महाराष्ट्र में उठे सियासी तूफान के काले बादल विपक्षी एकता पर भी मंडराने लगे हैं. एक तरफ सभी विपक्षी पार्टियां लोकसभा चुनाव-2024 से पहले एकजुट होने का प्रयास कर रही हैं. वहीं इन सबके विपक्ष के महागठबंधन के सूत्रधार माने जा रहे शरद पवार के कुनबे में ही फूट पड़ गई है. उनके भतीजे और एनसीपी के वरिष्ठ नेता अजित पवार बगावत कर चुके हैं. वे पार्टी पर दावा करने के साथ ही 40 विधायकों के साथ एनडीए में शामिल हो गए हैं. उनका दावा है कि सभी विधायक, सांसद व पार्टी के कार्यकर्ता हमारे साथ हैं. हमने एनसीपी पार्टी के साथ इस सरकार का समर्थन किया है. हम सभी चुनाव एनसीपी के नाम पर ही लड़ेंगे। मतलब साफ है शिवसेना जैसा हस्र एनसीपी को होना तय है। कहा जा सकता है विपक्षी दलों में समझौता तभी संभव है, जब सभी दलों के पास दूसरों को देने के लिए कुछ हो। बीजू जनता दल के नवीन पटनायक का कहना है कि हमारी पार्टी ना ही भाजपा से और ना ना ही विपक्ष से समझौता करेगीफिरहाल, महाराष्ट्र में उठे सियासी तूफान ने विपक्षी एकता की जड़े हिला दी है। अजीत पवार का चाचा शरद पवार से बगावत और एनडीए में शामिल होना विपक्षी एकता के सूर में पलीता लगा दिया है। या यूं कहे एक और जहां देश की सभी विपक्षी पार्टियां एक मंच पर जुटने की कोशिश में लगी हैं, वहीं दूसरी ओर महागठबंधन की अहम कड़ी माने जाने वाले शरद पवार की पार्टी में ही फूट पड़ गई है। उनके भतीजे अजित पवार पार्टी से बगावत कर एकनाथ शिंदे सरकार में डिप्टी सीएम बन गए हैं। इतना ही नहीं अजित पवार ने एनसीपी को अपना बताते हुए कहा है कि उनके समर्थन में 40 से अधिक विधायक व सैकड़ों पार्टी पदाधिकारी हैं। उनका दावा तो यहां तक है कि एनसीपी एनडीए में शामिल होकर 2024 का लोकसभा चुनाव लड़ेगी। बगावत के बाबत उन्होंने साफ किया है कि शरद पवार का कांग्रेस को समर्थन के खिलाफ ही उन्होंने उनसे पार्टी के साथ किनारा किया है।
चर्चा यह भी है कि एनसीपी के अधिकतर नेता नहीं चाहते कि राहुल गांधी को विपक्षी दलों की ओर से पीएम पद का उम्मीदवार बनाया जाएं। इसके साथ ही कई नेता पहले से ही बीजेपी में शामिल होना चाहते थे, लेकिन अजित पवार की वजह से संकोच में थे। यह अलग बात है कि शरद पवार कह रहे है ऐसे टूट-फूट वे बहुत देख चुके है, फिर संगठन कर लेंगे। लेकिन हकीकत यह है कि पार्टी को फिर से खड़ा करने में उन्हें काफी समय लगेगा। इसके साथ महाराष्ट्र की सियासत में भी उन्हें तगड़ा झटका लगा है। महाराष्ट्र में लोकसभा की कुल 48 सीटें हैं। अगर एनसीपी बाहर निकल जाती है तो बीजेपी के लिए बड़ी राहत होगी। जबकि विपक्षी एकता को पलीता लगना तय हो गया है। इसके अलावा आप के केजरीवाल पहले ही कह चुके है कि वे अपनी दिल्ली मेरी कैसे छोड़ सकते है। नीतीश के सामने यक्ष प्रश्न यह है कि जिस जो लालटेन को उन्होंने खुद ही बझाया है, उसे जलायेंगे कैसे?
बता दें, पटना में विपक्षी एकता को लेकर हुई 15 दलों की बैठक में सवालों के घेरे में है। सबसे बड़ा सवाल तो यही है क्या 2024 लोकसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ विपक्षी एकजुटता एक प्रत्याशी उतारने में कामयाब हो पाएगा? क्योंकि 2014 से ही भाजपा या नरेंद्र मोदी के खिलाफ विपक्षी एकता के गाना तो गाएं जा रहे है, लेकिन नौ सालों में मुर्तरुप नहीं दे सके। खासकर तब जब ममता ने एकता का फार्मूला दिया है कि जहां जो दल मजबूत है उसे अन्य दल समर्थन करेंगे। जबकि देश में दस राज्य ऐसे है जहां एकजुटता में शामिल क्षेत्रीय पार्टियां एक-दूसरे के ही खिलाफ लड़ते हैं। विपक्षी एकता के सूत्रधार बने खुद नीतीश की राजनीति कांग्रेस और राजद विरोधी रही है। माना कि मोदी के आगे वजूद खत्म होने के भय से एकजुटता में शामिल हो भी गए तो इसे वोटर या समर्थक अपना पायेगा, यह बड़ा सवाल है। पश्चिम बंगाल में जो ममता बनर्जी वामपंथी दलों को हराकर सत्ता हथियाई है, वह कैसे कांग्रेस व वामदल को अपनायेंगी। हिंदुत्व की राह पर चलने वाली शिवसेना कांग्रेसी नीतियों को कैसे स्वीकार करेगी। खासकर तब जब उसने अभी से कांग्रेस के खिलाफ जाकर समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर बीजेपी का समर्थन किया है। वैसे भी नवीन पटनायक, चंद्रबाबू नायडू, मायावती, के चंद्रशेखर राव के बिना एकजुटता को कोई मतलब भी नहीं है।
पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस 421 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। 52 पर जीती, 209 सीटों पर दूसरे नंबर पर रही। ऐसे में ममता फार्मूला तो क्या कांग्रेस सिर्फ 261 सीटों पर चुनाव लड़ने को तैयार होगी? 17 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में कांग्रेस खाता भी नहीं खोल पाई थी। ऐसे में सवाल तो बना रहेगा कि कांग्रेस इन 17 राज्यों में विपक्षी फार्मूले को कैसे स्वीकार करेगी? विपक्षी एकता की सबसे बड़ी बाधा मोदी के सामने चेहरा घोषित करने को लेकर भी है। राहुल गांधी को पीएम पद का उम्मीदवार बनाने को लेकर कुछ दल सहमत नहीं है। बीपी सिंह, चंद्रशेखर, चौधरी चरण सिंह, देवगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल एक साल भी पीएम पद पर नहीं रह पाएं। केजरीवाल का कहना है कि दिल्ली पर 8 साल में आम आदमी पार्टी का कब्जा है। पिछले चुनाव में कांग्रेसी यहां लोकसभा और विधानसभा की एक भी सीट नहीं जीत पाई। दिल्ली और पंजाब के कार्यकर्ता कांग्रेस के साथ संबंध रखने के खिलाफ है। अधिकारों को लेकर केंद्र से लड़ाई में कांग्रेस हमेशा बाधक बना रहा।
नीतीश कुमार के भाजपा प्रेम को लेकर अनेक विपक्षी दल भी पहले से आशंकित है। राहुल की चिंता बड़े सूबे को लेकर है। क्योंकि विपक्षी एकता का फार्मूला अमल में लाया गया तो कांग्रेस को सबसे बड़ा झटका यूपी में लगेगा। पिछले चुनाव में कांग्रेस को 80 में से सिर्फ एक सीट मिली और दो पर दूसरे नंबर पर रही। ऐसे में चार बार यूपी से प्रधानमंत्री देने वाली कांग्रेस का समझौता करने से वजूद ही खत्म हो सकता है, क्योंकि उसे विपक्षी एक-दो सीट से ज्यादा देंगे नहीं। वामपंथियों की घूर विरोधी ममता वामपंथी दल के साथ मंच कैसे साझा करेंगी। यह सवल हर किसी के जुबान पर है। खासकर तब जब ममता व वामदल का टकराहट अभी हो रहा है। ऐसे में वह कितने सीटे वामदल को दे पायेंगी और यह सब उनके समर्थकों को कैसे गवारा होगा। बता दें कि, समान नागरिक अधिकार को लेकर देश में सियासी बयानबाजी जारी है। एक ओर कांग्रेस, जदयू, टीएमसी सहित कई विपक्षी दल लगातार न्ब्ब् का विरोध कर रहे हैं। ऐसे में आम आदमी पार्टी का यह बयान सभी विपक्षी के लिए जोरदार झटका है। बीते दिन पीएम नरेंद्र मोदी ने भी यूसीसी के समर्थन में लेकर बयान दिया था। जिसके बाद यूसीसी को लेकर बहस और तेज हो गई थी। वहीं अब आम आदमी पार्टी के समर्थन के बाद एक बार फिर देश में सियासी बयानबाजी तेज होने का कयाश लगाया जा रहा है।
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी
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