हर साल भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को कृष्ण जन्माष्टमी का पर्व बहुत धूम-धाम से मनाया जाता है. 6 सितंबर दोपहर 3.38 बजे अष्टमी तिथि का आरम्भ हो जाएगा. 7 सितंबर शाम 4.14 बजे तक रहेगा. रोहिणी नक्षत्र के समय श्री कृष्ण की पूजा -अर्चना होगी। पूरी रात्रि रोहिणी नक्षत्र रहेगा. इसीलिए वैष्णव संप्रदाय के लोग जन्माष्टमी 7 सितंबर के दिन मनाएंगे. 6 सितंबर बुधवार को रात 11ः 56 मिनट से लेकर 7 सितंबर गुरुवार 12ः42 मिनट तक जन्माष्टमी की पूजा का शुभ मुहूर्त है. इस दिन आप देर रात को बाल गोपाल का जन्मोत्सव मना सकते हैं. श्री कृष्ण जन्माष्टमी के दिन रात में 12 बजे, कृष्ण जन्म के बाद खीरे को दो भागों में बांट कर अलग किया जाता है. जिस प्रकार बच्चे के जन्म के बाद उसको गर्भनाल से काटकर अलग करते हैं. इसीलिए खीरे को पूजा में जरुर रखना चाहिए. इस दिन भगवान के जन्म के बाद श्री कृष्ण को मक्खन और मिश्री का भोग लगाए. उन्हें दूध से स्नान कराएं, नए वस्त्र पहनाएं , उनका श्रृंगार करें और उन्हें झूला झुलाएं. इसके बाद श्री कृष्ण की आरती करें. शंख, बजाकर भगवान के जन्मोत्सव मनाएं और अपने व्रत का पारण करें. व्रत का पारण आप कुट्टु के आटे के खाने से कर सकते हैं. इस व्रत में अनाज का उपयोग नहीं किया जाता.जन्माष्टमी की तैयारियां अंतिम चरण में है। कृष्ण की लीला और राधा-कृष्ण के प्रेम को अपने जीवन में भी उतारने के उद्देश्य से लोग लडृडू गोपाल की आराधना में रमें हुए हैं। श्रीकृष्ण जन्मभूमि मथुरा से लेकर काशी व अयोध्या तक भी भक्तगण रासलीला में अभी से डूब गए है। हर तरफ खुशी का माहौल छाया हुआ है। राधाकृष्ण मंदिरों गजब की रौनक है। धार्मिक नगरी काशी कृष्ण के रंग में रंगी हुई है। थानों-चौकियों में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की धूम होगी। चहुंओर ‘तू दिखा जरा मटकी तोड़कर...‘, ‘गोविन्दा आला रे...‘ ‘जो है अलबेला, मद नैनो वाला जिसकी दीवानी ब्रज की हर बाला, वो किसना है...‘ जैसे गीतों के धूम बजने लगे है। पूरा शहर रंग-बिरंगी बधाई पट्टिकाओं और ध्वजाओं से सज गया है। गांवों, कस्बों, चौराहों पर शहरों में जगह-जगह भगवान श्रीकृष्ण के जीवन से जुड़ी झांकियां सजकर तैयार है। मंदिरों में विशेष उत्सव होंगे। रोहणी नक्षत्र जैसे ही कान्हा का जन्म होगा, बधाइयां गूंज उठेगी। मंदिरों में श्री कृष्ण का वैदिक मंत्रों से जन्माभिषेक किया जाएगा। वृन्दावन के मशहूर बांके बिहारी मंदिर की छटा देखते ही बनती है। जन्माष्टमी के दिन इस मंदिर में भक्तों का तांता लगा रहता है।
मित्रता, प्रेम भक्ति, करुणा, दया, धर्म के मिश्रित रुप है श्रीकृष्ण
पार्थसारथि कृष्ण ने अपने जीवन में ही बता दिया था कि सच्चा व्यक्ति कैसे बना जा सकता है। कभी भी पीछे हटना नहीं है। और, जहां रणकौशल के कारण दो कदम पीछे हटना पड़ा, वहां बौद्धिक कौशल में संभवतः सौ कदम आगे बढ़ने के समान हुआ। वास्तव जगत में दो कदम पीछे हटे रणनीति की वजह से। कैसे? जरासंध बार-बार मथुरा पर आक्रमण कर रहे थे, इस कारण जरासंध के हाथ से मथुरा बचाने के लिए, मथुरा से राजधानी हटायी गयी, क्योंकि द्वारका जाने के लिए मरुभूमि को पार करना पड़ता। जरासंध तो वह कर नहीं पायेगा, इस कारण दूर हटना पड़ा। वास्तव में यह पीछे हटना मानसिक जगत में एक कदम आगे बढ़ने के बराबर है। अर्थात् जरासंध के समान एक समाज-विरोधी तत्व को काबू करने के लिए नये पथ की उद्भावना की गयी। इसे व्यावहारिक और व्यक्तिगत जीवन में पार्थसारथि ने दिखा दिया कि अच्छा आदमी कैसे बना जा सकता है, किस प्रकार पापशक्ति, समाजविरोधी शक्ति के विरूद्ध संग्राम में अवतीर्ण होना चाहिए। इस प्रकार उन्होंने मनुष्य को आत्मिक दिशा देकर अपनी ओर खींचा। कुरुक्षेत्र के मैदान में जब अर्जुन ने युद्ध करने से मना कर दिया था, तो श्रीकृष्ण ने कहा था- हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूं अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूं। मित्रता, प्रेम भक्ति, करुणा, दया, धर्म के मिश्रित रुप है श्रीकृष्ण। उनके बंधी की तान में इतनी मधुरता है कि सबकों अपना बना लेते है। उनकी भक्ति इतनी अटूट है कि लोग सर्वस्व अपना न्योछावर करने को आतुर रहते हैं। यही वजह है कि उन्हें कोई कान्हा, तो कोई छलिया कहता है। बात जब युवाओं की हो तो प्यार और दोस्ती का पर्याय कहें जाने वाले श्रीकृष्ण उनके लिए भी प्रेरणास्रोत है। कोई उन्हें अनूठा मित्र तो कोई सच्चा पव्रेमी मानता है। कहते है जन्माष्टमी के दिन बाल श्रीकृष्ण को स्तनपान कराती देवकी की मूर्ति या तस्वीर स्थापित करना शुभ होता है। जन्माष्टमी के दिन सभी मंदिर रात बारह बजे तक खुले होते हैं। बारह बजे के बाद कृष्ण जन्म होता है और इसी के साथ सब भक्त चरणामृत लेकर अपना व्रत खोलते हैं। स्कंद पुराण के मुताबिक जो मनुष्य जानते हुए भी इस दिन व्रत नहीं रखता, वह जंगल में सृप होता है, लेकिन जो व्यक्ति विधि के अनुसार और पूरी आस्था के साथ इस दिन व्रत रखते हैं, उनके पास हमेशा लक्ष्मी स्थिर रहती है और बिगड़ते काम बन जाते हैं। जन्माष्टमी के अगले दिन को ’नंद उत्सव’ के रूप में मनाया जाता है। इस दिन भगवान को 56 तरह के खाद्य पदार्थ चढ़ाये जाते हैं जिसे छप्पन भोग कहा जाता है। भगवान को भोग लगने के बाद इसे सभी लोगों में बांटा जाता है। ऐसा कहा जाता है कि छप्पन भोग में वही व्यंजन होते हैं जो भगवान श्री कृष्ण को पंसद थे।’व्रतराज’
बांके बिहारी को साक्षात राधा-कृष्ण का ही रूप माना जाता है। श्रीकृष्ण एक ऐसे देवता हैं, जिन्हें अलग-अलग रूपों में पूजा गया है। कभी उन्होंने बाल रूप में भक्तों का दिल मोह दिया, तो कभी गीता का उपदेश देकर जीवन को एक सार्थक दिशा दी। जन्माष्टमी के रूप में उनके भक्त भगवान श्रीकृष्ण के जन्म का उत्सव मनाते हैं। श्रीकृष्ण के जन्म और दुश्मनों पर विजय प्राप्त करने से लेकर कई अन्य कथाएं हैं जो बेहद ही प्रसिद्ध हैं और जिन्हें आज भी पंसद किया जाता है। जन्माष्टमी के महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसके व्रत को ’व्रतराज’ कहा जाता है। मान्यता है कि इस एक दिन व्रत रखने से कई व्रतों का फल मिल जाता है। अगर भक्त पालने में भगवान को झुला दें, तो उनकी सारी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं। शास्त्रों के अनुसार इस दिन वृष राशि में चंद्रमा व सिंह राशि में सूर्य था। इसलिए श्री कृष्ण के जन्म का उत्सव भी इसी काल में ही मनाया जाता है। लोग रातभर मंगल गीत गाते हैं और भगवान कृष्ण का जन्मदिन मनाते हैं। इस दिन श्रीकृष्ण की पूजा करने से संतान प्राप्ति, आयु तथा समृद्धि की प्राप्ति होती है। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का पर्व मनाकर हर मनोकामना पूरी की जा सकती है। इस दिन भगवान श्रीकृष्ण के भक्त पूरी विधि-विधान के साथ उपवास करते हैं। वे जन्माष्टमी से एक दिन पहले सिर्फ एक बार ही भोजन करते हैं। व्रत वाले दिन सभी भक्त पूरे दिन का उपवास करने का संकल्प लेते हैं और अगले दिन अष्टमी तिथि खत्म होने के बाद अपना व्रत तोड़ते हैं। जन्माष्टमी के दिन भगवान श्रीकृष्ण का दूध, जल और घी से अभिषेक किया जाता है। भगवान को भोग चढ़ाया जाता है. व्रत वाले दिन भक्त अन्न का सेवन नहीं करते, इसकी जगह फल और पानी लेते हैं जिसे फलाहार कहा जाता है। जन्माष्टमी के मौके पर मंदिरों में अलग ही रौनक देखने को मिलती है। सूर्यास्त के बाद मंदिरों में भजन-कीर्तन का आयोजन किया जाता है। वहीं जिन लोगों का व्रत होता है वह मध्यरात्रि के बाद अपना उपवास तोड़ते हैं।दुनिया के हर कोने में होता मनता है जन्माष्टमी
भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव का पर्व है। भगवान ने भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि की मध्यरात्रि को कंस का विनाश करने के लिए मथुरा में जन्म लिया था। भगवान स्वयं इस दिन पृथ्वी पर अवतरित हुए थे, इसलिए इस दिन को कृष्ण जन्माष्टमी के रूप में मनाया जाता है। जन्माष्टमी के पावन पर्व पर केवल मथुरा-वृंदावन ही नहीं, बल्कि दुनिया के कई देशों की धरती भक्ति के रंगों से सराबोर हो उठती है। जन्माष्टमी पर कृष्ण के पावन और अलौकिक रूप का दर्शन भक्तों को धन्य कर देता है। उनके घर में भी आए कान्हा जैसा पुत्र, यह कामना भक्तों के मन में हिलोरें मारने लगती हैं। कहते हैं कि अपने भक्तों के लिए भगवान श्रीकृष्ण सृष्टि के हर कण में बसे हैं। चाहे वह वृंदावन हो या ब्राजील या बेल्जियम। यह कृष्ण के प्रति हमारी भक्ति का ही उत्कर्ष है कि विभिन्न सदियों में जगह-जगह उनके मंदिर बनाये गये हैं और आगे भी बनाये जाते रहेंगे। ब्रज मंडल के कण-कण में कृष्ण बसे हैं। यहां हर जगह किशन कन्हैया के अद्भुत मंदिर मिल जायेंगे और सभी मंदिरों की अपनी-अपनी विशेषता है। इस क्षेत्र का सबसे अलौकिक और प्राचीन श्री बांके बिहारी मंदिर के बारे में मान्यता है कि अगर कोई बांके बिहारी जी के मुखारविंद को लगातार देखता रहे, तो प्रभु उसके प्रेम से मंत्रमुग्ध होकर उसके साथ चल देते हैं। इसीलिए मंदिर में उन्हें परदे में रख कर उनकी क्षणिक झलक ही भक्तों को दिखायी जाती है। यह मंदिर शायद अपनी तरह का पहला मंदिर है, सुबह में घंटे इसलिए नहीं बजाये जाते, ताकि बांके बिहारी की नींद में व्यवधान न पड़ जाये। उन्हें हौले-हौले एक बालक की तरह दुलार कर उठाया जाता है। इसी तरह संध्या आरती के समय भी घंटे नहीं बजाये जाते। सुदामा के प्रति कृष्ण की मित्रता एक नये आयाम देती है। कृष्ण द्वारिका के शासक हैं, जहां पर हर तरह की सुख-सुविधाएं उन्हें उपलब्ध हैं, पर उनके बाल सखा सुदामा सर्वथा विपन्न विप्र हैं और संतुष्ट भी हैं। सुदामा एक दिन बहबूदी में अपनी पत्नी को बताते हैं कि कृष्ण उनके बाल सखा हैं, तो उनकी पत्नी उनको रोज ताना देती है कि जिसके बाल सखा कृष्ण हो, उसके बीवी-बच्चे भूख से बिलबिला रहे हैं? वे कहते हैं, तो क्या हुआ ब्राह्मण तो गरीब होता ही है और उसका तो काम ही भीख मांगना है। पर उनकी पत्नी यह स्वीकार नहीं कर पाती और उसके रोज-रोज के तानों से आजिज आकर वे कृष्ण के दरबार में जाते हैं। और कृष्ण को जैसे ही पता चलता है कि सुदामा नामक एक विप्र उनके द्वार आये हैं, तो वे नंगे पैर ही दरवाजे से सुदामा को लेकर आते हैं। सुदामा कृष्ण की इस मित्र विह्वलता से गदगद हैं। वे जब देखते हैं कि कृष्ण बिना अपने पद-प्रतिष्ठा और रुतबे का विचार किये एक दीनहीन विप्र का इतना आदर-सत्कार कर रहे हैं, तो उनके मुंह से निकल पड़ता है कि आज ऐसा दीनबंधु और कौन है भला! कृष्ण यहीं नहीं रुकते. वे सुदामा से मिल कर इतने भावुक हो जाते हैं कि अश्रुधारा उनकी आंखों से फूट पड़ती है। मध्यकाल में रसखान तो कृष्ण के ऐसे दीवाने हो गये थे कि वे अपने बादशाह वंश की ठसक छोड़ कर वृंदावन में ही जाकर रहने लगे थे। वे अर्जुन के भी सखा हैं। भाई तो अर्जुन के पास पहले से ही चार और हैं, पर जब भी विपदा पड़ी, वे सदैव सलाह हेतु कृष्ण के पास ही जाते हैं। तब भी जब वे दुविधा में थे कि अपने उन भाई-बांधवों से युद्ध कैसे किया जाये, जिनके साथ रह कर वे पले-बढ़े हैं अथवा वे किस तरह सारी मर्यादा और नैतिकता की लक्ष्मणरेखाएं लांघ कर अपने पितामह भीष्म का वध करें। कैसे वे अपने अपराजेय गुरु द्रोणाचार्य को रणभूमि में युद्ध से विरत करें तथा कर्ण को तब मारें, जब वह निहत्था होकर अपने रथ का पहिया चढ़ा रहा होता है। उस दुविधा को एक मित्र की तरह कृष्ण दूर करते हैं और एकदम व्यावहारिक मित्र की भांति सलाह देते हैं कि पार्थ रणभूमि में नैतिक-अनैतिक कुछ नहीं होता है। या तो सामने वाले अपराजेय शत्रु का मौका ताक कर वध करो, अन्यथा वह आपका वध कर देगा। यह शिक्षा अकेले कृष्ण ही दे सकते थे। इसीलिए भारतीय मिथकीय पात्रों में कृष्ण सर्वाधिक अपने-से प्रतीत होने वाले देवता या नायक हैं।सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें