महिला आरक्षण : अभी लागू भले ना हो, लेकिन 2024 में रहेगी गूंज - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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बुधवार, 20 सितंबर 2023

महिला आरक्षण : अभी लागू भले ना हो, लेकिन 2024 में रहेगी गूंज

महिला आरक्षण बिल आने के बाद आधी आबादी में ढेरों की उम्मींद अभी से हिलोरे मारने लगी है। लेकिन सच तो यह है कि महिलाओं के लिए एक तिहाई रिजर्वेशन डिलिमिटेशन यानी परिसीमन के बाद ही लागू होगा. विधेयक के कानून बनने के बाद जो पहली जनगणना होगी, उसके आधार पर परिसीमन होगा. मतलब साफ है 2026 से पहले परिसीमन लगभग असंभव है, क्योंकि 2021 में होने वाली जनगणना कोविड-19 की वजह से अभी तक नहीं हो सकी है. या यूं कहे जटिल जनगणना और परिसीमन प्रैक्टिस जैसे पहलुओं में फंसा महिला आरक्षण विधेयक 2029 के संसदीय चुनाव से पहले लागू नहीं हो पाएगा. इसी कारण कांग्रेस, आम आदमी पार्टी समेत कई दलों के नेता ये पूछ रहे हैं कि क्या सिर्फ अभी 2024 का चुनाव पास देखकर सरकार ने महिला आरक्षण बिल पेशकर दिया. जबकि उसका फायदा अभी नहीं आगे होगा? ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है क्या महिला आरक्षण आगे पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनाव में लागू हो पाएगा? कहीं ’प्रधानपति’ वाला कल्चर संसद तो नहीं पहुंच जाएगा? महिलाओं को लोकसभा में 33 फीसदी आरक्षण कब से मिलेगा?

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संसद में लोकसभा की कार्यवाही के पहले ही दिन सरकार ने उस बिल को पेश कर दिया जो पिछले 27 साल से संसद के दोनों सदनों से पास होकर कानून नहीं बन सका था. ये महिला आरक्षण बिल है, जिसे लोकसभा में पेश करते हुए आज प्रधानमंत्री ने बिल का नाम नारी शक्ति वंदन अधिनियम बताया. इस बिल की खासियत यह है कि इसके समर्थन में भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दल हैं. लेकिन क्षेत्रीय पार्टिया पहले की तरह अब भी विरोध कर रही है। फिरहाल, विधेयक पारित होने के बावजूद इसका लाभ लेने के लिए महिलाओं को अभी और इंतजार करना पड़ेगा। पहली जनगणना के बाद लोकसभा और विधानसभा सीटों का परिसीमन होगा। इसके बाद आरक्षण लागू होगा। या यूं कहे महिला आरक्षण विधेयक के व्यावहारिक रूप में लागू होने में अभी तीन-चार साल और लगने के आसार हैं। लेकिन बड़ा सवाल तो यही है महिलाओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने की दुहाई देने वालों नेताओं को आखिर महिला आरक्षण विधेयक संसद में लाने की जरूरत क्यों पड़ी? क्या बिना आरक्षण के राजनीतिक दल महिलाओं को लोकसभा और विधानसभा चुनाव में पर्याप्त टिकट नहीं दे सकते?


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पिछले लोकसभा चुनाव में कुल 82 महिला सांसद चुनकर आई थी। मतलब साफ है जिस देश में आधी आबादी महिलाओं की हो वहां सिर्फ 15 फीसदी महिलाएं ही लोकसभा पहुंचे तो आश्चर्य होना स्वभाविक है। जबकि 2019 से पहले हुए चुनाव में जीतने वाली महिला सांसदों की संख्या 82 से कम रहती आई है। विधानसभाओं के हाल भी कमोबेश लोकसभा जैसे ही हैं। आजादी के बाद हुए पहले सात आठ चुनाव की बात छोड़ दी जाएं तो बीते 30 सालों में महिलाएं राजनीति में अधिक नजर आने लगी है। ऐसे में महिला आरक्षण भले ही तीन-चार साल बाद लागू हो, लेकिन राजनीतिक दल यदि चाहे तो कम से कम 25 फिसदी महिलाओं को टिकट दे ही सकते हैं। वैसे भी महिलाओं के सांसद और विधायक बनने से देश को लाभ तो मिलेगा ही, उनके खिलाफ होने वाले अत्याचार के मामले भी कम होंगे। बता दें, महिला आरक्षण 2029 लोकसभा चुनाव से पहलें संभव नहीं है. दरअसल आरक्षण को अमलीजामा पहनाने के लिए लंबी संवैधानिक प्रक्रिया है. इस बिल को 50  प्रतिशत राज्य विधानसभाओं की मंजूरी की आवश्यकता नहीं है. गृह मंत्रालय के मुताबिक जल्द ही इ बिल के सापेक्ष रूल्स नोटिफाई करेगी. इसके बाद देश  में जनगणना का काम शुरू होगा. फिर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज की अध्यक्षता में परिसीमन आयोग का गठन किया जाएगा. परिसीमन आयोग लोकसभा और विधानसभा परिसीमन के साथ-साथ महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीटों का चयन भी करेगा जो रोटेशन में बदलती रहेंगीं. यानी यह तो साफ है कि महिला आरक्षण कानून जनगणना और परिसीमन की प्रक्रिया पूरी होने के बाद ही लागू होगा. परिसीमन आयोग लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के आरक्षित 33 प्रतिशत सीटों का चयन काम पूरा कर अपनी रिपोर्ट सौंप जल्दी सौप देता है, तो उसके बाद जो भी विधानसभा चुनाव होंगे उनमें महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण लागू होगा. यहां जिक्र करना जरुरी है कि लोकसभा में महिला आरक्षण विधेयक पेश होने का देश की राजनीति पर बड़ा असर पड़ेगा। इससे तमाम राजनीतिक दलों पर महिलाओं को अधिक टिकट देने का दबाव होगा। महिला संगठनें महिलाओं को अधिक टिकट देने की मांग करेंगे। महिला आरक्षण विधेयक मे ’कोटे के भीतर कोटा’ को स्वीकार करना भी एक रिग्रेसिव स्टेप है और इसे राजनीतिक निहित साधने के रूप में देखा जा सकता है. ’कोटा के भीतर कोटा’ में अन्य पिछड़े वर्गों को बाहर करने से विधेयक का एक नया विरोध शुरू होने वाला है, जो अंततः पार्टी और वैचारिक जुड़ाव से परे होगा.


यूपी में  महिला सदस्यों की संख्या दोगुनी हो जाएगी

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देखा जाएं तो महिला आरक्षण बिल के लागू होने के बाद लोकसभा में अभी के मुकाबले महिला सदस्यों की संख्या दोगुनी हो जाएगी। वहीं, यूपी विधानसभा में महिला सदस्य करीब पौने तीन गुना बढ़ जाएंगी। यूपी में इस समय कुल 80 लोकसभा सीटें हैं। इसमें 12 महिला सांसद हैं। 33 फीसदी आरक्षण लागू हुआ तो 26 सीटें महिलाओं के लिए रिजर्व होंगी। इसमें भी एक-तिहाई सीटें एससी-एसटी के खाते में जाएंगी। यानी इस वर्ग से नौ महिलाओं का प्रतिनिधित्व अनिवार्य होगा। राज्यसभा की बात करें तो यूपी के कोटे में 31 सीटें हैं। अभी इनमें से छह पर महिला सदस्य हैं। पांच महिलाएं भाजपा के और एक सपा के सिंबल पर उच्च सदन में पहुंची हैं। इनकी भी संख्या बढ़कर 10 हो जाएगी। बता दें, यूपी में विधानसभा की 403 सीटें हैं। इस समय विधानसभा में कुल 48 महिला विधायक हैं, जो कुल सदस्य संख्या के 12 फीसदी से भी कम हैं। एक-तिहाई आरक्षण के बाद सदन में न्यूनतम 126 महिलाएं जरूर पहुंचेंगी। इनमें 42 महिलाएं एससी-एसटी की होंगी।


विधान परिषद की 100 पर महज 6 महिला सदस्य

विधान परिषद की 100 सीटों पर महज छह महिला सदस्य हैं। संविधान संशोधन के बाद इनके लिए 33 सीटें आरक्षित करनी होंगी। ऐसे में मौजूदा भागीदारी साढ़े गुना बढ़ जाएगी। आरक्षित सीटों में 11 एससी-एसटी के लिए होंगी। महिलाओं के लिए सियासी आरक्षण लागू होने का सीधा असर सत्ता और सियासी दलों की संगठनात्मक तस्वीर पर भी दिखेगा। बड़े सियासी दलों में लोकसभा या विधानसभा चुनावों में 10 से 15 फीसदी टिकट ही महिलाओं के हाथ आता है। 2022 में यूपी में कांग्रेस ने एक प्रयोग जरूर किया था और 40 फीसदी टिकट महिलाओं को दिया था। हालांकि, उसकी जमीन इतनी कमजोर थी कि प्रदेश में उसके कुल दो विधायक बने, इसमें एक महिला है। भाजपा ने 45 टिकट, सपा ने 42 और बसपा ने 37 टिकट महिलाओं को दिए थे। कुल 560 महिला उम्मीदवार विधानसभा चुनाव में उतरी थीं, जिनमें 47 को जीत मिली। प्रत्याशियों और जीते उम्मीदवारों के हिसाब से भी आजादी के बाद यह संख्या सर्वाधिक है। मई में हुए उपचुनाव में भी महिला के विधायक चुने जाने के बाद यह संख्या 48 हो गई है। हालांकि, आबादी के अनुपात में भागीदारी काफी कम है। खास बात यह है कि ’’जिताऊपन’ को जमीन बनाकर टिकट न दिए जाने का तर्क भी अब कमजोर होने लगा है। 2022 में पुरुष उम्मीदवारों की जीत का प्रतिशत 10 तो महिलाओं का भी 7 फीसदी से अधिक था, जो पहले के मुकाबले काफी बेहतर है। लोकसभा के पहले आम चुनाव में यूपी से छह महिलाएं सदन में पहुंची थीं, जबकि मौजूदा लोकसभा में यह संख्या दोगुनी यानी 12 है। हालांकि, 2014 के मुकाबले यह संख्या एक कम है। आरक्षण लागू होने के बाद सियासी दलों के लिए निकायों और पंचायतों की तरह यहां भी भागीदारी देना मजबूरी हो जाएगी।


सत्ता में भी धमक बढ़ेगी

महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था होने के बाद सदन ही नहीं सत्ता में भी उनकी धमक बढ़नी तय है। आधी आबादी के दावों के बाद भी सरकार में उनकी हिस्सेदारी 10 फीसदी तक पहुंचनी भी मुश्किल हो जाती है। जिस यूपी ने देश को पहली महिला प्रधानमंत्री और महिला मुख्यमंत्री देने का तमगा अपने नाम किया, उस प्रदेश की पहली सरकार के मंत्रिमंडल में कोई महिला सदस्य ही नहीं थीं। गोविंद बल्लभ पंत का मंत्रिमंडल महिला विहीन रहा तो संपूर्णानंद के पहले कार्यकाल में कोई महिला मंत्री नहीं थी। जब संपूर्णानंद दोबारा सीएम बने तो प्रकाशवती सूद को पहली बार मंत्री बनाया गया और बाद में सुचेता कृपलानी भी इस सूची में शामिल हुई। आगे चलकर वह किसी भी राज्य की पहली महिला सीएम बनीं। आनुपातिक भागीदारी के हिसाब से सबसे अधिक 16.60 फीसदी महिलाओं को वीर बहादुर सिंह के मंत्रिमंडल में जगह मिली थी। इसके बाद एनडी तिवारी ने भी सात महिलाओं को मंत्री बनाया था, जो कुल मंत्रिमंडल का 14.60 फीसदी था। महिला मुख्यमंत्री होने के बाद भी मायावती सरकार में महिलाओं की भागीदारी महज 5 फीसदी थी। मुलायम सरकार में 3.60 फीसदी तो अखिलेश सरकार में 2.60 फीसदी थीं। योगी आदित्यनाथ के पहले कार्यकाल में उनके मंत्रिमंडल पांच यानी 10.60 फीसदी महिला मंत्री थीं। मंत्रिमंडल विस्तार और एक महिला मंत्री की मृत्यु के बाद यह संख्या घटकर तीन रह गई। मौजूदा कार्यकाल में 52 में पांच महिलाएं मंत्री हैं, जो कुल टीम का 9.61 फीसदी है। सदन में आंकड़ा एक-तिहाई हुआ तो यहां भी संख्या बदलने की उम्मीद बढ़ जाएगी।


सियासत की हवा तय कर रहीं महिलाएं

भागीदारी में महिलाएं भले हाशिए पर हों, लेकिन पिछले कुछ चुनावों से सियासत की हवा और सत्ता का रास्ता बनाने में महिलाओं की भूमिका बढ़ गई है। 2019 के ही लोकसभा चुनाव में देश में 16 राज्य ऐसे थे, जहां महिलाओं का वोटिंग प्रतिशत पुरुषों से ज्यादा था। यूपी की 80 में 36 सीटों पर पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा महिलाएं ईवीएम तक पहुंची थीं। इसमें सोनिया गांधी की रायबरेली, स्मृति इरानी व राहुल गांधी का चुनावी कुरुक्षेत्र अमेठी, आजम खां के रामपुर से लेकर राममंदिर की सियासत का केंद्र अयोध्या तक शामिल है। आठ सीटें ऐसी रहीं जहां महिलाओं व पुरुषों के मतदान का आंकड़ा लगभग बराबरी पर था। 2014 के मुकाबले कुल मतदान प्रतिशत में जरूर थोड़ी गिरावट आई, लेकिन महिलाओं की वोटिंग यूपी में 2 फीसदी बढ़ गई थी। 2022 में यूपी में भाजपा की सत्ता में दोबारा वापसी की राह महिला वोटरों ने ही बनाई थी। खासकर सुरक्षा का मुद्दा भाजपा के लिए ट्रंप कॉर्ड बना था। इसलिए, सियासी दलों का घोषणापत्र हो या सरकारों की योजनाओं का खाका, उसमें महिलाओं के हित प्राथमिकता से उभरने लगे हैं। लोकसभा चुनाव के पहले नरेंद्र मोदी का महिला आरक्षण का दांव भी इसी सियासी अहमियत का प्रमाण है।


20 मुस्लिम महिलाएं चुनकर लोकसभा पहुंचीं

1951 के बाद से लगभग 7500 सांसदों में से अब तक मुश्किल से 20 मुस्लिम महिलाएं लोकसभा में पहुंची हैं. मई 2019 में गठित 17वीं लोकसभा तक पांच बार संसद के निचले सदन में कोई मुस्लिम महिला सदस्य नहीं थी. उतना ही चौंकाने वाला फैक्ट यह है कि संसद (543 सीटें) के लिए चुनी गईं मुस्लिम महिलाओं की संख्या निचले सदन में कभी भी चार के आंकड़े को पार नहीं कर पाई. महिला लोकसभा सांसदों की सूची में सजदा अहमद, ममताज संघमितानुसरत जहां, मासूम नूर, नूर बेगम, कैसर जहां, तब्बसुम बेगम, बेगम आबिदा अहमद, बेगम अकबर जहां, महबूबा मुफ्ती, रुबाब सैयदा, मोफिदा अहमद, मैमुना सुल्तान, चावड़ा जोहराबेन अकरबाई, मोहसिना किदवई और रानी नाराह का नाम शामिल है. सिर्फ मोहसिना किदवई ना केवल निर्वाचित प्रतिनिधि के रूप में कार्यकाल के मामले में बल्कि इंदिरा और राजीव गांधी कैबिनेट में उच्च पदों पर रहने के मामले में अद्वितीय स्थान रखती हैं. वर्तमान में निवर्तमान लोकसभा के 543 सदस्यों में से सिर्फ चार यानी 0.7 फीसदी सदस्य मुस्लिम महिलाएं हैं, जो एक अनुमान के अनुसार, सामान्य आबादी का 6.9 फीसदी हैं.


मोदी का मास्टरस्ट्रोक

बेशक, महिला आरक्षण विधेयक 2024 से नहले पीएम मोदी का मास्टरस्ट्रोक वाला दांव है। इस दांव से भाजपा, 2024 के लोकसभा चुनाव में 43 करोड़ महिलाओं को साधने की तैयारी कर रही है। ये दांव भी ऐसा है, जिसे लेकर विपक्ष भी अपनी खुशी जाहिर कर रहा है। यानी महिला आरक्षण बिल, यह ऐसा दांव है, जिसमें विपक्षी खेमें के पास नाखुशी का मौका तक नहीं है। कांग्रेस पार्टी ने लगे हाथ कह दिया कि ये तो उनके ही प्रयासों का नतीजा है। बता दें, गत लोकसभा चुनाव के समय जो मतदाता सूची जारी हुई थी, उसमें महिला वोटरों की संख्या 43.2 करोड़ थी, जबकि 46.8 करोड़ पुरुष मतदाता थे। 17 वीं लोकसभा में देश भर से 78 महिला सांसद जीत कर संसद में पहुंची थी। संसद में महिलाओं की उपस्थिति 14.36 प्रतिशत है। 2014 के लोकसभा चुनाव में 62 महिलाओं ने जीत दर्ज कराई थी। अगर 1951 की बात करें तो लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व महज पांच प्रतिशत था। साल 2019 में यह प्रतिशत बढ़कर 14 हो गया है।


कहीं पंचायत चुनावों जैसा हस्र तो नहीं?

लोकसभा चुनाव जब 2019 में हुआ तब 78 महिला सांसद चुनी गईं, लेकिन इनमें से 32 महिला सांसद या तो नेताओं की पत्नी हैं या नेताओं की बेटियां. यूपी से 11 महिला सांसद हैं. जिसमें दो गांधी परिवार से हैं. सोनिया गांधी और मेनका गांधी. दो महिला सांसद के पिता बड़े नेता रहे हैं या फिर अभी हैं. एक महिला सांसद के पति राजनीति करते हैं. यानी पांच सांसद नेताओं की पत्नी, बहू और बेटी हैं.झारखंड से दो महिला सांसद हैं, दोनों अपने पति की राजनीततिक विरासत को आगे बढ़ा रही हैं. 48 सीटों वाली महाराष्ट्र से 8 सांसद महिला हैं. इनमें 4 नेताओं की पुत्री और 2 नेताओं की बहुएं हैं. बंगाल से 11 महिला  सांसद चुनकर लोकसभा पहुंचीं, जिसमें से 4 सांसद फिल्मी बैकग्राउंड से हैं. यानी अभी 2019 के चुनाव में जो महिला सांसद बनीं, उनमें अधिकतर या तो राजनीतिक परिवार से हैं या फिर ऐसे बैकग्राउंड से जहां उनको टिकट देने का चुनाव सिर्फ जिताऊ मानकर किया गया है, ना कि महिला सशक्तीकरण के लिए. बता दें, 2019 के चुनावों में सिर्फ टीएमसी और बीजू जनता दल ऐसी पार्टी थी जिसने 33 फीसदी से ज्यादा टिकट महिलाओं को दिए. सवाल है कि बाकी दल सिर्फ आरक्षण के बाद ही क्यों टिकट महिलाओं को देना चाहते हैं. अगर वाकई सशक्तीकरण सब चाहते हैं तो टिकट भी पहले से ही महिलाओं को क्यों नहीं दिए जा सकते।


27 सालों से लटका था महिला आरक्षण बिल

अगर बीजेपी, कांग्रेस और वाम दलों ने महिला आरक्षण विधेयक में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग कोटे की मांग स्वीकार कर ली होती तो महिलाओं के लिए लोकसभा और विधानसभा की एक तिहाई सीटें रिजर्व करने का रास्ता 1990 के दशक में ही साफ हो गया होता. 2010 में गठबंधन का नेतृत्व कर रही कांग्रेस ने राज्यसभा में महिला आरक्षण विधेयक को मंजूरी दे दी थी, लेकिन मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और शरद यादव के कड़े विरोध के कारण मनमोहन सिंह सरकार इसे आगे नहीं बढ़ा सकी. यहां तक कि तृणमूल कांग्रेस भी अनुपस्थित रही. साल 1996, देवेगौड़ा सरकार के दौरान पहली बार देश में महिला आरक्षण बिल संसद में पहुंचा. लेकिन पास नहीं हो पाया. इसके बाद साल 1997 में इंद्र कुमार गुजराल की सरकार ने भी कोशिश की. लेकिन महिला आरक्षण बिल पर कामयाबी नहीं मिली. फिर 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार आई. महिला आरक्षण बिल फिर संसद की दहलीज तक पहुंचा. लेकिन पास नहीं नहीं हो पाया. इसके बाद 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी फिर से प्रधानमंत्री बने. फिर सदन में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण संसद में देने वाला बिल आता है. लेकिन पास नहीं हो सका. फिर आया साल 2010, जब मनमोहन सिंह की सरकार के दौरान राज्यसभा में महिला आरक्षण बिल पास तो हुआ. लेकिन लोकसभा तक  फिर पहुंचा ही नहीं. 






Suresh-gandhi


सुरेश गांधी

वरिष्ठ पत्रकार

वाराणसी

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