लेकिन पर्वतीय क्षेत्रों में आज भी महिलाओं के साथ अलग सा व्यवहार किया जाता है. भले ही वह दिखाई कम देता है पर महिलाएं आज भी लैंगिक असमानता के दर्द को किसी न किसी रूप में झेल रही हैं. आज भी महिलाएं घरों के काम तक सीमित हैं. नौकरी पेशा करने वालों की संख्या ना के बराबर होती है. आज भी लड़कियों को शिक्षा, शादी के लिए परिवार के निर्णयों के सामने झुकना ही पड़ता है. मैदानी क्षेत्रों में महिला शिक्षित होकर अपने अधिकारों के लिए प्रयासरत हो रही है लेकिन पर्वतीय क्षेत्रों में इण्टर के बाद अधिकांश लड़कियों की शादी हो जाती है जिससे वह उच्च शिक्षा से वंचित हो अपने अधिकार को समझ भी नहीं पाती है. महिलाओं को कभी शारीरिक तो कभी मानसिक हिंसा झेलनी पड़ती है जो कभी समाज की प्रतिष्ठा तो कभी परंपरा के नाम पर की जाती है. इस संबंध में इंटर की छात्रा कल्पना बिष्ट का कहना है कि उन्हें स्कूल जाने से पहले व घर आने के बाद घर के सारे काम काज करने होते हैं. लेकिन घर के लड़कों को किसी भी कार्य के लिए नहीं बोला जाता है. माता पिता भी अपनी संतानों में लिंग के आधार पर कार्य का निर्धारण करते हैं. एक ओर अधिकांश कार्य महिलाओं द्वारा किये जाते हैं चाहे वह खेतों का हो या जंगलों का, वहीं दूसरी ओर महिलाओं को वह दर्जा नहीं दिया जाता है जिसकी वो हकदार होती हैं. पर्वतीय इलाकों को शान्त माना जाता है पर ऐसा नहीं की यहां हिंसा नहीं होती हो, पर इनके प्रति आवाज नहीं उठायी जाती है. जिसके कारण महिलाओं को शाब्दिक और शारीरिक हिंसा का शिकार होना पड़ता है. यह हिंसा कभी परंपरा तो कभी चरित्र के नाम पर की जाती है. लिंग भेदभाव का सबसे ज्वलंत उदाहरण देश में हर स्थान पर देखने को मिलता है. बेटे के जन्म के समय जश्न व बेटी के जन्म पर सामान्य व्यवहार होता है तो कई बार बेटी को जन्म लेने से पहले ही भ्रूण हत्या कर दी जाती है. यह सभ्य समाज के लिए शोचनीय विषय है. महिलाओं से समाज है तो उन्हीं को क्यों खत्म किया जाता है.
नाम नहीं बताने की शर्त पर 35 वर्षीय एक महिला का कहना है लिंग भेदभाव के चलते कई बार उन्हें समाज के सामने अपमानित होना पड़ा है. बचपन में विवाह के लिए तैयार न होने पर घरों वालो द्वारा दबाब दिया गया. घर में मेरी शिक्षा से अधिक विवाह की चिंता थी. मुझ से बार बार यह कहा जाता है कि 'लड़की हो सही समय में विवाह हो जाए तो उचित होता है'. मात्र 19 वर्ष की आयु में मेरा विवाह कर दिया गया. विवाह के बाद घर की जिम्मेदारी आने के चलते मुझे अपनी शिक्षा छोड़नी पड़ी. कम उम्र में ससुराल वालों के ताने सुनने पड़ते थे. वह कहती हैं कि आज भी पर्वतीय क्षेत्रों में कई लड़कियां इस दर्द को खामोशी के साथ सह रही हैं. सिर्फ इस भाव से क्योंकि उन्होंने इसे अपना नसीब मान लिया है. नैनीताल उच्च न्यायालय के अधिवक्ता महेन्द्र सिंह कहते हैं कि वह विगत सात वर्षों से वकालत कर रहे हैं. इस बीच कई मामले उनके पास आये जो लैंगिक हिंसा से जुड़े थे. उन्हें लगता है कि इस प्रकार के मामले को बढ़ाने में हमारी संकीर्ण सोच, अंधविश्वास, दहेज प्रथा के साथ साथ सामाजिक बुराईयों का भी बहुत बड़ा हाथ होता है. परन्तु जैसे जैसे लड़कियां शिक्षा लेने के साथ आगे बढ़ रही हैं समाज का नजरिया बदल रहा है. लेकिन फिर भी पूरी तरह से इस बदलाव में काफी समय लगेगा. लैंगिक असमानता भविष्य में विकराल रूप लेगी यह किसी प्रश्नवाचक चिन्ह से कम नहीं है. सरकार तो प्रयास कर ही रही है पर इन प्रयासों को हकीकत में बदलने के लिए हमारी सोच में बदलाव के साथ इसके प्रति आवाज उठाने की ज़रूरत है.
बीना बिष्ट
हल्द्वानी, उत्तराखंड
(चरखा फीचर)
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