हर क्षेत्र में अपना योगदान करने वाली और सभी तरह की चुनौतियों का डटकर सामना कर रही लड़कियों के अधिकारों के लिए जागरूकता फैलाना और उनके सहयोग के लिए दुनिया को जागरूक करने के उद्देश्य से अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस का भी आयोजन किया जाता है. जिसका मुख्य उद्देश्य बालिकाओं के मुद्दे पर विचार करके इनकी भलाई की ओर सक्रिय कदम बढ़ाना तथा संघर्ष, शोषण और भेदभाव का शिकार होती लड़कियों की शिक्षा और उनके सपनों को पूरा करने के लिए व्यापक कदम उठाने पर ध्यान केंद्रित करना है. लेकिन सवाल उठता है कि क्या यह उद्देश्य अपने लक्ष्य को प्राप्त कर रहा है? क्या भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश में लड़कियों के लिए शिक्षा का वातावरण तैयार किया जाता है? क्या लड़कियों विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों की लड़कियों को स्कूल से लेकर पीएचडी तक शिक्षा प्राप्त करना आसान होता है? क्या माता पिता और समाज गांव की लड़कियों को इतना अधिकार देता है कि वह उच्च शिक्षा प्राप्त कर आत्मनिर्भर बन सकें, अपने सपनों को साकार कर सकें और अपनी मर्ज़ी से अपने जीवनसाथी का चुनाव कर सके? हर साल 10वीं और 12वीं कक्षा के परिणाम घोषित होते ही एक वाक्य खबरों में आम सुनाई देता है कि इस बार भी लड़कियां बाज़ी मार गईं. परंतु एक बात गौर करने योग्य है कि जैसे-जैसे यह लड़कियां कॉलेज और विश्वविद्यालय में जाने लगती हैं, उनके आंकड़े धीरे-धीरे कम होने लगते हैं. संख्या की दृष्टि से लड़कियां कम होती जाती हैं. स्कूल से स्नातक की कक्षाओं तक पहुंचते पहुंचते स्थिति बदल जाती है और एडमिशन लेने वाली लड़कियों की संख्या में तेज़ी से गिरावट होने लगती है. इसका एक उदाहरण केंद्र प्रशासित जम्मू कश्मीर का पुंछ जिला स्थित मंगनाड गांव है. जहां दसवीं तक शत प्रतिशत लड़कियां स्कूल जाती हैं. बारहवीं में इस संख्या में गिरावट आने लगती है और स्नातक में यह संख्या मात्र 5 से 10 प्रतिशत ही रह जाती है.
इस संख्या में गिरावट का सबसे बड़ा कारण उनकी शादी हो जाना है. ज्यादातर माता-पिता अपनी बेटी का रिश्ता 15 से 16 वर्ष की उम्र में कर देते हैं और जैसे ही वह माध्यमिक की कक्षा पूरी करती है, उसकी शादी की तैयारी हो जाती है और स्नातक में एडमिशन की जगह उसकी विदाई कर दी जाती है. हालांकि यह गांव डिस्ट्रिक्ट हेडक्वार्टर से मात्र 6 किमी की दूरी पर है. साक्षरता के दृष्टिकोण से भी यह गांव पुंछ के अन्य गांवों की तुलना में बेहतर है. इस गांव में सरकारी कर्मचारियों की भी एक बड़ी संख्या है. कुछ लोग उच्च पदों पर हैं. इसके बावजूद गांव में लड़कियों को शिक्षित करने की जगह परिवार में उसकी शादी को लेकर अधिक चिंता की जाती है. हालांकि जिन परिवारों की लड़कियों को उच्च शिक्षा मिली है, उसके परिणाम भी देखने को अच्छे मिले हैं. ज़्यादातर उच्च शिक्षित लड़कियां सरकारी अथवा निजी कंपनियों में सम्मानजनक पदों पर काम कर रही हैं. इसके बावजूद गांव में लड़कियों को उच्च शिक्षा दिलाने के प्रति लोगों में उदासीनता कई सवालों को जन्म देता है. इस संबंध में स्थानीय समाजसेवी सुखचैन लाल कहते हैं कि यह गांव भले ही शिक्षा के क्षेत्र में तेज़ी से तरक़्क़ी कर रहा है, लेकिन यहां के निवासी आज भी अपनी पुरानी सोच से बाहर नहीं निकल पाए हैं. विशेषकर लड़कियों के प्रति उनके नज़रिये में केवल इतना ही बदलाव आया है कि वह उसकी शादी से पहले तक पढ़ने की इजाज़त देते हैं. लेकिन लड़की की आयु 16 साल होते ही उसकी शादी की तैयारियों में जुट जाते हैं. यही कारण है कि स्नातक तक पहुंचने वाली लड़कियों का प्रतिशत दो अंकों में भी नहीं रह जाता है.
वैसे बात केवल इस गांव की ही नहीं है, बल्कि अन्य राज्यों की तुलना में जम्मू कश्मीर लड़कियों की शिक्षा में काफी पीछे है. देश के 25 से भी ज्यादा राज्य ऐसे हैं जो लड़कियों की शिक्षा के मामले में जम्मू कश्मीर से आगे हैं. आंकड़ों के हिसाब से समझे तो देश के कुल 36 राज्य और केंद्र प्रशासित राज्यों में केवल आठ राज्य और केंद्र प्रशासित राज्य ही ऐसे हैं, जहां बालिका शिक्षा का प्रतिशत जम्मू कश्मीर की तुलना में कम है. बाकी बचे 28 राज्य और केंद्र प्रशासित राज्यों में लड़कियों की शिक्षा जम्मू कश्मीर के मामले में ज्यादा है, अर्थात लड़कियों की पढ़ाई के मामले में जम्मू कश्मीर अभी भी बहुत पीछे है. जम्मू कश्मीर में जहां पुरुष साक्षरता की दर 85.7 प्रतिशत है, वहीं महिला साक्षरता दर केवल 68 प्रतिशत है. यह आंकड़ा भी इस बात का गवाही देता है कि जम्मू कश्मीर में लड़कियों की शिक्षा की स्थिति में अभी भी बहुत सुधार करने की ज़रूरत है. इसके लिए सबसे पहले समाज को जागरूक करने की आवश्यकता है. यह बताने की ज़रूरत है कि केवल एक दिन नहीं, बल्कि सभी दिन बालिकाओं के हैं. समाज को उनकी शादी से अधिक शिक्षा की चिंता करनी चाहिए ताकि शहर ही नहीं, गांव की किशोरियां भी सशक्त और आत्मनिर्भर बन सके. यदि पुरुष और महिला साक्षरता की दर के अंतर को कम करना है तो 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' के नारे को विज्ञापन से निकाल कर धरातल पर साकार करने होंगे.
भारती देवी
पुंछ, जम्मू
(चरखा फीचर)
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