एक दिन जब मैं अपने अध्ययन-कक्ष में कुछ काम कर रहा था तो कश्मीर विश्वविद्यालय के परीक्षा-नियंत्रक का मेरे पास फोन आया जिस में उन्होंने मुझे निवेदन किया कि डी-लिट की एक थीसिस वे मेरे पास संवीक्षा के लिए भेजना चाहते हैं और इसके लिए उन्हें मेरी सहमति चाहिए। ‘हाँ’ करने के एक सप्ताह के अंदर-अंदर शोध-प्रबंध मेरे पास डाक से आ गया। पार्सल खोलने पर देखा तो ग्रंथ मेरे मिलने वाले मित्र डा० भूषणलाल कौल का था। मेरी जानकारी के मुताबिक कौल उस समय कश्मीर विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग में प्रोफेसर के पद पर कार्यरत थे। थीसिस की ठीक-ठाक रिपोर्ट भेज दी और कुछ ही दिनों के बाद मौखिकी(viva)की तारीख भी मुकर्र/तय हुई।वायवा श्रीनगर में होना था मगर इस बीच कौल साहब की तरफ से उनके एक परिचित ने(जिन्हें मैं भी जानता था) मुझे फोन कर अनुरोध किया कि मैं परीक्षा-नियंत्रक को पत्र लिखूँ कि यह वायवा श्रीनगर में न रखकर जम्मू में रखा जाए।
उस ज़माने में कश्मीर में आतंकवाद अपने चरम पर था।कौल के घाटी में कुछ असामाजिक तत्व पीछे पड़े हुए थे।शायद इसी लिए कौल साहब अपना यह वायवा श्रीनगर के बदले जम्मू में रखवाना चाह रहे थे। परीक्षा-नियंत्रक महोदय ने मेरी बात मान ली और वायवा श्रीनगर के बदले जम्मू विश्वविद्यालय के गेस्ट हाउस में रखा गया। नियत तारीख को मैं जम्मू पहुंचा। विश्वविद्यालय के गेस्ट-हाउस में प्रवेश करते ही मुझे डा०भूषणलाल कौल,उनके सहकर्मी डा०रोशनलाल ऐमा,कश्मीर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष डा० रमेश कुमार शर्मा,उनकी पत्नी डा०विमला मुंशी आदि दिखे।कश्मीर विश्वविद्यालय के दो-तीन अधिकारीगण भी पहले से विराजमान थे।सभी से मुलाकात हुई। ‘अधिकारीगण’ को छोड़ शेष सभी से मैं परिचित था और वे मुझ से।विमला मुंशी द्वितीय परीक्षक की हैसियत से और डा० रमेश कुमार शर्मा पत्नी का साथ देने की गरज से आगरा से जम्मू आए हुए थे।शर्माजी तनिक उखड़े-से और कमजोर लगे। पूछने पर कहने लगे कि उन्हें कुछेक वर्ष पहले ‘स्ट्रोक’ आया था।खैर----।
अधिकारीगण में से एक ने, जो शायद अवर कुलसचिव थे,कमान संभाली और वायवा की कार्रवाई शुरू करने के निर्देश दिए। जाने क्या सोचकर उन्होंने मुझे वायवा की पूरी कार्रवाई के संचालन का दायित्व सौंपा और संबंधित फाइल मुझे संभलायी! गेस्ट हाउस के बड़े-से कक्ष में हम लोगों के अलावा जम्मू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के कतिपय स्टाफ के सदस्य और विद्यार्थी मौजूद थे। सर्वप्रथम शोध-प्रबंध पर परीक्षकों के प्रतिवेदन पढे गए। मैसूर से प्रो० ओमकार कौल की,आगरा से डा० विमला मुंशी की और मेरी अपनी रिपोर्ट को मैं ने पढ़कर सुनाया। थीसिस के प्रो० ओमकार कौल भी एक परीक्षक थे पर वे किसी कारण से आ नहीं पाए थे।प्रश्नोत्तरी का दौर चला। जहां तक मुझे याद है श्रीमती मुंशी ने कोई खास प्रश्न शोधकर्त्ता से नहीं पूछा। मैं ने अवश्य भूषणलाल से दो-तीन सवाल किए।कश्मीरी के प्रख्यात रचनाकार अमीन कामिल के अवदान का उल्लेख प्रबंध में करना वे भूल गए थे।यह मुद्दा मैं ने उठाया। और भी कुछेक बातों पर चर्चा हुई। कौल ने पूरी एकाग्रता के साथ सभी प्रश्नों का उत्तर अपने तरीके से दिया। आध घंटे के भीतर-भीतर वायवा समाप्त हुआ और सर्वसम्मति से यह निर्णय लिया गया कि डा० कौल को डी-लिट की उपाधि स्वीकृत की जाए। कौल को अनौपचारिक तौर पर उनके मित्रों द्वारा बधाई दी जाने लगी।यह सब चल ही रहा था कि मैं ने देखा कि भूषणलाल जी अपनी रूमाल से अपनी आँखें पोंछ रहे हैं। शायद खुशी के आँसू छलक आए थे। पूछने पर कहने लगे: ‘आज मेरी पत्नी जीवित होती तो सब से ज्यादा खुशी उसे ही होती। अपने आखिरी दिनों में मुझ से कह के गई थी कि काम को अधूरा मत छोड़ना,इसे पूरा करना,पूरा करना---।‘ सभी ने डा० कौल को सांत्वना दी और अग्रिम बधाई भी दी।
बाद में पता लगा कि डा० कौल जम्मू में रहने लग गए थे और अकादमिक कार्यों से अपने को पूर्णतया जोड़ दिया था। सूचना यह भी मिली कि प्रोस्ट्रेट के ऑपरेशन के दौरान कुछेक वर्षों के बाद उनका स्वर्गवास हो गया। एक बात और। १९६२ के नवंबर माह में मेरा एम०ए० हिन्दी (फाइनल) का रिजल्ट आया था। उस वर्ष के बैच में मैं ने प्रथम श्रेणी में प्रथम रहकर परीक्षा उत्तीर्ण की थी। याद आ रहा है कि परिणाम निकलने के अगले दिन ही परीवियस में पढ़ रहे कौल अलसुबह मेरे घर पर आए और मुझ से मेरे नोट्स मांगने लगे जो मैं ने सहर्ष उनको दे दिए। बाद में सुना कि उन्होंने भी १९६३ में टॉप किया था। कौल वहीं कश्मीर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में नियुक्त हुए और मैं कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से पीएच-डी कर राजस्थान-कालेज-सेवा में आ गया और इस तरह से वीर-वसुंधरा राजस्थान मेरी कर्मस्थली बन गई। पीछे मुड़कर देखना कितना अच्छा लगता है!
डॉ० शिबन कृष्ण रैणा
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