भारतीय दर्शन परंपरा में श्रीराम और श्रीकृष्ण के ईश्वरीय रुप दो किनारों पर हैं। एक ओर श्रीराम हैं, जो साधन की पवित्रता पर यकीन करते हैं। यानी लक्ष्य हासिल करने के लिए अपनाया गया रास्ता सही होना चाहिए, चाहे अंतिम परिणाम कुछ भी हो। वहीं श्रीकृष्ण लक्ष्य को ज्यादा तरजीह देते हैं। मौजूदा दौर में यह ज्यादा व्यावहारिक भी है। दिलचस्प यह है कि लक्ष्य हासिल करने में रास्ते चयन की नैतिक बाधाओं को श्रीकृष्ण अपने अकाट्य तर्को से नेस्तनाबूद कर देते हैं। यही वजह हैं कि भारतीय मिथकीय पात्रों में श्रीकृष्ण सर्वाधिक अपने से प्रतीत होने वाले देवता या नायक माने जाते है। श्रीकृष्ण अकेले ऐसे अवतार हैं, जो पूरे देश में पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण सब जगह समान रुप से पूज्य हैं। यह प्रतिष्ठा भारतीय मिथकीय पात्रों में से किसी को नहीं मिली। कहा जा सकता है बाकी के सभी अवतारों में एक अभिजात्य मर्यादा है। उनके साथ इतने किन्तु-परन्तु हैं कि आमजन उनके समीप जाने से डरता है, पर श्रीकृष्ण सबके लिए हैं और सबके हैं। इसीलिए लोग श्रीकृष्ण के साथ जुड़ता हैश्रीकृष्ण अवतार भगवान विष्णु का पूर्णावतार है। ये रूप जहां धर्म और न्याय का सूचक है वहीं इसमें अपार प्रेम भी है। वे भगवान श्रीकृष्ण ही थे, जिन्होंने अर्जुन को कायरता से वीरता, विषाद से प्रसाद की ओर जाने का दिव्य संदेश श्रीमदभगवदगीता के माध्यम से दिया। तो कालिया नाग के फन पर नृत्य किया, विदुराणी का साग खाया और गोवर्धन पर्वत को उठाकर गिरिधारी कहलाये। समय पड़ने पर उन्होंने दुर्योधन की जंघा पर भीम से प्रहार करवाया, शिशुपाल की गालियां सुनी, पर क्रोध आने पर सुदर्शन चक्र भी उठाया। और अर्जुन के सारथी बनकर उन्होंने पाण्डवों को महाभारत के संग्राम में जीत दिलवायी। सोलह कलाओं से पूर्ण वह भगवान श्रीकृष्ण ही थे, जिन्होंने मित्र धर्म के निर्वाह के लिए गरीब सुदामा के पोटली के कच्चे चावलों को खाया और बदले में उन्हें राज्य दिया। इन्हीं वजहों से श्रीकृष्ण को संपूर्ण अवतार माना जाता है। संपूर्ण कभी गलत नहीं हो सकता न कर सकता है, क्योंकि उसके बाहर है क्या जो उसकी समीक्षा करे? इसीलिए संपूर्ण में अच्छा-बुरा, सृजन-विध्वंस और धर्म-अधर्म सबकुछ शामिल होता है। कृष्ण का चरित्र भी ऐसा ही है। मतलब साफ है संपूर्ण को संपूर्ण ही समझ सकता है और स्वीकार कर सकता है। हममें से कोई संपूर्ण नहीं है, जो कृष्ण गाथा के मर्म तक पहुंच सके। हम तो अपना-अपना कृष्ण ही चुन सकते हैं। असल में लोगों ने ऐसा ही किया है। श्री कृष्णा योगेश्वर हैं। निर्मुक्त भाव से भागेश्वर भी हैं। अर्जुन और सुदामा दोनों उनके मित्र हैं। अर्जुन से वह युद्ध करने की बात कहते हैं और सुदामा से भक्ति की, अर्थात जिसकी जो योग्यता जिस क्षेत्र में हो उस क्षेत्र का वह कर्मयोगी बने। मतलब साफ है इस सत्ता के संघर्ष से बाहर आने और विनम्र होने के लिए हमें कृष्ण के साथ एक प्रेमपूर्ण संबंध अर्थात भक्ति विकसित करने की आवश्यकता है। क्योंकि केवल दिन और विनम्र ही भगवान की कृपा प्राप्त करते हैं। भारत अनंत शक्ति का स्रोत है। यहां के 65 करोड़ युवाओं में बहुतेरे में ज्यादातर शक्तियां सोई हुई हैं। सोने का अंतिम रात्रि प्रहर भी आ गया है और शक्तियों का अब भी जागरण नहीं हो पा रहा है। आज यह श्री कृष्ण जन्मोत्सव फिर उन्हीं सुषुप्त शक्तियों के जागरण का पर्व है। वह भारत को महाभारत बनाने का घोर निनाद कर रहा है। अर्जुन रूपी युवा शक्ति जो अभी अवसाद ग्रस्त है उसके ऊपर जो तमस है, उसे हटाना होगा और श्री कृष्ण के जीवन चरित्र का जो अहर्निश कर्म वाद्य बज रहा है उसे और जोर से बजाना होगा। आज इस पवित्र पावन पर्व पर युवाओं के लिए नवनिर्माण की जिम्मेदारी स्वीकार करने के अतिरिक्त और कोई मार्ग शेष नहीं हैं। हमें भी अपने जीवन को शक्तिशील और सृजनात्मक बनाने के लिए दुर्बलता नहीं दिखाने हैं बल्कि श्रीकृष्ण की शिक्षाओं से हाथ में अर्जुन की तरह कुदाली, बाण लेकर तब तक खोदना है जब तक की हमारी पूर्णता का जलस्रोत न मिल जाएं।
मुश्किल घड़ी में साथ होते हैं उनके आदर्श
श्री कृष्ण व्यक्ति नहीं वरन सद्प्रवृत्तियों के आदर्श के रूप में हमारे सम्मुख हैं। हर विपरीत घड़ी में उनके आदर्श हमारे सामने होते हैं। महाभारत के युद्ध में जीत का श्रेय उन्होंने अर्जुन और भीम को दिया तो प्रत्येक स्त्री को उसके प्रत्यक्ष या परोक्ष सहयोग का श्रेय देने से भी वे नहीं चूके। जबकि इस पूरे युद्ध के महानायक श्रीकृष्ण ही थे। अपने मित्र सुदामा के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाए बिना ही उन्होंने उसके मन की बात जान ली थी। वे प्रमाण के साथ दूसरों को सबक भी सिखा देते थे। जब बहन सुभद्रा ने द्रौपदी के प्रति उनके विशेष लगाव की बात की तो बात के पीछे छिपे ईर्ष्याभाव की गहराई को वे समझ गए और उसी वक्त उन्होंने सुभद्रा को सीख देने का विचार कर लिया था। एक मौके पर सुभद्रा और द्रौपदी की मौजूदगी में श्रीकृष्ण की उंगली में छोटा-सा घाव हो गया तो पट्टी के लिए कपड़े का टुकडा तलाशते सुभद्रा इधर-उधर देखने लगी जबकि द्रौपदी ने पलभर का विलंब किए बगैर पहनी हुई बेशकीमती साड़ी का पल्लू फाड़ घाव पर बांध दिया। इसी के वशीभूत होकर श्रीकृष्ण ने भरी सभा में द्रौपदी की लाज बचाई। कृष्ण बहुत थोड़े से प्रेम में बंध जाते हैं। श्रीकृष्ण ने भगवदगीता में भगवत प्राप्ति के तीन योग बताए हैं कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग। इनमें भक्तियोग उन्हें सर्वाधिक प्रिय है। जो उन तक पहुंचने का सबसे सरल मार्ग है। श्रीकृष्ण कह गए हैं, कलयुग में जो भी व्यक्ति माता-पिता को ईश्वर मान सेवा करेगा मुझे सबसे प्रिय होगा। कर्मयोग और भक्तियोग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भक्ति मन की वह सरल अवस्था है जो व्यक्ति की आत्मा को आश्वस्त करती है कि परमात्मा और आत्मा एक है।आकर्षक था श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व
श्रीकृष्ण में तथा अन्य किशोरों में यही तो अंतर है कि उनकी काया सतोप्रधान तत्वों की बनी हुई थी, वे पूर्ण पवित्र संस्कारों वाले थे और उनका जन्म काम-वासना के भोग से नहीं हुआ था। मीराबाई ने तो श्रीकृष्ण की भक्ति के कारण आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया। इस बात में कोई दो राय नहीं हैं की श्रीकृष्ण भारतीयों के रोम-रोम में बसे हुये हैं, और इसीलिए ही उनके जन्मोत्सव अर्थात ‘जन्माष्टमी‘ को भारत के हर नगर में बहुत ही उत्साह और उल्लास के साथ मनाया जाता है। श्रीकृष्ण सभी को इसलिए इतने प्रिय लगते हैं क्योंकि उनकी सतोगुणी काया, सौम्य चितवन, हर्षित मुखत और उनका शीतल स्वभाव सबके मन को मोहने वाला है और इसीलिए ही उनके जन्म, किशोरावस्था और बाद के भी सारे जीवन को लोग दैवी जीवन मानते हैं। परंतु फिर भी श्रीकृष्ण के जीवन में जो मुख्य विशेषतायें थीं और जो अनोखे प्रकार की महानता थी उसको लोग आज यथार्थ रूप में और स्पष्ट रीति से नहीं जानते। उदाहरण के तौर पर वे यह नहीं जानते कि श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व इतना आकर्षक क्यों था और वे पूज्य श्रेणी में क्यों गिने जाते हैं? एक बार फिर, उन्हें यह भी ज्ञात नहीं है कि श्रीकृष्ण ने उस उत्तम पदवी को किस उत्तम पुरूषार्थ से पाया। अतः जब तक हम उन रहस्यों को पुर्णतः जानेंगे नहीं, तब तक श्रीकृष्ण दर्शन जैसे हमारे लिए अधुरा ही रह जायेगा। अमूमन किसी नगर या देश की जनता जन्मदिन उसी व्यक्ति का मनाती की जिनके जीवन में कुछ महानता रही हो। परंतु आप देखेंगे कि महान व्यक्ति भी दो प्रकार के हुए हैं। एक तो वे जिनका जीवन जन-साधारण से काफी उच्च तो था परंतु फिर भी उनकी मनसा पूर्ण अविकारी नहीं थी, उनके संस्कार पूर्ण पवित्र न थे, वे विकर्माजीत भी नहीं थे और उनकी काया सतोप्रधान तत्वों की बनी हुई नहीं थी। अब दूसरे प्रकार के महान व्यक्ति वे हैं जो पूर्ण निर्विकारी थे। जिनके संस्कार सतोप्रधान थे और जिनका जन्म भी पवित्र एवं धन्य था अर्थात कामवासना के परिणामस्वरूप नहीं अपितु योगबल से हुआ था। श्रीकृष्ण और श्रीराम ऐसे ही पूजन योग्य व्यक्ति थे। यहां ध्यान देने के योग्य बात यह है कि पहली प्रकार के व्यक्तियों के जीवन बाल्यकाल से ही गायन या पूजने के योग्य नहीं होते बल्कि वे बाद में कोई उच्च कार्य करते हैं जिसके कारण देशवासी या नगरवासी उनका जन्मदिन मनाते हैं। परंतु श्रीकृष्ण तथा श्रीराम जैसे आदि देवता तो बाल्यावस्था से ही महात्मा थे। वे कोई संन्यास करने या शिक्षा-दीक्षा लेने के बाद पूजने के योग्य नहीं बने और इसीलिए ही उनके बाल्यावस्था के चित्रों में भी उनको प्रभामण्डल से सुशोभित दिखाया जाता है जबकि अन्यान्य महात्मा लोगों को संन्यास करने के पश्चात अथवा किसी विशेष कर्तव्य के पश्चात ही प्रभामण्डल दिया जाता है। यही वजह हैं की श्रीकृष्ण की किशोरावस्था को भी मातायें बहुत याद करती हैं और ईश्वर से मन ही मन यही प्रार्थना करती हैं कि यदि हमें बच्चा हो तो श्रीकृष्ण जैसा। श्रीकृष्ण में तथा अन्य किशोरों में यही तो अंतर है कि उनकी काया सतोप्रधान तत्वों की बनी हुई थी, वे पूर्ण पवित्र संस्कारों वाले थे और उनका जन्म योगबल द्वारा हुआ था और उनका जन्म काम-वासना के भोग से नहीं हुआ था। मीराबाई ने तो श्रीकृष्ण की भक्ति के कारण आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया और इसके लिए विष का प्याला भी पीना सहर्ष स्वीकार कर लिया। जबकि श्रीकृष्ण की भक्ति के लिए, उनका क्षणिक साक्षात्कार मात्र करने के लिए और उनसे कुछ मिनट रास रचाने के लिए भी काम-विकार का पूर्ण बहिष्कार जरूरी है।मुहूर्त
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का हिंदू धर्म में अत्याधिक महत्व है. यह भाद्रपद माह के आठवें दिन होता है जब चंद्रमा अस्त हो रहा होता है और रोहिणी नक्षत्र चमक रहा होता है. कृष्ण जन्माष्टमी पर, जिसे गोकुलाष्टमी के नाम से भी जाना जाता है, भक्त भगवान कृष्ण को नए कपड़े पहनाते हैं और आभूषणों से सजाते हैं. इस दिन कान्हा की मूर्ति को पालने में रखकर सजाया जाता है. कहा जाता है कि इसी दिन रात्रि 12 बजे भगवान कृष्ण का जन्म हुआ था. प्रभु कृष्ण विष्णु जी के आठवें अवतार माने जाते हैं. जन्माष्टमी के दिन मंदिर से लेकर हर घर में कृष्ण जन्म और पूजा की खास तैयारी की जाती है. रात्रि के के समय विधि-विधान के साथ उनकी पूजा-अर्चना कर जन्म करवाया जाता है. इस दिन मथुरा-वृंदावन में श्री कृष्ण जन्माष्टमी की खास रौनक देखी जाती है. पूरा देश इस दिन हर्ष और उल्लास के साथकृष्ण भक्ति में डूब जाता है और भगवान कृष्ण के बाल रुप की पूजा की जाती है. इस साल श्रीकृष्ण जन्माष्टमी 6 सितंबर, बुधवार के दिन मनाई जाएगी. इस दिन व्रत रखने का विधान है. रात को 12 बजे के बाद कृष्ण जन्मोत्सव के बाद व्रत का पारण उनकी पूजा-अर्चाना के बाद किया जाता है. मान्याता है इस दिन पूजा-पाठ करने शुभ फल की प्राप्ति होती है. कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि की शुरुआत 6 सितंबर को दोपहर 03 :37 मिनट से होगी. समापन 7 सितंबर शाम 04 :14 मिनट पर होगा. पूजा मुहूर्त 6 सितंबर, बुधवार रात 11ः 57 मिनट से 12ः42 मिनट तक है. व्रत का पारण 7 सितंबर 6ः 02 मिनट या शाम 4ः14 मिनट के बाद करें।जहां धर्म और न्याय वहीं श्रीकृष्ण
वृंदावनवासियों को कृष्ण का बाल रूप और गोपी प्रसंग ज्यादा पसंद है। चौतन्य महाप्रभु को कृष्ण का ईश्वरीय संस्करण ज्यादा नजर आता था। वहां सूफी तत्व ज्यादा दिखाई पड़ता है। गांधी जी ने गीता के निष्काम कर्म योग को अपनाने की कोशिश की। और-और लोगों ने कृष्ण को और-और दृष्टि से देखा होगा। कह सकते हैं हर आदमी के भीतर कृष्ण का कोई-न-कोई पहलू मौजूद है। उन्हीं परमदयालु प्रभु के जन्म उत्सव को जन्माष्टमी के रूप में मनाया जाता है। पौराणिक ग्रंथों के मतानुसार श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र में मध्यरात्रि के समय हुआ था। अतः भाद्रपद मास में आने वाली कृष्ण पक्ष की अष्टमी को यदि रोहिणी नक्षत्र का भी संयोग हो तो वह और भी भाग्यशाली माना जाता है। इसे जन्माष्टमी के साथ साथ जयंती के रूप में भी मनाया जाता है। जन्माष्टमी के महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसके व्रत को ‘व्रतराज‘ कहा जाता है। मान्यता है कि इस एक दिन व्रत रखने से कई व्रतों का फल मिल जाता है। अगर भक्त पालने में भगवान को झुला दें, तो उनकी सारी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं। संतान, आयु और समृद्धि की प्राप्ति होती है। धर्म शास्त्रों के अनुसार इस दिन जो भी व्रत रखता है उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है और वह मोह-माया के जाल के मुक्त हो जाता है। यदि यह व्रत किसी विशेष कामना के लिए किया जाए तो वह कामना भी शीघ्र ही पूरी हो जाती है। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी आपका आत्मिक सुख जगाने का, आध्यात्मिक बल जगाने का पर्व है। जीव को श्रीकृष्ण-तत्त्व में सराबोर करने का त्यौहार है। श्रीकृष्ण का जीवन सर्वांगसंपूर्ण जीवन है। उनकी हर लीला कुछ नयी प्रेरणा देने वाली है।उनकी हर घटना, हर लीला निराली
वैसे भी श्रीकृष्ण अवतार से जुड़ी हर घटना और उनकी हर लीला निराली है। श्रीकृष्ण के मोहक रूप का वर्णक कई धार्मिक ग्रंथों में किया गया है। सिर पर मुकुट, मुकुट में मोर पंख, पीतांबर, बांसुरी और वैजयंती की माला। ऐसे अद्भूत रूप को जो एकबार देख लेता था, वो उसी का दास बनकर रह जाता था। श्रीकृष्ण को दूध, दही और माखन बहुत प्रिय था। इसके अलावा भी उन्हें गीत-संगीत, राजनीति, प्रेम, दोस्ती व समाजसेवा से विशेष लगाव था। जो आज हमारे लिए प्रेरणाश्रोत और सबक भी है। उनकी बांसुरी के स्वरलहरियों का ही कमाल था कि वे किसी को भी मदहोश करने की क्षमता रखते थे। उन्होंने कहा भी है, अगर जिंदगी में संगीत नहीं तो आप सुनेपन से बच नहीं सकते। संगीत जीवन की उलझनों और काम के बोझ के बीच वह खुबसूरत लय है जो हमेसा आपको प्रकृति के करीब रखती है। आज के दौर में कर्कश आवाजें ज्यादा है। ऐसे में खुबसूरत ध्वनियों की एक सिंफनी आपकी सबसे बड़ी जरुरत हैं। जहां तक राजनीति का सवाल है श्रीकृष्ण ने किशोरावस्था में मथुरा आने के बाद अपना पूरा जीवन राजनीतिक हालात सुधारने में लगाया। वे कभी खुद राजा नहीं बने, लेकिन उन्होंने तत्कालीन विश्व राजनीति पर अपना प्रभाव डाला। मिथकीय इतिहास इस बात का गवाह है कि उन्होंने द्वारका में भी खुद सीधे शासन नहीं किया। उनका मानना था कि अपनी भूमिका खुद निर्धारित करो और हालात के मुताबिक कार्रवाई तय करो। महाभारत युद्ध में दर्शक रहते हुए भी वे खुद हर रणनीति बनाते और आगे कार्रवाई तय करते थे। जबकि आज पदो ंके पीछे भागने की दौड़ में राजनीति अपने मूल उद्देश्य को भूल रही है। ऐसे में श्रीकृष्ण की राजनीतिक शिक्षा हमें रोशनी देती हैं।आजीवन रहे युवा
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार श्रीकृष्ण 119 वर्ष की आयु तक जीवित रहे। दिलचस्प बात यह है कि कृष्ण 119 वर्ष में भी युवा ही दिखते थे। भगवान के युवा दिखाई देने का रहस्य उनके जन्म से लेकर विष्णुलोक जाने के क्रम में छिपा हुआ है। दरअसल कान्हा का जन्म मथुरा में हुआ। लालन-पालन और बचपन गोकुल, वृंदावन, नंदगांव, बरसाना में बीता। जब वह किशोर हुए तो मथुरा पहुंचे। वहां उन्होंने अपने क्रूर मामा कंस का वध किया। और फिर वह द्वारिका में रहने लगे। किंवदंती है कि सोमनाथ मंदिर के नजदीक ही उन्होंने अपनी देह त्यागी थी। उनकी मृत्यु एक बहेलिया के तीर लगने के कारण हुई थी। हुआ यूं था कि बहेलिया ने उनके पैर को हिरण का सिर समझ तीर चलाया और तीर सीधा उनके पैर के तलुए में जा लगा। इस तरह उन्होंने अपनी देह त्याग दी। पौराणिक ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि जब श्रीकृष्ण विष्णु लोक पहुंच गए तब उनके मानवीय शरीर पर न तो झुर्रियां पड़ीं थीं और न ही उनके केश सफेद हुए थे। वह 119 उम्र में भी एक युवा की तरह ही दिखाई देते थे।पशु-पक्षियों से लगाव, तो समाजसेवा में भी आगे
वृंदावन में गोपियों के साथ रास रचाने वाले श्रीकृष्ण को पशुओं और प्रकृति से बेहद लगाव था। उनका बचपन गायों और गांवों के जीवों के इर्द-गिर्द बीता, लेकिन जब मौका आया तो उन्होंने अपने नगर के लिए समुद्र के करीब का इलाके को चुना। जहां पहाड़, पशु, पेड़, नदी-समुद्र कृष्ण की पूरी कहानी का जरुरी हिस्सा हैं। यानी श्रीकृष्ण ने जिसे चाहा टूटकर चाहा और अपने प्रिय के लिए वे किसी भी हद से गुजरे। साथ ही अपने काम को भी नहीं भूले। वे अपने सबसे प्रिय लोगों को किशोवय में छोड़कर मथुरा आएं, काम की खातिर। कहा जा सकता है प्रेम और काम के बीच उलझे आज के दौर में श्रीकृष्ण वह राह सुझाते हैं जहां दोनों के बीच तार्किक संतुलन हैं। बतौर दोस्त श्रीकृष्ण के दो रुप दिखाई देते हैं। एक सुदामा के दोस्त है, दुसरे अर्जुन के। तत्कालीन परिस्थितियों में उन्हें अर्जुन जैसे दोस्त की दरकार थी, लेकिन वे सुदामा के प्रति अपनी जिम्मेदारी को भी नहीं भूलते। यह श्रीकृष्ण की देस्ती का फलसफा हैं। मतलब साफ है दोस्त को जरुरत से ज्यादा खुद पर निर्भर मत बनाओं। अर्जुन को कृष्ण लड़ने लायक बनाते है, उसके लिए खुद नहीं लड़ते। सुदामा को भी आर्थिक मदद ही करते हैं। यानी दोस्ती की छीजती सलाहियत के बीच कृष्ण दोस्त की पहचान पर जोर देते हैं। समाजसेवा के लिए श्रीकृष्ण किसी काम को छोटा नहीं समझते। अगर अर्जुन के सारथी बने तो चरवाहा या यूं कहे ग्वाला भी बनें। सुदामा के पैर धोए तो युधिष्ठिर से धुलवाया, तो उनकी पत्तल भी उठाएं। कर्म प्रधानता का पूरा शास्त्र गीता इसका बड़ा उदाहरण है। यानी काम करो, बस काम, जो भी सामने हो, जैसा भी हो। या यूं कहे कृष्ण अकर्मण्यता के खिलाफ थे। मतलब साफ है शार्टकट और पहले परिणाम जानने की दौर में श्रीकृष्ण के मार्ग ज्यादा अहम् हो जाते हैं। वे परिणाम से ज्यादा कर्म को तवज्जों देते हैं। जन्माष्टमी के मौके पर जब कोई भी भक्त उनके आदर्शो या बताएं मार्गो का अनुशरण करता है या उनकी सच्चे दिल से प्रार्थना करता है, बाल-गोपाल कन्हैया उसकी इच्छा जरूर पूरी करते हैं।
गरम दूध कृष्ण ने पीया और छाले पड़े राधा को
एक दिन रुक्मणी ने भोजन के बाद, श्री कृष्ण को दूध पीने को दिया। दूध ज्यादा गरम होने के कारण श्री कृष्ण के हृदय में लगा और उनके श्रीमुख से निकला- ‘हे राधे!‘ सुनते ही रुक्मणी बोलीं- प्रभु! ऐसा क्या है राधा जी में, जो आपकी हर सांस पर उनका ही नाम होता है? मैं भी तो आपसे अपार प्रेम करती हूं... फिर भी, आप हमें नहीं पुकारते!! श्री कृष्ण ने कहा -देवी! आप कभी राधा से मिली हैं? और मंद मंद मुस्काने लगे...अगले दिन रुक्मणी राधाजी से मिलने उनके महल में पहुंचीं। राधाजी के कक्ष के बाहर अत्यंत खूबसूरत स्त्री को देखा... और, उनके मुख पर तेज होने कारण उसने सोचा कि ये ही राधाजी हैं और उनके चरण छुने लगीं! तभी वो बोली -आप कौन हैं ? तब रुक्मणी ने अपना परिचय दिया और आने का कारण बताया...तब वो बोली- मैं तो राधा जी की दासी हूं। राधाजी तो सात द्वार के बाद आपको मिलेंगी। रुक्मणी ने सातों द्वार पार किये... और, हर द्वार पर एक से एक सुन्दर और तेजवान दासी को देख सोच रही थी कि अगर उनकी दासियां इतनी रूपवान हैं... तो, राधारानी स्वयं कैसी होंगी? सोचते हुए राधाजी के कक्ष में पहुंचीं... कक्ष में राधा जी को देखा- अत्यंत रूपवान तेजस्वी जिसका मुख सूर्य से भी तेज चमक रहा था। रुक्मणी सहसा ही उनके चरणों में गिर पड़ीं... पर, ये क्या राधा जी के पूरे शरीर पर तो छाले पड़े हुए हैं! रुक्मणी ने पूछा- देवी आपके शरीर पे ये छाले कैसे? तब राधा जी ने कहा- देवी! कल आपने कृष्णजी को जो दूध दिया... वो ज्यादा गरम था! जिससे उनके ह््रदय पर छाले पड गए... और, उनके ह््रदय में तो सदैव मेरा ही वास होता है..!!
श्रीकृष्ण के शरीर का नीला रंग
श्रीकृष्ण के शरीर का रंग आसमान के रंग की तरह था। जिसे हम श्याम रंग भी कहते हैं। यह रंग काला, नीला और सफेद रंग का मिश्रिण होता है। जब श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था तब उनके शरीर का रंग सामान्य मनुष्य की तरह ही था। कहते है जब श्रीकृष्ण बचपन में अपने ग्वाल सखाओं के साथ नदी किनारे गेंद से खेल रहे थे। तभी उनकी गेंद नदी में जा गिरी। गेंद को नदी से निकालने के लिए उन्होंने नदी में गए। उस नदी में कालिया नाग रहता था जिसके विष के प्रभाव से उनके शरीर का रंग श्याम हो गया था। जबकि कुछ लोग का मत है कि पूतना द्वारा बाल रूप में जब श्रीकृष्ण को स्तनपान करा रही थी उस वक्त विष पान करने से उनके शरीर का रंग श्याम वर्ण का हो गया था।
श्रीकृष्ण को पाने की सरल राह है भक्ति
राम जहां जीवन का आदर्श हमारे सामने उपस्थित करते हैं तो श्रीकृष्ण की लीलाएं भारतीय जनमानस को अपनी ओर खींचती है। यही वजह है कि प्रत्येक भारतीय के मन में श्रीकृष्ण हैं। इस देश में ऐसा एक भी राज्य नहीं होगा जहां श्रीकृष्ण का मंदिर न हो। कीर्ति, लक्ष्मी, उदारता, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य ये छः उच्च गुण जिनमें निवास करते हैं ऐसे हैं योगेश्वर श्रीकृष्ण। यही वजह है कि श्रीकृष्ण भारतीयों के मन में बसते हैं। वे सर्वाधिक आकर्षित करने वाले भगवान हैं। योगेश्वर रूप में वे जीवन का दर्शन देते हैं तो बाल रूप में रची उनकी लीलाएं भक्तों के मन को लुभाती है। अपने विभिन्न रूपों में वे भक्तों का मार्गदर्शन करते हैं। श्रीकृष्ण भगवान विष्णु के आठवें अवतार माने जाते हैं। यह भगवान विष्णु का सोलह कलाओं से पूर्ण भव्यतम अवतार है। भगवान विष्णु के दस अवतारों में श्रीराम सातवें थे और श्रीकृष्ण आठवें। भारतीय जनमानस को उत्सवप्रिय श्रीकृष्ण अपने ज्यादा निकट प्रतीत होते हैं। कृष्ण यानी आकर्षण। वे जनमानस को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। श्रीकृष्ण भक्ति पर रीझते हैं और भक्तों को संतुष्टि प्रदान करते हैं। भगवदगीता में भगवत प्राप्ति के तीन योग बताए हैं कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग। इनमें भक्तियोग श्रीकृष्ण को सर्वाधिक प्रिय है। उन तक पहुंचने का यह सबसे सरल मार्ग है। श्रीकृष्ण कह गए हैं, कलयुग में जो भी व्यक्ति माता-पिता को ईश्वर मान सेवा करेगा मुझे सबसे प्रिय होगा। कर्मयोग और भक्तियोग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भक्ति मन की वह सरल अवस्था है। यह व्यक्ति की आत्मा को आश्वस्त करती है कि परमात्मा और आत्मा एक है।
मार्शल आर्ट के जन्मदाता थे श्रीकृष्ण
मार्शल आर्ट युद्ध कला है। कहते हैं कि इसका प्रयोग सर्वप्रथम भगवान श्रीकृष्ण ने किया था। कई पौराणिक ग्रंथों में इस बात की जानकारी मिलती है, लेकिन कई पौराणिक ग्रंथ में यह भी उल्लेख मिलता है कि मार्शल आर्ट की आरंभ कलरीपायट्टु नाम से भगवान परशुराम द्वारा किया गया था। कलरीपायट्टु शस्त्र विद्या है जिसे आज के युग में मार्शल आर्ट के नाम से जाना जाता है। कलरीपायट्टु दुनिया का सबसे पुराना मार्शल आर्ट है और इसे सभी तरह के मार्शल आर्ट का जनक भी कहा जाता है। इस विद्या के माध्यम से ही श्रीकृष्ण ने चाणूर और मुष्टिक जैसे दैत्य मल्लों का वध किया था तब उनकी उम्र 16 वर्ष की थी। मथुरा में दुष्ट रजक के सिर को हथेली के प्रहार से काट दिया था। मान्यताओं के अनुसार श्रीकृष्ण ने मार्शल आर्ट का विकास ब्रज क्षेत्र के वनों में किया था। डांडिया रास उसी का एक नृत्य रूप है। कालारिपयट्टू विद्या के प्रथम आचार्य श्रीकृष्ण को ही माना जाता है। हालांकि इसके बाद इस विद्या को अगस्त्य मुनि ने प्रचारित किया था। इस विद्या के कारण ही ‘नारायणी सेना‘( नारायणी सेना यानी नारायण श्रीकृष्ण की सेना। द्वापरयुग में जब दुर्योधन और अर्जुन दोनों श्रीकृष्ण से सहायता मांगने गए, तो श्रीकृष्ण ने दुर्योधन को पहला अवसर प्रदान किया। श्रीकृष्ण ने कहा कि वह उसमें और उसकी सेना नारायणी सेना में एक चुन लें। दुर्योधन ने नारायणी सेना का चुनाव किया। अर्जुन ने श्रीकृष्ण का चुनाव किया था। इसे चतुरंगिनी सेना भी कहते हैं।) उस समय यह सबसे प्रहारक सेना मानी जाती थी। श्रीकृष्ण ने ही कलारिपट्टू की नींव रखी, जो बाद में बोधिधर्मन से होते हुए आधुनिक मार्शल आर्ट में विकसित हुई। बोधिधर्मन के कारण ही यह विद्या चीन, जापान आदि बौद्ध देशों में पहुंची। वर्तमान में कलरीपायट्टु विद्या विद्या केरल और कर्नाटक में प्रचलित है।
सबसे प्रिय रहे अर्जुन
भक्तियोग में अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा, श्जो भक्त आपके प्रेम में डूब रहकर आपके सगुण रूप की पूजा करते हैं वे आपको प्रिय हैं या फिर जो आपके शाश्वत, अविनाशी और निराकार रूप की पूजा करते हैं वे? दोनों में से कौन श्रेष्ठ हैं? श्रीकृष्ण बोले, श्जो लोग मुझमें अपने मन को एकाग्र करके निरंतर मेरी पूजा और भक्ति करते हैं तथा खुद को मुझे समर्पित कर देते हैं वे मेरे परम भक्त होते हैं। जो मन-बुद्धि से परे सर्वव्यापी, निराकार की आराधना करते हैं वे भी मुझे प्राप्त कर लेते हैं। मगर जो भक्त मेरे निराकार स्वरूप पर आसक्त होते हैं, उन्हें बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ता है क्योंकि सशरीर जीव के लिए उस रास्ते पर चलना बहुत कठिन है। मगर हे अर्जुन, जो भक्त पूरे विश्वास के साथ अपने मन को मुझमें लगाते हैं और मेरी भक्ति में लीन रहते हैं उन्हें मैं जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त कर देता हूं।
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी
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