किसी ज़माने में संपादक की ओर से लेखक के लिए यह फौरी हिदायत होती थी कि भेजी गई रचना मौलिक,अप्रकाशित हो और अन्यत्र भी न भेजी गई हो। पता लिखा/टिकट लगा लिफाफा रचना के साथ संलग्न करना आवश्यक होता था अन्यथा अस्वीकृति की स्थिति में रचना लौटाई नहीं जा सकती थी।रचना के प्रकाशन के बारे में लगभग तीन माह तक जानकारी हासिल करना भी वर्जित था।रचना छपती तो मन बल्लियों उछलता और अगर लौट आती तो उदासी और तल्खी कई दिनों तक छाई रहती। डिजीटलीकरण के इस दौर में स्थितियां आशातीत रूप से बदल गईं हैं।प्रिंट मीडिया लगभग अवसान पर है।पारिश्रमिक देने वाली पत्रिकाएं धर्मयुग,साप्ताहिक हिंदुस्तान,सारिका आदि तो बन्द हो गईं।सरकारी अनुदान से पोषित कुछ पत्रिकाएं अवश्य निकल रही हैं मगर हैं वे भी अनियतकालीन या बस खानापूर्ति के लिए।नेट पर कई सारी स्तरीय पत्रिकाएं उपलब्ध हैं।शुद्ध साहित्यिक भी और साहित्यिक-सामाजिक-राजनीतिक भी।कुछ छपी पत्रिकाओं के डिजिटल संस्करण भी निकलते हैं। कभी-कभी सोचता हूँ कि खूब मेहनत के बाद अगर आपने कोई रचना/रिपोर्ट या फिर कोई पठनीय सामग्री तैयार की है तो उसे कई जगह प्रकाशनार्थ भेजने में हर्ज क्या है?लेखक तो यही चाहेगा न कि उसकी बात ज़्यादा से ज़्यादा पाठकों तक पहुंचे।संपादक के इस बारे में ऐतिराज़ के लॉजिक को मैं आजतक नहीं समझ पाया।पारिश्रमिक तो आजकल कोई देता नहीं है, फिर रचना के 'पूर्वप्रकाशित न होने' वाली बात कहाँ तक सही है? मेरी कई सारी रचनाएं पिछले दो-तीन दशकों के दौरान हिंदी की प्रसिद्ध पत्रिकाओं में छपी हैं।कुछ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी अपने समय में थीं।उनको अगर आज के पाठक के लिये पुनः प्रस्तुत किया जाय तो वह आनंदित ही होगा।इसमें संपादक को कोई हर्ज नहीं होना चाहिए।पाठक ने अगर वह रचना पहले कहीं पढ़ी है तो दुबारा पढेगा या फिर नहीं पढ़ेगा।और जिसने नहीं पढ़ी है वह पढ़ लेगा। कश्मीरी की प्रसिद्ध रामायण "रामवतारचरित"पर मेरा एक शोधपरक लेख है जिसे मैं ने खूब मेहनत से तैयार किया।जिस पत्रिका/संगोष्ठी के लिए उसे तैयार किया,वहां तो उसका उपयोग हुआ,अब कहीं अगर किसी विशेषांक अथवा सम्मेलन के लिए संपादक/आयोजक मुझ से ऐसा ही कोई आलेख दोबारा मांगता है तो मैं पुनः सर खपाऊँगा या फिर उसी लेख को विचारार्थ भेज दूँ? ज़्यादा-से- ज़्यादा दो एक पंक्तियां और जोड़ दूँगा या हटा दूँगा।
डॉ० शिबन कृष्ण रैणा
skraina123gmail.com
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