दरअसल बिहार में कोई भी कुशवाहा सामाजिक, राजनीतिक और वैचारिक चिंतक हिंदुत्व की रुढि़यों को स्वीकार नहीं किया है, बल्कि इसके खिलाफ मजबूत धारा का नेतृत्व कुशवाहा चिंतक ही करते रहे हैं। वैसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि हिंदूवादी रुढि़यों की राजनीति करने वाली भाजपा के साथ कुशवाहा समाज जाएगा। कुशवाहा समाज का राजनीतिक टेस्ट कभी सवर्ण आधिपत्य वाला हिंदुत्व नहीं रहा है। वह बराबर सवर्ण और सामंती आधिपत्य के खिलाफ लड़ता रहा है। यही कारण है कि ज्योति प्रकाश समेत कई कुशवाहा नेता वामपंथ की राजनीति में भी अपना दखल रखते थे। भाजपा कुशवाहा समाज की संख्या को देखते हुए उसे अपने साथ करने की कोशिश कर रही है। सम्राट चौधरी को प्रदेश अध्यक्ष बनाने के साथ ही उपेंद्र कुशवाहा को भी अपने खूंटे पर बांध रखा है। लेकिन राजनीतिक यथार्थ यही है कि भाजपा से जुड़े कुशवाहा नेता अपनी टिकट वाली सीट पर कुशवाहा वोट लेने में काफी हद तक सफल होते हैं, लेकिन वे अपने प्रभाव से किसी अन्य सीट पर भी कुशवाहा जाति का वोट भाजपा को दिलवाने में सफल नहीं होते हैं। अब समय बतायेगा कि ओबीसी का ब्राह्मण यानी कुशवाहा समाज हिंदुत्ववादी ब्राह्मण के प्रपंच से बचता है या अपने सामाजिक और राजनीतिक चरित्र व चेतना को खोकर भाजपा के साथ खड़ा होता है।
--- वीरेंद्र यादव, वरिष्ठ पत्रकार, पटना ---
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