कवि अनिल विभाकर ने अपना महत्वपूर्ण समय पत्रकारिता को दिया है, पटना 'हिन्दुस्तान' में बतौर फीचर संपादक और 'जनसत्ता' के जयपुर संस्करण के स्थानीय संपादक के तौर पर यानी दीर्घकालीन लेखन से उनका बावस्ता रहा है, यायावरी के कई-कई अनुभव उनके इस संग्रह में नत्थी हैं, लेकिन समय की नियति को वे बेहद सरल अंदाज में कहते हैं कि- 'रायसीमा ने कभी नहीं देखा मेरा दुख' दुख की पराकाष्ठा तब और अधिक विस्फोटक बन जाती है, तब उन्हें कहना पड़ता है कि- बाज़ार है भाई, यहां जो बिकता नहीं वह किसी काम का नहीं है।' लेकिन कवि निराश या हताश नहीं है, उम्मीदों का सम्बल उनकी कविताओं की सबसे बड़ी ताकत है, वे कहते हैं कि -धरती को भी नहीं मालूम उसे कब तक चलना है/ सृष्टि का क्रमभंग तो हो सकता है/ नहीं होगा कभी धरती की यात्रा का अंत। संग्रह में चयनित कविताओं का फ़लक व्यापक है, कई-कई अनछुए विषय पाठकों का ध्यान आकृष्ट कर सकते हैं, मसलन 'आंगन' शीर्षक कविता दृष्टव्य है- घर था तो आंगन में उतरता था आसमान/ भर आंगन लौटती थी चांदनी/ तारे खेलते थे घर में घोघोरानी-डेंगापानी/ अब तो आंगन के लिए नहीं है घर में कोई जगह/ बंद कर दिए गए आसमान के उतरने के सारे रास्ते ! यह एक बिडम्बना है जो हमारे अतीत, सभ्यता- संस्कृति और परंपराओं को मनुष्य से छीना जा रहा है, आत्मीयता लुप्त हो रही है, पेड़-पौधे से गौरैया तक आंगन से नदारत हो रहे हैं ! कवि की रचनात्मकता और संग्रह का अभिनंदन करता हूँ। कवि सृजनरत रहें, उन्हें ढेर सारी यशकामनाएँ निवेदित करता हूँ।
कविता संग्रह : अंतरिक्षसुता
कवि: अनिल विभाकर
प्रकाशक : अनन्य प्रकाशन
दिल्ली- 110032.
मूल्य: 250/₹
समीक्षा- अरविन्द श्रीवास्तव,
कला कुटीर, मधेपुरा-852113, बिहार
मोबाइल- 9431080862
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