पक्ष और विपक्ष हमारे लोकतन्त्र के दो महत्वपूर्ण और अनिवार्य शब्द हैं।जो पक्ष सता का उपभोग कर रहा होता है यानी 'सत्ता-पक्ष' को हमेशा इस बात की चिंता लगी रहती है कि उसके नीचे से कोई जाजम न खिसका दे।उधर, विपक्ष सदैव इस फिराक में रहता है कि कैसे येन-केन-प्रकारेण वह पक्ष को बाहर का रास्ता दिखा दे और खुद सत्ता पर काबिज़ हो।इसी खेल में दोनों पक्ष पदयात्राएं,धरने-प्रदर्शन, खेल-तमाशें आदि करते रहते हैं।देखते-देखते पांच साल निकल जाते हैं और फिर दुबारा यह खेल शुरू हो जाता है। यों,विपक्ष का मतलब कभी भी एकजुटता नहीं होती, बल्कि बिखराव ही होता है।वैसे,ध्यान देने वाली बात यह भी है कि जहाँ विपक्ष असंगठित और बिखरा-बिखरा रहता है,वहां पक्ष प्रायः संघठित और एकजुट रहता है क्योंकि उसे सत्ता में रहना है और उसे हाथ से जाने नहीं देना है। जहाँ विपक्ष पक्ष की नाकामियों का जगह-जगह प्रचार करता फिरता है, वही पक्ष अपनी उपलब्धियों का बेतहाशा बखान करने से नहीं चूकता।इसके लिए उसके पास अपना मीडिया है जो संभवतः विपक्ष के पास नहीं है और अगर है भी तो उनता प्रभावशाली या व्यापक नहीं है।यों,एक मकसद के साथ विपक्षी दलों को एक जगह बिठाना कोई आसान काम नहीं हैं क्योंकि अलग-अलग मत और विचारधाराओं वाले दलों में संगति और सामंजस्य बिठाना असम्भव नहीं तो मुश्किल ज़रूर होता है।
देखा जाय तो सत्ता-पक्ष के साथ खड़े राजनीतिक दलों को भी एक-जुट रखने के लिए सत्ताधीशों को मशक्कत करनी पड़ती है।जाने कब कौन सी घड़ी मामूली सी नाराजगी को लेकर या फिर सत्ता में भागीदारी को लेकर कौन नेता कब खिसक जाय और दूसरी पार्टी का हाथ थाम ले। यही कारण है कि सत्ता में रहने के लिए या फिर सत्ता को प्राप्त करने के लिए इन दिनों पक्ष और विपक्ष में अच्छी खासी प्रदर्शिनियाँ लग रही हैं। चाहे वह पटना में लगी हो या फिर अभी बंगलौर में चल रही हो। जनता को जो दिखाया या समझाया जा रहा है, उसे उसको मन मारकर देखना या समझना पड़ रहा है।उसके कष्टों-परेशानियों की किसे चिंता है?इन ‘प्रदर्शिनियों’ में सम्मिलित होने वाले लगभग सभी सहभागी सुख-सुविधाओं में पले-बड़े ‘भद्रजन’ हैं।जनता के सुख-दुःख से उन्हें क्या लेना देना?
शिबन कृष्ण रैणा
११०३,दुर्गा पेटल्स,
सम्प्रति बंगलौर में.
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