उत्तर भारत में डॉ राममनोहर लोहिया के समाजवादी आंदोलन के कारण गैरसवर्णों जातियों का आधिपत्य बढ़ता जा रहा था। इन जातियों से बड़ी संख्या में नेता भी निकल रहे थे। कर्पूरी ठाकुर, रामसुंदर दास, कांशीराम वोट की ताकत की उपज थे। 1990 के बाद मंडल आंदोलन ने भारतीय राजनीति के पेट का चरित्र बदल दिया। सभी पार्टियों ने सवर्णों के बजाये गैरसवर्ण जाति के नेताओं को आगे बढ़ाने की परिपार्टी शुरू की। कांग्रेस ने सीताराम केसरी को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया तो भाजपा ने बंगारू लक्ष्मण को पार्टी का राष्ट्रीय नेतृत्व सौंपा। बाद के दिनों में भाजपा ने कल्याण सिंह, बाबूलाल गौड़, शिवराज सिंह चौहान, उमा भारती जैसे नेताओं को प्रदेशों की कमान सौंपी। वजह यह थी कि इन नेताओं का जातीय आधार था और वोट की बड़ी ताकत इनके पास थी। 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने भी खुद को ओबीसी बताकर वोट मांगा था। इन जातियों के ताकतवर होने की वजह थी वोट का अधिकार। वे अलग-अलग समय पर अलग-अलग पार्टी और नेता को वोट डाल रहे थे। लोकसभा में एक पार्टी को तो विधानसभा में दूसरी पार्टी को वोट डाल रहे थे। इनके पास वोट की बहुलता थी। पांच साल में पांच बार अलग-अलग चुनाव के लिए वोट देने का मौका मिल रहा था। इससे वोटर राजनीतिक रूप से ज्यादा जागरूक हो रहे थे और ताकतवर भी। वन नेशन वन इलेक्शन इसी जागरूकता पर ब्रेक लगाने की साजिश है। वोट की ताकत से गैरसवर्ण जातियों के नेताओं की एक बड़ी फौज खड़ी हो गयी। इससे भयाक्रांत भाजपा का सवर्ण नेतृत्व ने साजिश के तहत वोट का अधिकार कम करने या छीनने की साजिश के तहत नया फार्मूला लाया है। यह फार्मूला आम आदमी का अधिकार को कम और लोकतंत्र को संकुचित करेगा। इसका सबसे ज्यादा खामियाजा गैरसवर्णों को भुगतना पड़ेगा।
--- वीरेंद्र यादव, वरिष्ठ संसदीय पत्रकार ---
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