पुस्तक समीक्षा : बाजारवाद में 'घिस रहा है धान का कटोरा' - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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रविवार, 20 अगस्त 2023

पुस्तक समीक्षा : बाजारवाद में 'घिस रहा है धान का कटोरा'

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नागार्जुन अपनी कविता 'सिके हुए दो भुट्टे' में लिखते हैं- "सिके हुए दो भुट्टे सामने आए तबीयत खिल गई, दाँतों की मौजूदगी का सुफल मिला तबीयत खिल गई" .. नागार्जुन की इस कविता का नायक- अखिलेश ने अपनी मेहनत से जिन पौधों को उगाया था, वार्ड नंबर दस के पीछे जेल की क्यारियों में। ढाई महीने पहले की अखिलेश की खेती इन दिनों अब जाने किस-किस को पहुँचा रही है सुख। बीसियों जने आज अखिलेश को दुआ दे रहे हैं। सिके हुए भुट्टों का स्वाद ले रहे हैं डिस्ट्रिक्ट जेल की चाहरदीवारियों के अंदर, नागार्जुन की इन पंक्तियों में जो वेदना छिपी है, वह वर्तमान व्यवस्था को बड़ी मुलायमियत से बेनकाब करती है। यह महज संयोग है कि किसानी संस्कृति पर अपनी बेबाक लेखन के लिए चर्चा में आये कवि लक्ष्मीकांत मुकुल द्वारा नव सृजित संग्रह 'घिस रहा है धान का कटोरा' वर्तमान हालात से दो-दो हाथ करने को उतारू हैं । संग्रह में समाहित कुल पचहत्तर कविताएं समय की कुव्यवस्था को न केवल आईना दिखलाती हैं, बल्कि बहुत कुछ सोचने को विवश भी करती हैं। ठेठ देशज व आंचलिक अंदाज की ये कविताएं बगैर किसी लाग-लपेट के पाठकों के जेहन को एक नए अहसास का आस्वादन कराती हैं। संग्रह में कृषि कर्म, ग्रामीण संस्कृति, हमारी परंपरा और पर्यावरण की चिंता इनकी कविताओं के केंद्र बिंदु रहे हैं, बहरहाल इनकी लेखनी की जद में अनेक ऐसे अछूते विषय भी हैं, जहां एक सधा हुए कवि ही पहुंच सकता है । विकासवाद के अंधी दौड़ में भागती दुनिया में जो पीछे छूट रहा है, उसकी नोटिस कवि बेहद मार्मिकता से करता हैं, जैसे- भलुआहीं मोड़ की फुलेसरी देवी के मन में/ बसी है छोटी लाइन/ वह बालविवाहिता दहेज दानवों से उत्पीड़ित/ खूंटा तोड़कर भागी थी घर से/ इसी रेलगाड़ी पर किसी ने दी थी उसे पनाह। कवि का मुख्य फोकस कृषि कर्म से जुड़े धरती पुत्र श्रमिकों पर रहा है, उनकी दशा का चित्रण बड़े ही सटीक ढंग से करते हुए वह कहता है  - कौन है वह शातिर चेहरा/ जो छीन रहा है जनता से/ कृषि योग्य भूमि का अधिकार/ सेज, हाइवे, बांधों रेलखंडों के नाम/ कौन बुला रहा है विदेशी कम्पनियों को/ कारपोरेट खेती करने, एग्रो प्रोसेसिंग इकाइयां बनाने के लिए/ हमारी छाती पर मूंग दलते हुए/ हाईब्रिड बीजों, केमिकल खादों, जहरीली दवाओं/ महँगे यंत्रों से कौन चीरहरण करना चाहता है, हमारी उर्वरता का ?


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कवि का मानना है कि बाजार व्यवस्था की पीठ पर पलथी मारे बैठे हैं जल्लाद, नए अवतार में नई चालबाजियां चलते हुए, हमारा ध्यान भटकते हुए नित्य नई युक्तियों से ! कवि लक्ष्मीकांत मुकुल शांत सहज प्रकृति के कवि हैं, उनकी चिंतन का दायरा समस्त ब्रह्मांड है, स्वभाविक है, पर्यावरण के प्रति उनका नजरिया भी संवेदनशील होगा, 'यह कैसा समय है' शीर्षक कविता में वे कहते हैं- यह कैसा समय है, जब कजरारी घटाएं भूल जाती हैं बरसने की जिम्मेदारी, वनस्पतियां भूल जाती है समयानुसार फूलना-फलना, मौसम बदल रहा है, ऋतु-चक्र का प्रत्यावर्तन, मौसमी हवाएं पल बदलकर, पश्चिमी विक्षोभ में हो रही है शामिल ! कवि ने अभी बीते कोरोना काल के दंश को देखा और भोगा है, जिसके ताण्डव से पूरी दुनिया कांप गयी थी, कवि मानता है कि - गहरी साजिशों के तहत/ वे शैतान उत्पन्न कर रहे हैं मनुष्यता के विरुद्ध जैविक औजार/ जिनके पास गुण नहीं होते, बांझ पपीते में लाने को फल/ जिनके जनमाये रोबोट नहीं बना सकते, मधुमक्खियों जैसे शहद बूंद/ उनके बनाए हाइड्रोजन बमों से बंजर हो चुकी मरुभूमियों पर, नहीं बरसाई जा सकती झमाझम बारिश, जिससे गदाराकर उभर आती, गर्भवती स्त्री सदृश्य इस धरती की काया ! सच में कोरोना काल की भयावहता के लिए शब्द तामिर नहीं हो सकते,  कवि अपनी सौभाविक मुलायमियत का परिचय देते हुए कहता है कि कोरोना जैसे दानव-दूतों के आगमन से रोकी जा रही है मिलने-जुलने की संभावनाएं, स्वजनों को छूने-चूमने पर लग गया है कर्फ़्यू !


समकालीन कविता में प्रेम और युद्ध की चर्चा वैश्विक स्तर पर होते रही है, जैसे इसके बगैर कोई संग्रह मुकम्मल नहीं हो सकता । 'घिस रहा है धान का कटोरा' में कवि ने इन विषयों पर गंभीरता से विमर्श किया है 'युद्ध' कविता की बानगी दीगर है- युद्ध की भाषा उन्मादी होती है, जिसमें शामिल होते हैं विध्वंसक तत्व, इमारतों को नष्ट करने, खड़ी फसलों को ख़ाक में मिलाने के लिए, दूधमुहें बच्चों को माँ की आँचल से दूर करने की साज़िश, चरवाहों को उनके पशुओं, किसानों को उनके खेतों से, बेदखल करने की सनक.. तानाशाह का दर्प अट्टहास करता है, युद्ध की भाषा की शैली में, दूसरों से छीन लेने की आजादी.., युद्ध थोपने वाला चाहता है, कि वह छीन ले मासूम बच्चों की हंसी, कामगारों के हाथों से कुदाल, नौजवानों के पास से सपनें, बूढ़ों के सहारे की छड़ी..! इस संग्रह में कवि ने प्रेम के लिए पर्याप्त स्पेस बचाए रखा है, कवि जानता है कि प्रेम से ही इस धरा पर सुख, शांति और संपन्नता का बीजारोपण हो सकता है और नकारात्मकता को खदेड़ा जा सकता है। प्रेम के अपने अहसास को कवि शब्दों में व्यक्त करते हुए लिखता है कि- मदार के उजले फूलों की तरह, तुम आयी हो कूड़ेदान भरे मेरे इस जीवन में, तितलियों, भौरों जैसा उमड़ता, सूंघता रहता हूँ तुम्हारी त्वचा से उठती गंध, तुम्हारे स्पर्श से उभरती चाहतों की कोमलता, तुम्हारी पनीली आंखों में छाया पोखरे का फैलाव..! कवि ने अपने कविता कर्म में तनिक भी कोताही नहीं की है। कवि की सक्रियता देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में उनके लेखन से भी की जा सकती है, अनेक भाषाओं में अनुदित इनकी कविताएं बिहार के बक्सर जनपद से उठकर विश्व पटल पर अपनी खुशबू बिखेर रही है ! कवि के लिए साधुवाद व स्वस्थ जीवन की मंगलकामनाएं करता हूँ  ।





पुस्तक: घिस रहा है धान का कटोरा (कविता संग्रह)

लेखक : लक्ष्मीकांत मुकुल

प्रकाशन : सृजनलोक प्रकाशन, बी-1,दुग्गल कॉलनी, खानपुर, नई दिल्ली- 110062.

मूल्य: 299 ₹

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समीक्षक: अरविन्द श्रीवास्तव,

मधेपुरा, बिहार

मोबाइल- 9431080862.

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