माले महासचिव ने कहा कि वह गैरबराबरी कम होने की बजाए लगातार बढ़ रही है. यदि यह देश हिंदू राष्ट्र बन गया तो इसका मतलब कुछ और नहीं बल्कि यही होगा कि देश को मनुवाद के गडढे में धकेल दिया गया, जिसकी बुनियाद सामाजिक गैरबराबरी है. इसलिए आज हम सबको सामाजिक गुलामी व आर्थिक गैरबराबरी को मिटाने का एक मजबूत संकल्प लेना होगा. 2020 में जब लोग कोरोना से परेशान थे, मोदी सरकार ने ‘आपदा में अवसर’ तलाशते हुए किसानों के खिलाफ कानून बना दिया था और मजदूरों के अधिकार छीनने की कोशिश की थी. 2020 में 26 नवंबर के ही दिन पूरे देश में मजदूर-किसान आंदोलन के नए उभार की शुरूआत हुई. एक तरफ हर किस्म के मजदूरों ने देशव्यापी आम हड़ताल की थी तो खेती को कॉरपोरेटों के हवाले करने वाले तीन कृषि काननों के खिलाफ दिल्ली की सीमा पर ऐतिहासिक किसान आंदोलन की शुरूआत हुई थी. उस ऐतिहासिक किसान आंदोलन के दबाव में तीनों कानून वापस हुए थे. कानून तो वापस हुए, लेकिन एमएसपी पर फसल की खरीददारी, कर्ज मुक्ति आदि मांगें आज तक पूरी नहीं हुई. देश में किसानों की आत्महत्या बढ़ती जा रही है. किसानों की आय दुगुनी नहीं हुई, उलटे महंगाई लगातार बढ़ती जा रही है. इसलिए देश के किसान आज एक बार फिर सड़क पर हैं.
हमारे देश में मजदूरों के लिए 8 घंटे का श्रम कानून बाबा साहेब की अगुवाई में बना था. आज उन सारे कानून को खत्म कर मजदूरों को गुलाम बनाने की कोशिश हो रही है. इसलिए किसान आंदोलन की तर्ज पर आज सभी मजदूरों की एकता समय की मांग है. एकता व संघर्ष के रास्ते ही इस देश के मजदूर-किसानों ने अपने अधिकार हासिल किए थे और हासिल कर सकते हैं. आगे कहा कि संविधान खतरे में है. खुलेआम कहा जा रहा है कि बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर का संविधान अंग्रेजों के जमाने का संविधान है. ‘अमृत काल’ में इस संविधान की कोई जरूरत नहीं है. दरअसल मोदी सरकार अब किसी भी किस्म के आंदोलन को बर्दाश्त नहीं कर सकती. उसकी समझ है कि देश का जो संविधान है, वही जनता को आंदोलन की ताकत देता है. देश में अभी जो बचा-खुचा लोकतंत्र व संविधान है, उसी के बल पर किसान आंदोलन ने व्यापक समर्थन हासिल करते हुए जीत हासिल की थी और सरकार को झुकाया था. इसलिए मोदी सरकार इस संविधान को ही खत्म कर देना चाहती है ताकि देश में मजदूर किसान-आंदोलन की संभावना ही न रहे. इसलिए संविधान की रक्षा के लिए हम सबको मिलकर आज एक व्यापक लड़ाई लड़नी होगी.
संविधान, किसान और मजदूरों के अधिकार की हिफाजत में आज से पूरे देश में महाजुटान हो रहा है. मोदी सरकार ने 9 साल पूरे कर लिए हैं. देश की जनता ने 2024 में उसे धूल चटाने का मंसूबा बना लिया है. देश के कई राज्यों में विधानसभा के हो रहे चुनाव में भी वह हार रहे है. उन्होंने बिहार के सामाजिक-आर्थिक सर्वे की भी चर्चा की. कहा कि 6000 रु. मासिक तक आमदनी वाले 34 प्रतिशत परिवार हैं, जिन्हें गरीब माना गया है. यदि 10 हजार रु. मासिक आमदनी परिवार वालों को भी गरीबी रेखा से नीचे माना जाए तो गरीबी का आंकड़ा 60 प्रतिशत से अधिक हो जाता है. यह एक भयावह स्थिति है. बिहार सरकार को इसके लिए एक व्यापक कार्ययोजना बनानी चाहिए. उसने गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों को आर्थिक सहायता की घोषणा की है, यह स्वागतयोग्य है, लेकिन सरकार जिन लोगों से भी काम ले रही है उन्हें कम से कम 6000 रु. मासिक वेतन देने की गारंटी करे. हम देखते हैं कि आशा, रसोइया, आंगनबाड़ी, ममता जैसे वर्करों को इससे काफी कम मिलता है. अगर 6 हजार रु. मासिक गरीबी की रेखा है तो कम से कम इतना ही पेंशन देना होगा. आरक्षण का विस्तार हुआ है, लेकिन आरक्षण बढ़ा देने भर से काम नहीं चलेगा. सरकारी नौकरी महज 1.5 प्रतिशत लोगों के पास है. यदि सरकारी नौकरी होगी नहीं तो आरक्षण कहां मिलेगा? आरक्षण का वास्तविक फायदा मिले तो इसके लिए रोजगार के अवसरों को व्यापक पैमाने पर बढ़ाने की जरूरत है. कृषि विकास सहित कृषि आधारित उद्योग धंधों को लगाने की जरूरत है.
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