अब हरिवंश की कुर्सी पर पेंच आ गयी है। दिल्ली अध्यादेश पर संसद का विश्वास हासिल करने लिए सरकार अध्यादेश को पहले लोकसभा में रखेगी, जहां पारित हो जाना आसान है। इसके बाद अध्यादेश को राज्यसभा में लाया जाएगा, जहां भाजपा और उनके वर्तमान सहयोगी दलों का बहुमत नहीं है। अध्यादेश को पारित कराने के लिए अन्य पार्टियां का सपोर्ट भी चाहिए। वैसी स्थिति में एक-एक वोट का महत्व है। जदयू सदस्य के रूप में हरिवंश को भी एक वोट देने का अधिकार है। यही वोट उनके लिए गले की हड्डी बन जाएगा। दिल्ली अध्यादेश के खिलाफ जदयू राज्यसभा में ह्वीप जारी करता है तो हरिवंश को अध्यादेश के खिलाफ मतदान करना होगा। यदि वे अध्यादेश के पक्ष में मतदान करते हैं तो दल विरोधी गतविधि के आरोप में उनकी सदन सदस्यता पर संकट आ जाएगा और उनको सदस्यता गंवानी पड़ सकती है। यह जदयू नेतृत्व पर निर्भर करता है कि उनके खिलाफ क्या कार्रवाई करता है। पिछले एक साल में ऐसी स्थिति पैदा नहीं हुई है कि हरिवंश की सदस्यता पर संकट आए, लेकिन दिल्ली अध्यादेश उनके लिए संकट बनकर आएगा। केंद्र सरकार की अनुकंपा साथ बनी रही तो हर संकट टल सकता है, लेकिन नीतीश कुमार भी विरोधियों को माफ करने वाले नहीं हैं। आरसीपी सिंह से लेकर शरद यादव तक इसके उदाहरण हैं। अब देखने का वक्त आ रहा है कि हरिवंश उपसभापति पद छोड़कर जदयू के साथ खड़े होंगे या दिल्ली अध्यादेश का विरोध करके भी भाजपा की अनुकंपा का आनंद उठाते रहेंगे।
— बीरेंद्र यादव न्यूज —
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