारा प्रसाद मिट्टी बर्तनों में ही पकाया जाता है. हैरानी की बात यह है कि इस मंदिर के ऊपर से कभी भी आप किसी पक्षी या विमान को उड़ते हुए नहीं देखेंगेजगन्नाथ मतलब “ब्रह्मांड के भगवान“। जगन्नाथ भगवान विष्णु का ही एक रूप हैं। ओडिशा के पुरी में स्थित भगवान जगन्नाथ मंदिर चारों धामों में से एक है। जगत के नाथ कहलाने वाले भगवान जगन्नाथ के इस स्थल को धरती का बैकुंठ भी कहा जाता है। वैष्णव परंपरा से जुड़े लोगों के लिए यह सबसे बड़ा तीर्थ स्थान है. इसीलिए इसे महातीर्थ का दर्जा प्राप्त है। आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि के दिन रथयात्रा निकाली जाती है। कहते है, इस दिन भगवान जगन्नाथ अपने बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ गुंडिचा मंदिर जाते हैं। इस वर्ष जगन्नाथ रथ यात्रा 20 जून, मंगलवार को निकाली जाएगी। विश्वप्रसिद्ध भगवान जगन्नाथ जी की रथ में भाग लेने के लिए देश-विदेश से लाखो की संख्या में श्रद्धालु यहां पहुंचते हैं. इस यात्रा की भव्यता देखते ही बनती है। कहते है जिस किसी भी भक्त ने रथ को छू लिया उसकी हर मनोकामनाएं पूरी हो जाती है। इस रथ यात्रा के दौरान भगवान जगन्नाथ का ही नहीं बल्कि तीनों भाई-बहन के रथों के रंग अलग होते हैं. खास यह है कि रंग के साथ इनके नाम भी अलग-अलग होते हैं. भगवान जगन्नाथ के रथ को ’गरुड़ध्वज’ या ’कपिलध्वज’ कहा जाता है. तीनों रथों में ये सबसे बड़ा रथ होता है. इस रथ में कुल 16 पहिए लगे होते हैं. भगवान जगन्नाथ के रथ की ऊंचाई 13.5 मीटर होती है. इस रथ में लाल और पीले रंग के कपड़े का इस्तेमाल होता है. माना जाता है कि इस रथ की रक्षा गरुड़ करते हैं. रथ पर लगे ध्वज को ’त्रैलोक्यमोहिनी“ कहते हैं. धार्मिक मान्यता है कि जगन्नाथ मंदिर की मूर्तियों में आज भी भगवान श्रीकृष्ण का दिल धड़कता है. पुरी का यह मंदिर भगवान कृष्ण को समर्पित है, लेकिन वहां पर उन्हें जगन्नाथ धाम के नाम से जाना जाता है. हिंदू धर्म से जुड़े चार प्रमुख तीर्थ में से एक पुरी के इस मंदिर में भगवान जगन्नाथ के साथ उनके बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की मूर्ति के दर्शन होते हैं. मान्यता है कि जगन्नाथ मंदिर में प्रसाद पकाने के लिए 7 बर्तनों को एक के ऊपर एक क्रम में रखा जाता है, जिसमें सबसे ऊपर रखे बर्तन का प्रसाद सबसे पहले पकता है, जबकि, नीचे की तरफ से एक के बाद एक प्रसाद पकता जाता है. जोकि अपने आप में हैरान कर देने वाला है. मान्यता है कि मंदिर में दिन के समय हवा समुद्र से जमीन की ओर चलती है. जबकि शाम के समय हवा जमीन से समुद्र की ओर चलती है. जगन्नाथ मंदिर के शिखर पर लगा झंडा हमेशा हवा के विपरीत लहराता है. मान्यता है कि जगन्नाथ मंदिर की ऊंचाई करीब 214 फीट है. ऐसे में पशु पक्षियों की परछाई तो बननी चाहिए, मगर इस मंदिर के शिखर की छाया हमेशा गायब ही रहती है. मंदिर के ऊपर से न ही कभी कोई हवाई जहाज उड़ता है और न ही कोई पक्षी मंदिर के शिखर पर बैठता है. ऐसा भारत के किसी भी मंदिर में नहीं देखा गया है. मंदिर में हर 12 साल के भीतर भगवान जगन्नाथ समेत तीनों मूर्तियों को बदला जाता है. जिसके बाद वहां पर नई मूर्तियां स्थापित की जाती हैं. भगवान की मूर्तियों को बदलते समय शहर की बिजली को काट दिया जाता है. इसके साथ ही मंदिर के बाहर भारी सुरक्षा बलों को तैनात कर दिया जाता है. उस दौरान सिर्फ पुजारी को ही मंदिर में जाने की परमिशन होती है.
रथयात्रा का शुभ मुहूर्त
हिंदू पंचांग के अनुसार, आषाढ़ शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि की शुरुआत 19 जून को सुबह 11ः25 पर होगी और यह तिथि 20 जून को दोपहर 1ः07 पर समाप्त हो जाएगी। इसलिए 19 जून को भगवान जगन्नाथ फिर से स्वस्थ हो जाएंगे और 20 जून, मंगलवार के दिन भव्य रथ यात्रा द्वारा अपने भक्तों को दर्शन देंगें। रथ यात्रा का समय इस दिन रात्रि 10ः04 निर्धारित किया गया है और यात्रा 21 जून को शाम 07ः09 बजे समाप्त होगी। 20 जून को भगवान जगन्नाथ अपने बड़े भाई बलराम और बहन सुभद्रा के साथ तीन अलग रथों पर सवार होकर नगर भ्रमण के लिए निकलेंगे. धार्मिक मान्यता है कि हर वर्ष प्रभु जगन्नाथजी पुरीवासियों का हालचाल जानने के लिए नगर भ्रमण के लिए निकलते हैं. भगवान जगन्नाथ अपने विशाल रथ नंदीघोष पर सवार होकर गुंडिचा मंदिर यानी अपनी अपनी ‘मौसी के घर’ जाएंगे. वहां पर सात दिनों तक विश्राम करने के बाद तीनों भाई बहन अपने धाम पुरी वापस लौटते हैं. इस रथ यात्रा के आरंभ से पहले भगवान जगन्नाथजी के रथ के सामने सोने के हत्थे वाली झाडू लगाई जाती है। जिसके बाद मंत्रोच्चार और जयघोष के साथ ढोल, नगाड़े और तुरही बजा कर रथों को खींचा जाता है। इस रथ यात्रा का आरंभ सबसे पहले बड़े भाई बलरामजी के रथ से होता है। जिसके बाद बहन सुभद्राजी और फिर अंत में जगन्नाथ जी के रथ को चलाया जाता है।रथ छू लेने मात्र से दूर होते है सारे कष्ट
रथयात्रा के दौरान भगवान जगन्नाथ, भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की प्रतिमाओं को रथ में बैठाकर नगर भ्रमण कराया जाता है. इसलिए यह उत्सव भगवान जगन्नाथ, उनकी बहन सुभद्रा और बड़े भाई बलभद्र (बलराम) को समर्पित है. रथयात्रा में लाखों भक्त जूलूस में शामिल होते हैं और भगवान जगन्नाथ का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं.विशेषकर उड़ीसा के पुरी में जगन्नाथ रथ यात्रा के पर्व को धूमधाम से मनाया जाता है. लेकिन इसके साथ ही देश के अलग-अलग शहरों में भी रथ यात्रा निकाली जाती है. स्कंद पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण और ब्रह्म पुराण में भी रथ यात्रा का वर्णन मिलता है. मान्यता है कि जगन्नाथ रथ यात्रा में जुलूस के दौरान रथ को खींचना शुद्ध भक्ति से जुड़ा है. इससे व्यक्ति के ऐसे पाप नष्ट होते हैं, जिसे उसने जानबूझकर या अनजाने में किए हों. साथ ही भगवान के रथ को खींचने वाले के सभी दुख, कष्ट भी दूर होते हैं और सौ यज्ञ कराने जितने पुण्यफल की प्राप्ति होती है.
रथ यात्रा में भाई-बहन संग मौसी के घर जाते हैं भगवान जगन्नाथ
मान्यता के अनुसार जगन्नाथ रथ यात्रा के दौरान रथ पर सवार होकर भगवान जगन्नाथ मौसी के घर गुंडिचा जाते हैं. गुंडिचा मंदिर को भगवान जगन्नाथ की मौसी का घर माना गया है. यहां भगवान जगन्नाथ अपनी बहन सुभद्रा और भाई बलभद्र के साथ जाते हैं और पूरे एक हफ्ते तक ठहरते हैं. यहां उनका खूब आदर-सत्कार होता है और मौसी से लाड-दुलार मिलता है. मान्यता है कि मौसी के घर भगवान खूब पकवान खाते हैं, जिससे वो बीमार भी पड़ जाते हैं और 15 दिनों तक उनका इलाज किया जाता हैं। जगन्नाथ रथ यात्रा की शुरुआत 12वीं सदी से होती है। पौराणिक कथा के अनुसार, इस दिन, भगवान जगन्नाथ अपनी बहन सुभद्रा और बड़े भाई बलभद्र के साथ अपनी मौसी के घर से होते हुए गुंडिचा मंदिर गए थे। यह दिन अब हर साल जगन्नाथ रथ यात्रा के साथ मनाया जाता है। पुरी रथयात्रा के लिए बलराम, श्रीकृष्ण और देवी सुभद्रा के लिए तीन अलग-अलग रथ निर्मित किए जाते हैं। हर साल 15 दिनों के लिए भगवान जगन्नाथ के बीमार हो जाते हैं। एक मान्यता यह है कि ज्येष्ठ मास के पूर्णिमा तिथि के दिन भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा और बड़े भाई बलभद्र को गर्भ गृह से बाहर लाया जाता है और उन्हें सहस्त्र स्नान कराया जाता है। स्नान के बाद भगवान जगन्नाथ बीमार पड़ जाते हैं और उन्हें बुखार आ जाता है। जिस कारण से वह 15 दिनों तक शयन कक्ष में विश्राम मुद्रा में रहते हैं। इस दौरान उनका विशेष ध्यान रखा जाता है। उन्हें कई प्रकार की औषधियां दी जाती है। सादा भोजन जैसे खिचड़ी इत्यादि का भोग लगाया जाता है। 15 दिनों तक वे केवल काढ़ा और फलों का जूस ही पीते हैं। सोने से पहले मीठा दूध अर्पित किया जाता है साथ ही पूरे 15 दिनों तक भगवान को शीतल लेप भी लगाया जाता है। इस दौरान मंदिर में न तो घंटी बजती है ना भक्तों को दर्शन करने की अनुमति होती है। वह आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि के दिन वह अपने विश्राम कक्ष से बाहर निकलते हैं और इस दिन भव्य रथ यात्रा निकाली जाती है।
रथयात्रा की विशेषताएं
रथ यात्रा में तीन रथ होते हैं. इन रथों को मोटे रस्सों की मदद से खींचा जाता है. इनमें दूसरा बड़ा रथ नंदीघोष होता है. भगवान जगन्नाथ जी इसी रथ पर सवार होते हैं. इस पर त्रिलोक्यमोहिनी ध्वज लहराता है. 42.65 फीट ऊंचे इस रथ को गरुड़ध्वज भी कहा जाता है. नंदीघोष रथ में 16 पहिए होते हैं. यह लाल और पीले रंग का होता है. इस रंग से रथ को दूर से ही पहचाना जा सकता है कि इसमें भगवान जगन्नाथ जी सवार हैं. नंदीघोष के सारथी दारुक हैं. वे भगवान जगन्नाथ को नगर भ्रमण कराते हैं. भगवान जगन्नाथ के बड़े भाई बलराम जी के रथ का नाम तालध्वज है. यह जगन्नाथ जी के रथ से थोड़ा ही बड़ा होता है. यह रथ 43.30 फीट ऊंचा होता है. यह रथ लाल और हरे रंग का होता है. इसमें 14 पहिए लगे होते हैं. तालध्वज रथ के सारथी का नाम मातलि हैं. दोनों भाइयों की छोटी बहन सुभद्रा जी दर्पदलन नाम के रथ पर सवार होती हैं. यह रथ दोनों भाइयों के रथों से छोटा होता है. इसकी ऊंचाई 42.32 फीट होती है. दर्पदलन रथ लाल और काले रंग का होता है. इसमें 12 पहिए लगे होते हैं. सुभद्रा जी के रथ के सारथी अर्जुन हैं. इन रथों को बनाने में करीब 2 माह का समय लगता है. हर साल वसंत पंचमी से दशपल्ला के जंगलों में लकड़ी एकत्र करने का काम प्रारंभ होता है. इन रथों का निर्माण श्री जगन्नाथ मंदिर के बढ़ई ही करते हैं. इनको भोई सेवायतगण कहते हैं. 200 से अधिक बढ़ई मिलकर इन तीन रथों का निर्माण करते हैं. हर साल रथ यात्रा के लिए नए रथ बनाए जाते हैं और पुरानों रथों को तोड़ दिया जाता है. यात्रा के दौरान भगवान जगन्नाथ, बलभद्र, व सुभद्रा के रथ नारियल की लकड़ी से बनाए जाते है क्योंकि ये लकड़ी हल्की होती है। भगवान जगन्नाथ के रथ का रंग लाल और पीला होता है और यह अन्य रथों से आकार में भी बड़ा होता है। यह यात्रा में बलभद्र और सुभद्रा के रथ के पीछे होता है। भगवान जगन्नाथ के रथ के घोड़ों का नाम शंख, बलाहक, श्वेत एवं हरिदाशव है, इनका रंग सफ़ेद होता है. रथ के रक्षक पक्षीराज गरुड़ है। रथ की ध्वजा यानि झंडा त्रिलोक्यवाहिनी कहलाता है। रथ को जिस रस्सी से खींचा जाता है, वह शंखचूड़ नाम से जानी जाती है।
मूर्ति है अधूरी
भगवान जगन्नाथ की मूर्ति में हाथ और पैर के पंजे नहीं होते। मान्यता है कि मालवा नरेश इंद्रद्युम्न जो भगवान विष्णु के बड़े भक्त थे, उनके सपनों में आकर खुद श्री हरि ने उन्हें मूर्ति बनवाने को कहा था। ऐसा माना जाता है की शिल्पकार विश्वकर्मा जब मूर्ति बना रहे थे तब राजा के सामने शर्त रखी कि वह दरवाज़ा बंद करके मूर्ति बनाएंगे और मूर्ति बनने तक वो दरवाज़ा नहीं खोलेंगे और अगर मूर्ति बनने से पहले दरवाज़ा खोला गया तो वो मूर्ति बनाना छोड़ देंगे। राजा ने तब तो बात मान ली लेकिन एक दिन राजा ने दरवाजे खोल दिए तब विश्वकर्मा अपने शर्त के अनुसार वहां से ग़ायब हो गए और भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्ति अधूरी रह गई।
इसलिए निकाली जाती है रथ यात्रा
मान्यता है कि एक बार बहन सुभद्रा ने भगवान जगन्नाथ से नगर देखने की इच्छा जताई। बहन की इस इच्छा को पूरा करने के लिए भगवान जगन्नाथ और बलभद्र उन्हें रथ पर बैठाकर नगर दिखाने निकल गए। इस दौरान वे अपनी मौसी के घर भी गए जो गुंडिचा में रहती थीं। तभी से इस रथ यात्रा की परंपरा का शुभारंभ हुआ।
धड़कता है दिल
पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और बहन सुभद्रा की काठ (लकड़ी) की मूर्तियां विराजमान हैं। मान्यता है कि जब भगवान कृष्ण ने अपना देह त्याग किया था तो पांडवों ने यहीं पर उनका अंतिम संस्कार किया था। भगवान कृष्ण का शरीर तो पंचतत्व में विलीन हो गया लेकिन उनका दिल जिंदा रहा। तभी से उनका दिल आज तक सुरक्षित है और यह भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के अंदर आज भी धड़कता है।
हर 12 साल में बदली जाती है मूर्तियां
हर 12 साल बाद भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और उनकी बहन सुभद्रा की मूर्तियों को बदला जाता है। जब भी इन मूर्तियों को बदला जाता है उस समय पूरे शहर की बिजली बंद कर दी जाती है। इस दौरान मंदिर के आसपास पूरा अंधेरा कर दिया जाता है। मंदिर की सुरक्षा सीआरपीएफ के हवाले कर दी जाती है। किसी का भी मंदिर में प्रवेश वर्जित होता है। इन मूर्तियों बदलने के लिए सिर्फ एक पुजारी को मंदिर में जाने की अनुमति होती है। मूर्तियां बदलते समय पुजारी के हाथों में दस्ताने होते हैं और आंखों पर पट्टी बंधी होती है ताकि वह भी मूर्तियों को ना देख सकें। मूर्तियां बदलने के आखिर में सबसे अहम होता है ब्रह्म पदार्थ को पुरानी मूर्ति से नई में डालना। जब मूर्तियां बदली जाती हैं तब सबकुछ नया होता हैं लेकिन जो नहीं बदलता है वो है ब्रह्म पदार्थ। ब्रह्म पदार्थ कुछ और नहीं है बल्कि भगवान श्रीकृष्ण का दिल है। ब्रह्म पदार्थ को लेकर मान्यता है कि अगर इसे किसी ने भी देख लिया तो उसकी तुरंत मौत हो जाएगी। आज तक जिस भी पुजारी ने ब्रह्म पदार्थ को भगवान जगन्नाथ के पुराने विग्रह से नए विग्रह में स्थापित किया, उन्होंने बताया कि उस दौरान अलग ही अनुभव होता है। यह कुछ उछलता हुआ-सा महसूस होता है। पुजारियों ने कभी इसे देखा नहीं लेकिन उनका कहना है कि यह एक खरगोश जैसा लगता है जो उछल रहा होता है।
अद्भूद है मंदिर की बनावट
यह हिंदुओं के लिए सबसे प्रतिष्ठित तीर्थ स्थल है और बद्रीनाथ, द्वारका और रामेश्वरम के साथ पवित्र चार धाम यात्रा में शामिल है। मुख्य मंदिर के अलावा, परिसर के भीतर कई छोटे मंदिर आपको ऐसा महसूस कराएंगे जैसे आप भगवान के घर में ही प्रवेश कर रहे हैं। जगन्नाथ पुरी मंदिर की शानदार उड़िया वास्तुकला बेहद ही खूबसूरत है। चार द्वारों को जटिल नक्काशी के साथ खूबसूरती से डिजाइन किया गया है।
गुंडिचा मंदिर
जगन्नाथ के मुख्य मंदिर परिसर से 3 किमी की दूरी पर स्थित, गुंडिचा मंदिर जगन्नाथ मंदिर से पौराणिक रथ यात्रा उत्सव के गंतव्य के रूप में महत्वपूर्ण है। नौ दिनों तक, मंदिर में जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की त्रिमूर्ति के रूप में स्थापित रहते हैं। यह मंदिर रथ यात्रा के अंत का प्रतीक है, जहां देवता अपने मूल घर वापस यात्रा करने से पहले सात दिनों तक आराम करते हैं। यह हल्के भूरे रंग के बलुआ पत्थर से बना है और कलिंग मंदिर वास्तुकला की देउला शैली में बनाया गया है। भगवान के जीवन को दर्शाने वाली कई छवियों को छोड़कर, गुंडिचा मंदिर शेष वर्ष खाली रहता है। सुबह 6ः00 बजे से दोपहर 3ः00 बजे तक, शाम 4ः00 बजे से रात 10ः00 बजे तक इस मंदिर के दर्शन कर सकते हैं।
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी
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