श्रीनगर-कश्मीर के हवाई अड्डे के बचाव में 3 नवम्बर 1947 को अपने साहसिक कार्यों के लिए मेजर सोमनाथ शर्मा को मरणोपरांत परम-वीर-चक्र से सम्मानित किया गया। इस ‘शौर्य-सम्मान’ की स्थापना पहली बार हई थी और यह सम्मान मेजर सोमनाथ शर्मा को उनकी बहादुरी, कर्तव्य-निष्ठा और साहसिक अभियान के लिए प्रदान किया गया था। रक्षा-विशेषज्ञों का कहना है कि अगर जांबाज़ सेनानी मेजर सोमनाथ शर्मा ने अपनी टुकड़ी के साथ बडगाम,श्रीनगर के हवाई अड्डे को दुश्मनों के भारी आक्रमण से न बचाया होता तो कश्मीर हमारे हाथ से निकल गया होता।भारत-पाक विभाजन के कुछ दिनों बाद ही बडगाम(श्रीनगर) में पाक-समर्थित कबाइली बड़ी तादाद में इकट्ठे हो रहे थे और उनका मकसद बडगाम स्थित एयरफील्ड पर कब्जा करना था ताकि भारतीय सेना श्रीनगर-कश्मीर न पहुंच सके। कश्मीर में घुसपैठ कर रहे इन कबालियों को ढूंढने और उनको खदेने के लिए ही कुमाउं रेजिमेंट बटालियन को वहां तैनात किया गया था और कमांड मेजर सोमनाथ शर्मा के हाथ में थी। दुर्भाग्य से 3 नवंबर को पेट्रोलिंग के दौरान दोपहर ढाई बजे के आसपास वे दुश्मन से घिर गए। श्रीनगर हवाई हड्डा कबाइलियों के कब्जे में आने वाला था। लेकिन सोमनाथ शर्मा और उनकी सेना की टुकड़ी बहादुरी से लड़ी और दुश्मन को आगी बढ़ने से रोक लिया। पांच सौ घुसपैठियों के एक कबाइली लश्कर ने डी-कंपनी को तीन तरफ से घेर रखा था। मेजर शर्मा को अपनी पोजीशन के महत्व का पूरा एहसास था। वे जानते थे कि यदि उनकी कंपनी ने अपना स्थान छोड़/खो दिया तो श्रीनगर का हवाई-अड्डा और श्रीनगर शहर दोनों असुरक्षित हो जायेंगे। भारी गोलीबारी के बीच और सात से एक के अनुपात से उन्होंने अपनी कंपनी को हिम्मत के साथ लड़ने के लिए प्रोत्साहित किया और खुद दुश्मन की भारी गोलीबारी के बीच एक ठौर से दूसरी ठौर पर एक हाथ में बंदूक लेकर इधर से उधर भागते और अपने साथियों का मनोबल बढ़ाते। इस दौरान दुश्मन की सेना लगातार हमला कर रही थी और दुश्मन की सेना में कई गुना ज्यादा संख्या थी। लेकिन, फिर भी सोमनाथ शर्मा ने वापस हटने का फैसला नहीं किया और दुश्मन की सेना को आगे बढ़ने से रोके रखा। उन्होंने अतिरिक्त सेना की मदद मिलने तक दुश्मन से जंग जारी रखी। करीब 6 घंटे तक उनसे मुकाबला किया। उनका कहना था कि वो दुश्मन से आखिरी गोली और आखिरी सांस तक लड़ेंगे और लगातार लड़ते रहे। जब हताहतों की संख्या बढ़ने लगी तो और मेजर सोमनाथ लगने लगा कि उनकी कंपनी/टुकड़ी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है, तो मेजर शर्मा ने अपने साथियों को गोला-बारूद बांटने का कार्य स्वयं संभाला और लाइट मशीनगन का संचालन भी किया। इसी बीच एक मोर्टार के हमले से बड़ा विस्फोट हुआ जिसमें मेजर शर्मा बुरी तरह से घायल हो गए। शहीद होने से पहले उन्होंने अपने संदेश में कहा था: ‘दुश्मन हमसे सिर्फ 50 गज की दूरी पर है। हमारी संख्या काफी कम है। हम भयानक हमले की ज़द में हैं। लेकिन हमने अभी तक एक इंच जमीन नहीं छोड़ी है। हम अपने आखिरी सैनिक और आखिरी सांस तक लड़ेंगे’।दुश्मन के साथ लड़ाई के दौरान शर्मा के अलावा एक जूनियर कमीशन अधिकारी और डी-कंपनी के २० अन्य रैंकों के सैनिकों की भी मौत हो गई। मेजर शर्मा के शरीर को तीन दिनों के बाद बरामद किया गया। जब तक अन्य बटालियन वहां पहुंचती, उससे पहले वे और उनके अधिकाँश साथी शहीद हो चुके थी। लेकिन उन्होंने 200 कबालियों को मौत के घाट उतार दिया था और कश्मीर घाटी पर कबाइलियों का अधिकार होने से बचा लिया था। हालांकि, वो खुद भी शहीद हो गए मगर अपना और अपनी रेजिमेन्ट का नाम रोशन कर दिया। इस वीरता और पराक्रम के लिए मेजर सोमनाथ शर्मा को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। कहते हैं कि मेजर सोमनाथ शर्मा के शव की पहचान उनकी पिस्तौल और उनके पास मिली गीता की पुस्तक से हुई थी। गीता को वे हमेशा अपने साथ रखते थे ।यह संस्कार उन्हें अपने दादाजी से प्राप्त हुआ था।
प्रशस्ति पत्र : मेजर सोमनाथ शर्मा, 4 कुमाऊँ (आईसी-521)
“3 नवंबर 1947 को मेजर सोमनाथ शर्मा की कंपनी को कश्मीर घाटी में बडगाम के लिए एक लड़ाकू गश्त पर जाने का आदेश दिया गया था। वह 3 नवंबर को पहली रोशनी में अपने लक्ष्य तक पहुँच गए और 11 बजे बडगाम के दक्षिण में एक स्थान पर पोजीशन ले ली। दुश्मन के लगभग 500 सैनिकों ने उनकी कंपनी पर तीन तरफ से हमला किया। कंपनी के हताहतों की संख्या बढ़ने लगी।स्थिति की गंभीरता और हवाई-अड्डे और श्रीनगर दोनों को होने वाले खतरे को महसूस करते हुए, मेजर सोमनाथ शर्मा ने अपनी कंपनी में दुश्मन के साथ दृढ़तापूर्वक लड़ने का उत्साह फूंका। हिम्मत रखते हुए उन्होंने कुशलता से अपने साथियों के साथ लगातार बढ़ते दुश्मन पर अंकुश लगाया। इतना ही नहीं मेजर शर्मा ने खुद को दुश्मन की आग बरसाती गोलियों से बचाते हुए दुश्मन की पूरी दृष्टि में भारतीय विमानों को अपने लक्ष्य पर उतरने के लिए कपड़े की पट्टियां बिछा दी। इस अधिकारी, जिसके बाएं हाथ प्लास्टर पर प्लास्टर चढ़ा था, ने व्यक्तिगत रूप से बंदूकों में मैगजीन भरना शुरू कर दिया। इस दौरान गोला-बारूद के ठीक बीच में एक मोर्टार का गोला गिरा, जिसके परिणामस्वरूप एक विस्फोट हुआ जिससे उनकी मौत हो गई।मेजर शर्मा की कंपनी दुश्मन से पूरी तरह से घिरे होने के बावजूद अपने स्थान पर डटी रही। उनके इस प्रेरक और साहसी उदाहरण के परिणामस्वरूप दुश्मन को छह घंटे की देरी हुई और इस तरह से हमारी सेना को अपनी स्थिति सुदृढ़ करने का समय मिल गया। मेजर सोमनाथ की नेतृत्व-शक्ति, उनकी वीरता और रक्षा-क्षमता ऐसी थी कि इस वीर अधिकारी के मारे जाने के छह घंटे बाद तक उनके साथी सैनिक दुश्मन से ‘सात से एक के अनुपात में’ लड़ने के लिए प्रेरित हुए। भारतीय सेना के इतिहास में शायद ही ऐसी कोई साहसिक मिसाल मिले!। मारे जाने से कुछ क्षण पहले ब्रिगेड मुख्यालय को उनका अंतिम संदेश मिला था: 'दुश्मन हमसे केवल 50 गज की दूरी पर है। वे भारी संख्या में हैं। हम विनाशकारी आग में हैं। मगर मैं एक इंच भी पीछे नहीं हटूंगा और आखिरी सैनिक और आखिरी सांस तक लड़ूंगा।“
(डॉ० शिबन कृष्ण रैणा)
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