सिर्फ खर्च ही नहीं, बल्कि अन्य कई दृष्टि से भी ‘एक देश एक चुनाव’ काफी फायदेमंद है। इसमें प्रशासनिक तंत्र और सुरक्षा बलों पर बार-बार पड़ने वाला बोझ तो कम होगा ही, चुनावी गतिविधियों से बचते हुए समय को दूसरे उपयोगी कामों में दे सकते हैं। सांसदों और विधायकों का कार्यकाल एक ही होने के कारण उनके बीच समन्वय बढ़ेगा। लेकिन भारत जैसे विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में इस राह में बहुत सारी चुनौतियां भी सामने आ सकती हैं। इनमें सबसे बड़ी समस्या तो लोकसभा और विधानसभाओं के कार्यकाल के बीच सामंजस्य स्थापित करने की होगी। अगर 2024 के आम चुनावों को ही लें तो देश के करीब आधे राज्यों की विधानसभाएं इन चुनावों के दौरान ऐसी होंगी, जिन्होंने अपना आधा कार्यकाल भी पूरा नहीं किया होगा। ऐसे में उन्हें बीच में भंग कर नए चुनाव कराना बहुत सारे राजनीतिक विवादों का सबब बन सकता है। खासकर संकट वहां ज्यादा होगा, जहां त्रिशंकु विधानसभा की संभावना होगी। क्योंकि ये लोग ऐनकेन प्रकारेण सरकार तो बना लेंगे, लेकिन जब कुछ दलें मनमाफिक न होने पर समर्थन वापस लेंगी तो सरकार का गिरेगी, तब गठन में दलबदल कानून तो आड़े आयेगी ही जनप्रतिनिधित्व अधिनियम और संसदीय प्रक्रिया में भी बदलाव करना होगा। लेकिन, अगर इरादा पक्का हो और राजनीतिक इच्छाशक्ति मजबूत हो तो कुछ भी असंभव नहीं हैफिरहाल, न्यायमूर्ति बीपी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता वाले विधि आयोग ने मई 1999 में अपनी 170वीं रिपोर्ट में कहा थाः “हर साल और सत्र के बाहर चुनावों के चक्र को सममाप्त किया जाना चाहिए. हमें उस स्थिति में वापस जाना चाहिए जहां लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते हैं. नियम यह होना चाहिए कि लोकसभा और सभी विधानसभाओं के लिए पांच साल में एक बार एक चुनाव हो. लेकिन मामला तब अटकेगा जब किसी दल को बहुमत नहीं मिलता है। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है एक राष्ट्र, एक चुनाव के मामले में मुख्यमंत्री कैसे चुना जाएगा? दुसरा बड़ा सवाल है एक राष्ट्र, एक चुनाव ’ऑपरेशन लोटस’ को वैध बनाने और विधायकों की खरीद-फरोख्त को वैध बनाने के मोर्चे को कैसे रोका जायेगा? दल-बदल विरोधी कानूनों के बिना, एक मुख्यमंत्री का चुनाव किया जाएगा, ठीक एक अध्यक्ष के चुनाव की तरह. मतलब साफ है किसी भी पार्टी के विधायक किसी भी पार्टी को वोट दे सकते हैं. बता दें कि आजादी के बाद देश में पहली बार 1951-52 में चुनाव हुए थे. तब लोकसभा चुनाव और सभी राज्यों में विधानसभा चुनाव एक साथ कराए गए थे. इसके बाद 1957, 1962 और 1967 में भी चुनाव एक साथ कराए गए, लेकिन फिर ये सिलसिला टूटा. जब 1968-69 में कुछ राज्यों की विधानसभा कई कारणों से समय से पहले भंग कर दी गई थीं. वहीं 1971 में लोकसभा चुनाव समय से पहले हुए थे. हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने का विचार नया नहीं है. लेकिन एक बार फिर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसे वापस लागू करने के लिए प्रयासरत हैं जिसके लिए वो चुनाव आयोग, नीति आयोग, विधि आयोग आदि से बातचीत कर चुके हैं. लेकिन इसे लगू करने के पक्ष में कुछ ही पार्टियां हैं और ज्यादातर पार्टियां इसके विरोध में हैं. ऐसे में इतना तो लगभग तय ही है कि जब तक इस पर सभी पार्टियों की सहमति नहीं होगी इसे अमली जामा पहनाना आसान नहीं होगा. इन सबके बीच फायदा यह होगा कि मतदाता सरकार की नीतियों को केंद्र व राज्य दोनों स्तर पर परख सकेंगे। बार-बार चुनाव होते रहने से शासन-प्रशासन के कार्यों में जो बाधाएं आती हैं, उनसे बचा जा सकेगा। साथ ही एक निश्चित अंतराल के बाद चुनाव कराए जाएंगे तो जनता को भी राहत मिलेगी और राजनीतिक दलों, चुनाव आयोग, चुनावों में सुरक्षा व्यवस्था संभालने वाली एजेंसियों को इनकी तैयारी के लिए पर्याप्त समय मिल सकेगा। कुछ हद तक राजनीतिक दलों की इस मामले में आपसी सहमति बन भी गयी तो सबसे बड़ी चुनौती होगी, व्यावहारिक धरातल पर उतारने की। यह तभी संभव हो पायेगा जब कई विधानसभाओं के कार्यकाल को घटाना पड़ेगा और कई के कार्यकाल को बढ़ाना पड़ेगा। और यह सबकुछ तब होगा जब संविधान में एक-दो नहीं कई संशोधन होंगे। जैसे, अनुच्छेद 83, जो कहता है कि लोकसभा का कार्यकाल उसकी पहली बैठक की तिथि से पांच वर्ष होगा और अनुच्छेद 172, जो यही प्रावधान विधानसभा के लिए निर्धारित करता है। इसके अलावा जनप्रतिनिधित्व अधिनियम और संसदीय प्रक्रिया में भी बदलाव करना होगा। खास यह है कि कानून में इन बदलावों के बावजूद चुनाव के बाद कई गंभीर मुद्दे सामने आ सकते हैं. जब कोई भी पार्टी चुनाव में बहुमत हासिल करने में विफल रहती है, तो त्रिशंकु विधानसभा की संभावना हो सकती है. ऐसे में समय से पहले चुनाव होने की भी संभावना होती है. उदाहरण के लिए दिल्ली में 2015 में समय से पहले चुनाव हुए थे. तब 2014 में कांग्रेस पार्टी के अपना समर्थन वापस लेने के बाद आम आदमी पार्टी की सरकार अपने कार्यकाल के 49 दिन बाद ही गिर गई थी. दसवीं अनुसूची के तहत दलबदल भी तय समय के बीच चुनाव कराए जाने के प्रमुख कारणों में एक है. जब कोई निर्वाचित सदस्य अपनी पार्टी बदलता है, तो वह नए सिरे से चुनाव लड़ सकता है और फिर से सदन में प्रवेश कर सकता है. किसी भी सदन के भंग होने पर उसका कार्यकाल कम किया जा सकता है, जो तब हो सकता है जब सरकार इस्तीफा दे देती है. जबकि कार्यकाल को बढ़ाने के लिए संविधान में एक महत्वपूर्ण संसोधन की जरूरत होगी. इन प्रावधानों में संशोधन के लिए संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत की जरूरत होगी. हालांकि इस संभावित संशोधन के लिए आधे राज्यों के समर्थन की जरूरत नहीं हो सकती है, लेकिन अगर विधानसभाओं को समय से पहले भंग करने पर विचार किया जाता है, तो सभी राज्यों की सहमति जरूरी होगी. संविधान का अनुच्छेद 356 किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने का प्रावधान करता है, जो किसी राज्य में चुनाव में देरी का एक दुर्लभ अपवाद है. हालांकि राष्ट्रपति इस शक्ति का प्रयोग राज्यपाल की सिफारिश पर तभी कर सकते हैं जब राज्य में ‘संवैधानिक मशीनरी खराब’ हो. इसमें भी संशोधन की जरूरत पड़ सकती है.
विदेशों में होता है एक देश एक चुनाव
दक्षिण अफ्रीका, इंडोनेशिया, जर्मनी, स्पेन, हंगरी, स्लोवेनिया, अल्बानिया, पोलैंड, बेल्जियम जैसे दुनिया के कई ये देश हैं, जो केंद्र और राज्यों के चुनाव एक साथ ही कराते हैं, ताकि उनके विकास की गति बाधित न हो। भारत इन देशों के अनुभवों का लाभ उठा सकता है।
नुकसान
चुनाव की तारीखें घोषित होते ही आदर्श आचार संहिता लागू कर दी जाती है। इसकी वजह से सरकारें नए विकास कार्यक्रमों की दिशा में आगे नहीं बढ़ पाती हैं। इससे अस्थिरता बढ़ती है और देश का आर्थिक विकास भी प्रभावित होता है। कई स्तरों पर सरकार की मौजूदगी के कारण देश में लगभग प्रत्येक वर्ष चुनाव कराए जाते हैं। इसमें काफी मात्रा में धन और समय दोनों की बर्बादी होती है। साल वर्ष 2009 में लोकसभा चुनाव पर 1,100 करोड़ रुपए खर्च हुए और वर्ष 2014 में यह खर्च बढ़कर 4,000 करोड़ रुपए हो गया। वहीं, 1951-1952 में हुए लोकसभा चुनाव में 11 करोड़ रुपये खर्च हुए थे। इस संबंध में लॉ कमीशन का कहना था कि अगर लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाते हैं तो 4,500 करोड़ का खर्चा बढ़ेगा। ये खर्चा ईवीएम की खरीद पर होगा लेकिन 2024 में साथ चुनाव कराने पर 1,751 करोड़ का खर्चा बढ़ेगा। इस तरह धीरे-धीरे ये अतिरिक्त खर्च भी कम होता जाएगा। इसके अलावा, एक साथ चुनाव कराने के समर्थकों का तर्क है कि इससे पूरे देश में प्रशासनिक व्यवस्था में दक्षता बढ़ेगी। इसके अलावा बार-बार चुनाव कराने से शिक्षा क्षेत्र के साथ-साथ अन्य सार्वजनिक क्षेत्रों के काम-काज प्रभावित होते हैं। क्योंकि चुनाव के काम में बड़ी संख्या में शिक्षकों सहित एक करोड़ से अधिक सरकारी कर्मचारियों को लगाया जाता है। लगातार जारी चुनावी रैलियों के कारण यातायात से संबंधित समस्याएं होती हैं। साथ ही साथ मानव संसाधन की उत्पादकता में भी कमी आती है।
पहले होते थे एक साथ चुनाव
दरअसल, संविधान में कोई प्रावधान नहीं है जो यह कहता हो कि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जा सकते हैं। हालांकि, भारत में वर्ष 1967-68 तक लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते थे क्योंकि लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं का एक ही समय पर विघटित होती थीं। वर्तमान में लोकसभा के साथ सिर्फ आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश में विधानसभा का चुनाव कराया जाता है.लोकसभा चुनाव के 6 महीने पहले छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्य प्रदेश और तेलंगाना में और 6 महीने बाद महाराष्ट्र और हरियाणा में चुनाव कराया जाता है.चुनाव आयोग के मुताबिक एक साथ चुनाव करने के लिए संविधान संशोधन की भी आवश्यकता होगी। बार-बार होने वाले चुनाव सरकार के लिए एक नियंत्रण एवं संतुलन की व्यवस्था बनाते हैं। विधानसभा चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़ा जाता है, जबकि लोकसभा चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर। ऐसे में दोनों चुनाव एक साथ कराने पर जनता के मन में भ्रम हो सकता है। चुनावों के दौरान बड़ी संख्या में लोगों को वैकल्पिक रोजगार मिलता है, एक साथ चुनाव न कराए जाने से बेरोजगारी बढ़ेगी।
क्षेत्रीय मुद्दे नज़रअंदाज हो जाने की आशंका!
अगर लोकसभा और राज्यों की विधानसभा के चुनाव एक साथ करवाए गए तो राष्ट्रीय मुद्दों के सामने क्षेत्रीय मुद्दे प्रभावित हो सकते हैं.एक साथ चुनाव से क्षेत्रीय दलों को नुकसान पहुंच सकता है. इससे वोटरों के एक ही तरफ वोट देने की अधिक संभावना होगी, जिससे केंद्र सरकार में प्रमुख पार्टी को ज्यादा फायदा हो सकता है. अगर लोकसभा और सभी विधानसभा चुनाव एक साथ कराए गए, तो इससे निरंकुशता की आशंका बढ़ जाएगी.
एनडीए के मुकाबले यूपीए को होगा घाटा
ढाई-ढाई साल का स्लॉट आवंटित हो. यानी पहले ढाई साल के स्लॉट में लोकसभा के साथ कुछ राज्यों के चुनाव कराए जाएं और फिर दूसरे ढाई साल के स्लॉट में बाकी बचे राज्यों के चुनाव हो. एक साथ सभी राज्यों के चुनाव कराए जाएं. अगर बीच में किसी राज्य में विधानसभा भंग होता है, तो वहां राष्ट्रपति शासन लागू कर केंद्र शासन करे. हालांकि, इस फॉर्मूले में कई पेंच भी है. कांग्रेस शासित 8 राज्यों में समय से पहले चुनाव होंगे- ढाई साल रोस्टर वाला फॉर्मूला लागू हुआ तो लोकसभा के साथ आंध्र प्रदेश, अरुणाचल, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, हरियाणा, झारखंड, केरल, मध्य प्रदेश, दिल्ली, ओडिशा, पुड्डुचेरी, राजस्थान, सिक्किम, तमिलनाडु, तेलंगाना. जम्मू-कश्मीर और पश्चिम बंगाल में विधानसभा के चुनाव हो सकते हैं. अभी राजस्थान, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु और दिल्ली में गठबंधन की सरकार है. राजस्थान और छत्तीसगढ़ को छोड़कर बाकी के 6 राज्यों की सरकार के पास 1 साल से अधिक का कार्यकाल बचा हुआ है. दिल्ली में फरवरी 2025, बिहार में नवंबर 2025, केरल, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में मई 2026 में चुनाव प्रस्तावित है. इन 8 में 6 राज्यों में बीजेपी नंबर-2 की पार्टी है. दूसरी तरफ महाराष्ट्र, हरियाणा, सिक्किम, मध्य प्रदेश, पुडुचेरी और अरुणाचल में एनडीए की सरकार है, जहां 2024 में चुनाव पहले से ही प्रस्तावित है. मध्य प्रदेश में तो नवंबर 2023 में ही चुनाव होने हैं. यानी एक देश- एक चुनाव का यह फॉर्मूला लागू होता है, तो एनडीए के मुकाबले इंडिया को ज्यादा नुकसान उठाना पड़ सकता है. इतना ही नहीं, आईडीएफसी इंस्टीट्यूट के एक सर्वे के मुताबिक 77 प्रतिशत मतदाता लोकसभा और विधानसभा चुनाव के वक्त एक ही पार्टी को वोट करती है. ऐसे में जानकारों का कहना है कि यह मुद्दा अगर बीजेपी भुनाने में कामयाब रही, तो पार्टी को फायदा मिल सकता है. यूपी, पंजाब और कर्नाटक में समय से पहले होंगे चुनाव- एक देश-एक चुनाव का रोस्टर फॉर्मूला अगर इसी लोकसभा चुनाव में लागू हुआ तो उत्तर प्रदेश, कर्नाटक पंजाब जैसे राज्यों में वक्त से पहले चुनाव हो जाएंगे. रोस्टर फॉर्मूला के मुताबिक लोकसभा चुनाव के ढाई साल बाद बाकी के राज्यों में विधानसभा के चुनाव होंगे. इसके हिसाब से 2026 के मध्य में बाकी बचे राज्यों में चुनाव हो सकते हैं. पंजाब, यूपी विधानसभा का कार्यकाल मार्च 2027, गुजरात-हिमाचल विधानसभा का कार्यकाल दिसंबर 2027 और कर्नाटक विधानसभा का कार्यकाल मार्च 2028 तक है. ऐसे में बड़ा सवाल तो यही क्या यह संवैधानिक अधिकारों का तो हनन नहीं? वन नेशन- वन इलेक्शन का प्रस्ताव अगर पास होता है, तो कई राज्यों की विधानसभा को भंग करना पड़ेगा. विधानसभा भंग करने का जिक्र संविधान के अनुच्छेद 176 में किया गया है. इसके मुताबिक पूर्ण बहुमत नहीं होने पर ही राज्यपाल समय से पहले विधानसभा भंग करने की सिफारिश कर सकता है. राज्य अगर यह तर्क देता है कि समय से पहले पूर्ण बहुमत की सरकार को गिराना गलत है, तो वन नेशन- वन इलेक्शन को लागू करना मुश्किल हो सकता है. दुसरा बड़ा सवाल यह है कि लोकसभा में ही बीच में भंग हो जाए, तो क्या होगा? विधानसभा को लेकर अब तक कई फॉर्मूला सामने आ चुका है, लेकिन सवाल है कि लोकसभा ही बीच में भंग हो जाए, तो क्या होगा? देश में 1979, 1991, 1997, 1999 में लोकसभा समय से पहले भंग हो चुका है. भविष्य में लोकसभा भंग होने पर क्या सभी विधानसभा को भी भंग किया जाएगा? अगर नहीं तो क्या एक देश-एक चुनाव का साइकिल मेंटेन रह पाएगा? अगर चुनाव के तुरंत बाद ही किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिलती है, तो उस स्थिति में क्या होगा?
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी
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