यूपी के सोनभद्र जनपद के घोरावल स्थित सतवारी गांव में शिवद्वार मंदिर है, जो कई रहस्यों से परिपूर्ण है। भगवान शिव के अर्धनारीश्वर स्वरूप को समर्पित यह एक ऐसा पुरातन मंदिर है, जहां भगवान शिव की पूजा शिवलिंग के रूप में नहीं बल्कि पत्थर से निर्मित प्रतिमा के रूप में होती है। यही वजह है कि शैव संप्रदाय के सनातन मतावलंबियों की आस्था का प्रमुख केंद्र बन चुका है यह मंदिर। आदिदेव महादेव एवं माता पार्वती के दुर्लभ व विलक्षण विग्रह का दर्शन पूजन करने के लिए दूर दूर से यहां पर श्रद्धालुओं का आगमन होता है। महाशिवरात्रि व बसंत पंचमी पर्व पर मेला एवं श्रावण मास में यहां पूरे महीने भर कांवड़ यात्रा एवं विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। शिवद्वार मंदिर को गुप्त कशी के नाम से भी जाना जाता हैजी हां, देश में शायद ही कहीं शिव संग मां पार्वती की ऐसी प्रतिमा देखने को मिले, जहां शिवलिंग नहीं प्रतिमा पर जलाभिषेक होता हो। आदिम सभ्यता के साक्षी बेलन नदी के पास सतद्वारी ग्राम पंचायत में अवस्थित शिवद्वार मंदिर में स्थापित भगवान शिव एवं आदि शक्ति माता पार्वती की संयुक्त मूर्ति शिल्पकला का अद्वितीय उदाहरण है। काले पत्थर से बने साढ़े चार फीट ऊंची इस मूर्ति को श्री उमामहेश्वर के नाम से जाना जाता है। लास्य शैली की इस प्रतिमा का कालखंड कुछ विद्वान ग्यारहवीं शताब्दी मानते हैं। जबकि कुछ आठवीं और कुछ विद्वान और अधिक प्राचीन मानते हैं। इसे सृजन का स्वरूप भी माना जाता है। किंवदंतियों के अनुसार खेत में हल जोतते समय यह दिव्य प्रतिमा मोती महतो को प्राप्त हुई थी। उसने वहां पर मंदिर बनवाकर मूर्तियों को स्थापित कराया। शिव-पार्वती की ऐसी अनूठी प्रतिमा अन्यत्र नहीं होने का दावा है। यह तीन फुट ऊंची मूर्ति सृजन मुद्रा में रखी हुई है जो एक रचनात्मक मुद्रा है। यह मंदिर उस काल के शिल्प कौशल के बेहतरीन नमूने और शानदार कला का प्रदर्शन करता है। इस क्षेत्र के निवासी इस मंदिर को धार्मिक महत्व के कारण दूसरी काशी व गुप्त काशी के रूप में मानते हैं। मंदिर परिसर में दुर्गा, विश्वकर्मा व संतोषी माता सहित अन्य काले पत्थर की मूर्तियां भी रखी हुई हैं। वहीं परिसर में पीपल वृक्ष के नीचे बहुत सी प्राचीन मूर्तियां रखी हुई हैं। खास यह है कि सावन के महीने में यहां कांवड़िए मीरजापुर में गंगा नदी से और विजयगढ़ किले में स्थित तालाब से जल लाकर मूर्ति पर चढाते हैं। यहां मंदिर परिसर में श्रद्धालु अपनी मनौतियां पूरी होने पर कथा के साथ-साथ मुंडन, शादी जैसे आयोजनों के लिए भी आते हैं। मान्यता है कि यहां जो मां पार्वती संग शिव जी का दर्शन कर ले तो उसके सारे दुःख-दर्द व सभी पापकर्म नष्ट होते हैं। उसकी सभी कामनाएं जरूर परी होती हैं। पूरे सावन यहां दर्शनार्थियों का रेला लगा रहता है। यह मंदिर, मौद्रिक मूल्य के संदर्भ में भी बहुत कीमती है। यह मंदिर, क्षेत्र के सबसे प्रतिष्ठित मंदिरों में से एक है। इस क्षेत्र के निवासी इस मंदिर को धार्मिक महत्व के कारण दूसरी काशी व गुप्त काशी के रूप में मानते है। ऐसा कहा जाता है कि यह इस दुनिया में भगवान शिव की एकमात्र मूर्ति है जहां मूर्ति को पवित्र जल चढ़ाया जाता है, शिवलिंग को नहीं। मंदिर के पुजारी का कहना है कि प्रसिद्ध शिवद्वार धाम में कांवड़ यात्रा का आरंभ वर्ष 1986 में में हुआ। उस समय घोरावल नगर के 13 युवकों द्वारा मिर्जापुर के बरियाघाट से गंगाजल लाकर कांवड़ यात्रा की शुरुआत की गई थी। वर्ष 1991 में सोनभद्र के विजयगढ़ दुर्ग से कांवड़ यात्रा प्रारंभ कराया गया था। आज हजारों कांवड़ियों के लिए शिवद्वार धाम आस्था का केंद्र बन चुका है। पूरे पूर्वांचल से शिवभक्त कांवड़ लेकर आते हैं। उनका कहना है कि उमामहेश्वर की यह संयुक्त प्रतिमा 1305 फसली सन में मोती महतो नामक व्यक्ति को मिली थी। जिसे मोती महतो ने वहां पर एक मंदिर बनवाकर स्थापित कराया था। शिवद्वार के बाबू जगतबहादुर सिंह की धर्मपत्नी बहुरिया अविनाश कुंवरि ने शिवद्वार मंदिर का निर्माण सन 1942 में अपने स्वर्गीय पति की पुण्यस्मृति में कराया था। चुनार के कारीगरों द्वारा चुनार के पत्थर से तीन वर्षों में मंदिर का निर्माण हुआ था। कालांतर में बाहरी मंडप, परिक्रमा पथ, यज्ञशाला इत्यादि का निर्माण धर्मप्राण लोगों के सहयोग से हुआ। सन 1985 में परमहंस आश्रम अमेठी के श्री हरिचैतन्य ब्रह्मचारी की प्रेरणा से बद्रिकाश्रम के शंकराचार्य जगद्गुरू स्वामी विष्णु देवानंदजी सरस्वती महाराज के कर कमलों से मंदिर में श्रीशिवलिंग की वैदिक रीति से स्थापना एवम प्राण प्रतिष्ठा की गई थी।
सावनभर लगता है मेला
साढ़े चार फीट की काले पत्थर की इस मूर्ति में भगवान शिव के बाएं जंघे पर बैठी माँ पार्वती के बाएं हाथ में दर्पण सुशोभित है। प्रतिमा में भगवान शिव को चतुर्भुजी दर्शाया गया है। प्रतिमा में भगवान गणेश, कार्तिकेय व अन्य देवी देवताओं की नयनाभिराम मूर्तियां भी गढ़ी गई हैं। इस अद्वितीय मूर्ति को देखकर आभास होता है कि शिव पार्वती एक दूसरे के दिव्य व अंनत रूप को अपलक निहार रहे हैं। शिवद्वार मंदिर के मुख्य पुजारी सुरेश गिरि, शिवराज गिरि, अजय गिरि ने बताया कि यहां दर्शन पूजन करने वाले भक्तों की भगवान शिवशंकर हर मनोकामना पूर्ण करते हैं और मनोवांछित फल प्रदान करते हैं। यहां उत्तर प्रदेश के विभिन्न इलाकों के साथ ही मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, दिल्ली समेत विभिन्न स्थानों से भक्तगण उमामहेश्वर की दिव्य प्रतिमा का दर्शन करने आते हैं। श्रावण मास में यहां एक महीने का मेला लगता है, जिसमें लाखों कांवड़िए भगवान भोलेनाथ का जलाभिषेक करते हैं। महाशिवरात्रि एवम बसंत पंचमी के पर्व पर भी यहां परम्परागत मेला आयोजित किया जाता है।
पौराणिक मान्यताएं
मान्यता है कि दक्ष प्रजापति को अहंकार के कारण पति सती के अपमान से पिता के अहंकार को नष्ट करने के लिए अपने शरीर को त्यागने के लिए शिव को अनुष्ठान में आमंत्रित नहीं किया था। इससे शिव नाराज हो गए। उन्होंने अपने कोमा से वीरभद्र की उत्पत्ति की और प्रजापति दक्ष के वध का आदेश दिया। प्रजापति का वध वीरभद्र ने किया था। भगवान शिव को समझाने के बाद सृष्टिकर्ता ने बकरी के कटे हुए सिर को सिर के स्थान पर प्रजापति पर रख दिया। प्रजापति दक्ष के अहंकार को नष्ट करने के बाद भगवान शिव बहुत उदास मनोदशा से वहां चले गए। शिव फिर सोनभूमि कहने के लिए मुड़े। शिव ने अगोरी क्षेत्र में कदम रखा। शिव जिस क्षेत्र में प्रथम चरण रखते हैं, उसे आज शिवद्वार के नाम से जाना जाता है। यहां वे अगोरी बाबा बने और उन्होंने वनवास का फैसला किया। शिव के गुप्त छिपने के स्थान के कारण इस स्थान को गुप्त काशी या दूसरी काशी के नाम से जाना जाता है। दूसरी और यह भी कहा जाता है यहां पर लंका नरेश भी आए हुए थे। कालान्तर में ज्योतिष पीठाधीश्वर शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती द्वारा मंदिर का सुन्दरीकरण एवं मंदिर परिसर में ज्योतिर्लिंग की स्थापना कराई गई थी।खेत में हरवाहे के समय मिली दुर्लभ मूर्ति
मंदिर से जुड़े शैलेन्द्र गिरी ने बताया कि इस मंदिर का देखरेख और पूजा पाठ सात पीढ़ियों से उनके ही परिवार के हाथ में है। श्री गिरी ने बताया कि खेत में हरवाहे हल चला रहे थे, अचानक एक हल के नीचे का लौह भाग जमीन में किसी पत्थर से फंसकर रूक गया। हल जहां पर रूका था वहां से अचानक रक्त, दूध और जल की धारा प्रवाहित होने लगी। हरवाहा भाग कर गांव में गया और लोगों को जनकारी दी। गावं वाले जब उस स्थान की मिट्टी को हटाये तो वहां पर काले पत्थरो से निर्मित भगवान शिव और पार्वती की मूर्ति पड़ी थी। लोगों ने मूर्ति को हटाने का प्रयास किया किन्तु कोई भी मूर्ति को टस से मस नहीं कर पाया। लिहाजा लोग मायूस होकर लौट आये। रात को एक किसान को स्वप्न आया, जिसमें शिव जी ने कहा पास के श्मशान भूमि में उनका मंदिर बनाकर प्रतिमा को स्थापित किया जाये। उसके बाद उस किसान ने सुबह स्वप्न की बात सभी को बतायी और स्वप्न में बतायी गयी जमीन पर जहां एक घना बगीचा भी था, वहीं एक पेड़ के नीचे लोगों ने प्रतिमा लाकर स्थापित कर पूजा पाठ शुरू कर दी। इसके पश्चात 1942 में मंदिर का निर्माण हुआ। एक बार इस स्थल पर हिमालय से जगतगुरू शंकराचार्य स्वामी विष्णु देवानन्द सरस्वती जी महराज आये और बताया कि शिव पार्वती की यह प्रतिमा पूजनीय नहीं बल्कि अवलोकनीय है। तत्पश्चात उन्होंने मंदिर का जीर्णोद्धार किया और 23 अप्रैल 1985 को शिवलिंग की स्थापना की। लोगों का कहना है कि मंदिर में श्रद्धापूर्वक पूजन करने पर भक्तों की मनोकामना पूर्ण होती है। जिन लोगों की मनोकामना पूर्ण हुई है उनलोगों ने यहां पर कुछ अन्य मंदिर व हवनकुण्ड भी बनाये हैं। गुप्त काशी के संदर्भ में एक किंवदन्ती प्रचलित है। यहाँ के निवासी मानते हैं कि यहाँ की चट्टानों में भगवान शंकर के आसन की छवि दिखाई देती है।सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी
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