वर्ष 2000 में उत्तराखंड के गठन के बाद राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति में सुधार की उम्मीद की जा रही थी. परंतु राज्य के बनने के 23 वर्ष बाद भी राज्य के पर्वतीय भाग को प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हो सकी है. 11.09 मिलियन जनसंख्या वाले राज्य के स्वास्थ्य की जिम्मेदारी 773 अस्पतालों के जिम्मे है. मैदानी क्षेत्रों मेंआधुनिक उपचार की सुविधा तो उपलब्ध हो जाती है लेकिन पर्वतीय क्षेत्रों में सामान्य खून की जाॅच, एक्सरे, अल्ट्रा साउंड जैसी मूलभूत सुविधाओं के लिए 5-6 घंटे का सफर और मोटी धनराशि के साथ करना पड़ता है. पर्वतीय जिलों के ज्यादातर सरकारी अस्पताल अपनी लचर स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए जाने जाते हैं. कहीं पर्याप्त मानव संसाधन नहीं हैं तो कही आधुनिक उपकरणों का अभाव है. अल्मोड़ा स्थित लमगड़ा ब्लॉक के गुना गांव की बुज़ुर्ग हंसी देवी कहती हैं कि 'राज्य में स्वास्थ्य सेवाएं ईश्वर के भरोसे चल रही है. सामान्य से इलाज व सम्बन्धित दवाओं के लिए भी गांव से 20 किमी दूर जाना पड़ता है और गंभीर हालत होने पर गांव से110 किलोमीटर दूर हल्द्वानी की ओर रूख करना पड़ता है.'
स्वास्थ्य केन्द्रों की हालत तो ऐसी है जहां बडे इलाज तो दूर की बात है, यदि किसी को चोट लगने से शरीर पर घाव हो जाए या कट जाये तो टांके तक किये जाने की सुविधा नहीं है. पर्वतीय क्षेत्रों में आधुनिक मशीनों के अलावा विशेषज्ञों व स्वास्थ्य कर्मचारियों की भी कमी है. कहीं डॉक्टर हैं तो पैरा मेडिकल स्टाफ नहीं, कहीं स्टाफ हैं तो डॉक्टर के पद खाली हैं, कहीं दोनों हैं तो आधुनिक उपकरण नहीं है. सामान्य बीमारियों के इलाज के लिए भी दुर्गम भौगोलिक परिस्थितियों में अस्पताल तक पहुंचना किसी चुनौती से कम नहीं है. पर्वतीय क्षेत्रों में 108 वाहन की सुविधा दी गयी है. मगर इनका समय पर मिलना या निर्धारित स्थान पर पहुंचना भी किसी टास्क से कम नहीं है. अधिकांश गांव मुख्य सड़क से काफी दूरी पर होते हैं तो कही रोड़ों की सुचारु व्यवस्था नहीं है. ऐसा प्रतीत होता है मानों पर्वतीय समुदाय के लिए विकास के हर रास्ते बंद हैं. पर्वतीय क्षेत्रों में मोबाइल हेल्थ यूनिट स्वास्थ्य सेवाओं में सहायक सिद्ध हुई है. जिसमें आरोही व हंस फाउंडेशन कई क्षेत्रों में सचल चिकित्सा वाहनों के द्वारा ग्रामवासियों का इलाज घर के नजदीक करने में सहायता कर रही है जो पर्वतीय क्षेत्रों के लिए अच्छा माध्यम है, पर संस्थाओं की भी एक सीमा होती है. क्षेत्र की लचर स्वास्थ्य व्यवस्था को लेकर इसी ब्लॉक के कपकोट गांव के युवा हरीश सिंह बताते हैं कि उनको खांसी से संबंधित शिकायत थी. जागरूकता व संसाधनों की कमी के चलते समय से पता न चल पाने के कारण व कठिनाई अधिक होने पर उनके द्वारा हल्द्वानी की ओर रुख किया गया. जहां जांच के उपरान्त उन्हें पता चला कि उन्हें कैंसर की बीमारी है. वह बताते हैं कि यदि ग्राम स्तर पर संसाधन होते तो समय से बीमारी का पता लगने पर समय पर इलाज करवाये जाने से उनकी सेहत इतनी नहीं बिगड़ती और शहर में डॉक्टरों के चक्कर नही लगाने पडते. पर्वतीय क्षेत्र के अधिकांश लोग गरीबी रेखा के नीचे आते हैं. ऐसे लोगों के स्वास्थ्य का जिम्मा सरकारी अस्पतालों के भरोसे होता है. पर वहां यह एक कठपुतली के तरह होते है. जिनकी डोर डॉक्टरों व स्टाफ के हाथों में होती है.
आलम ऐसा है कि एक अस्पताल के डाॅक्टरों द्वारा करवाये गयी जांचों को दूसरेअस्पताल के डाॅक्टर कूड़ा समझकर किनारे कर नये ढ़ग से अपनी जांचें करवाते हैं और यह आलम सभी अस्पतालों में होता है. गरीब जो बड़ी मुश्किल से इलाज के लिए पैसा जुटा पाता है वह इतना अधिक व्यय कैसे सहन कर सकता है? इस ओर सरकार द्वारा कुछ नियमों को बनाया जाना चाहिए जिससे व्यक्ति अन्यत्र व्यय की मार न झेले. नैनीताल स्थित धारी ब्लॉक के सुन्दरखाल गांव की ग्राम प्रधान रेखा बिष्ट का कहना है 'पर्वतीय क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाएं दम तोड़ रही हैं. स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध न होने की दशा में ग्रामवासियों को सामान्य जांचों के लिए भी मैदानी क्षेत्रों की ओर रूख करना पड़ता है. जहां समय व अतिरिक्त व्यय होता है. संस्थाओं के माध्यम से ग्रामों में शिविरों का आयोजन किया जाता है जो सराहनीय है. इससे घर के नजदीक इलाज मिल रहा है. सरकार द्वारा भी ग्रामीण क्षेत्रों की ओर त्वरित कदम उठाए जाने चाहिए. आधुनिक उपकरणों व नवीन तकनीकों को स्वास्थ्य केन्द्रों में चालू किया जाना चाहिए. जिससे समय पर मरीजों को इलाज हो सके व धनराशि के साथ समय की बचत भी होगी. ऐसा नहीं है कि क्षेत्र में अच्छे डॉक्टरों की कमी नहीं है. बस प्रबंधन के साथ सामुदायिक भागीदारी की भावना के साथ कार्य किये जाने की देरी है.' ओखलकाण्डा विकास खण्ड के खन्स्यू गांव स्थित प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र के युवा डाॅ विनय चौहान बताते हैं कि सभी स्थानों पर डॉक्टर हों, ऐसा संभव नहीं है. मगर नर्स और पैरा मेडिकल स्टाफ की भर्ती राज्य स्तर पर न करके जिला या ब्लॉक स्तर पर करवाई जानी चाहिए. जिसका राज्य को दोहरा लाभ मिल सकेगा. एक तो स्थानीय स्तर पर रोजगार मिलने से पलायन रुकेगा साथ ही स्थानीय व्यक्ति को नियुक्ति मिलेगी तो वह ट्रांसफर की मांग भी नहीं करेगा. जो अक्सर डाॅक्टर या स्टाफ की प्राथमिकता होती है. साथ ही सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में मूलभूत सुविधाओं जाँच हेतु उपकरण लैब व तकनीकी कार्यकर्ता की कमी को पूरा करने का प्रयास किया जाना चाहिए भले ही शुरुआती तौर पर संख्या कम हो पर हो तो सही. जिससे ग्राम स्तर पर इलाज संभव हो सके.
नरेन्द्र सिंह बिष्ट
हल्द्वानी, उत्तराखंड
(चरखा फीचर)
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