उगते सूरज को पूरी दुनिया सलाम करती है। अलबत्ता डूबते हुए सूरज व उसके योगदान के वंदन-अभिनन्दन की परंपरा इस्पाती धागों से बुनी भारतीय धर्म-दर्शन की उजली चादर की छांव में ही पुष्पित पल्लवित हो सकती है। कारण यह कि इस उदात्त दर्शन में शिव-शव, जन्म-मृत्यु व उदय-अवसान सबको एक दृष्टि व समान भाव से स्वीकार व अंगीकार करने का माद्दा सहज श्रद्धा के रूप में इसी में समाहित है। देखा जाएं तो सूर्य ही पूरी दुनिया के लिए प्रत्यक्ष देवता है। इनके बिना मानव तो दूर जीव-जंतु और पेड़-पौधों की उत्पत्ति ही संभव नहीं है। मतलब साफ है सूर्य की किरणों से प्राप्त होने वाली ऊर्जा के बिना इकोसिस्टम की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यही वजह है कि सूर्योपासना का पर्व छठ राष्ट्रीय पर्व जैसा बन गया है। जर्मनी, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, जापान सहित पूरी दुनिया में छठ मनाया जाने लगा हैइस ग्लोबल दुनिया में छठ अर्थात सूर्योपासना की धार्मिक-सांस्कृतिक मान्यताएं एवं स्थापनाएं भी पूर्ववत हैं। सूर्योपासना का यह पर्व अपने भीतर कई किंवदंतियों को समेटे है। पौराणिक कथाओं में भी भगवान भास्कर को अर्घ देने का जिक्र मिलता है। तब से अब तक जमाना चाहे जितना बदल गया हो, छठ करने के तरीके में कोई बदलाव नहीं आया है। न मंत्र न पुरोहित, बल्कि प्रकृति के नेमत के साथ हम डूबते और उगते सूर्य के सामने समर्पण करते हैं। भला क्यों नहीं, सूर्य ही एकमात्र ऐसे जागृत देवता है साक्षात दिखते हैं। सात घोड़ों पर सवार होकर अरुणिमा फैलाता पृथ्वी पर आता है सूर्य। दिनकर, दीनानाथ, मार्तंड होता हुआ दिवाकर अवसान की ओर बढ़ जाता है, कल पुनः लौटने के लिए। कोणार्क का सूर्य मंदिर तो इसका जीता जागता उदाहरण है। मानव हो या पशु-पक्षी अंधकार छटने और सूर्योदय की लालिमा देखने से शुरु होती दिनचर्या शाम ढलने पर ही खत्म होती है। इसी के सहारे सारे प्राणी सोते-जागते पूरी सृष्टि का नजारा देखते हैं। यह साथ होता है तो सबकुछ साफ-साफ दिखता है, नहीं होता तो कुछ भी नहीं, लेकिन यह वश में नहीं हैं। इसकी कृपा हो सकती है - धरती पर, जल और जमीन पर, लेकिन इस पर कोई कृपा नहीं की जा सकती। या यूं कहे सूर्य से ही सारी सृष्टि चल रही है। सब कुछ सूर्य पर निर्भर है। प्रकाश ही नहीं, जीवन भी देता है सूर्य। यही खासियत और अनुशासन सूर्य को देवता बनाता है। यही वजह है कि चर-अचर समेत पूरे कायनात में सबसे पूज्नीय देवताओं में से एक है भगवान सूर्य। वह अदम्य है, अथाह है, अक्षुण्य है। उसका होना पृथ्वी और चंद्र सहित सभी ग्रहों-उपग्रहों के लिए अनिवार्य हैं। वह न हो तो कोई भी ग्रह पिंड में तब्दील में हो जाये। लोकजन में भी सूर्य को आरोग्य देवता भी माना जाता है। सूर्य की किरणों में कई रोगों को नष्ट करने और निरोग करने की क्षमता पायी जाती है। माना जाता है कि ऋषि-मुनियों ने छठ के दिन इसका प्रभाव विशेष पाया और यहीं से छठ पर्व की शुरुआत हुई। ऐसे प्रत्यक्ष देवता की पूजा भला कौन नहीं करना चाहेगा।
गीत भी देते है संदेश
इस अवसर पर जो भी गीत गाये जाते हैं। वे प्रायः सूर्य से संबंधित होते हैं। किसी में भास्कर भगवान की महिमा होती है तो कहीं पर आदित्य से शीघ्र उदय होने की प्रार्थना की गई है। इन गीतों में समस्त मानव को सूर्य देवता का सेवक माना गया है। ये सभी गीत पूर्णतः धर्म एवं समाज से जुड़े होते हैं। जब स्त्रियां गीत गाती हुईं किसी जलाशय के किनारे जाने के लिए घर से निकलतीं हैं तो उस समय वे निम्न गीत गाती हैं।
“कांचहि बांस के दउरवा, दउरा नइ नइ जाइ।
केरवा से भरल दउरवा, दउरा नइ नइ जाइ।
होखना कवन राम कहरिया, दउरा घाटे पहुंचाई।
बाट जे पूछेला बटोहिया, इ दउरा केकरा के जाइ।
तें ते आन्हर बाड़े रे बटोहिया, इ दउरा छठी मइया के जाइ।“
इस गाने का भावार्थ है कि एक स्त्री कह रही है, मैं अपने स्वामी को गिरवी रखकर छठी माता को पांच प्रकार के फलों का अर्घ्य दूंगी। दो-दो बांस की सूपली से छठी माता को अर्घ्य दूंगी।
“कहेली कवन देइ हम छठि करवो,
अपना स्वामी जी के गिरवी रखबो।
पांच करहरिया मइया के अरघ देवो,
दोहरी कलसुपये मइया के अरघ देवो।“
दरअसल इस गीत पर गौर करें तो यहां पर भारतीय नारी के लिए यह सबसे बड़ा त्याग परिलक्षित होता है कि वह अपने पति को गिरवी रखकर छठी माता की पूजा करने के लिए तैयार है। वह दो-दो सुपली से भगवान भास्कर को अर्घ्य देने का प्रण करती है। इससे इस व्रत की महिमा और उसकी लोकप्रियता प्रकट होती है। ऐसे तमाम गीत जब इस मौके पर स्त्रियां गाती हैं तो भक्ति की एक असीम धारा प्रवाहित होती हैं। स्त्रियां जब ‘ए छठि मइया ए छठि मइया’ को बार-बार दुहराती हैं उस समय मानो ऐसा प्रतीत होता है कि उनके हृदय भक्ति भावना से ओत-प्रोत है और वे छठि मइया को गोहराने में ही लीन हैं।
स्वच्छता का संदेशवाहक है ‘छठ‘
प्रकृति की प्रतिष्ठा को स्थापित करने वाला छठ एक ऐसा पर्व है, जिसका नाम सुनते ही शरीर के अंग-अंग से आध्यात्म की सरिता फूट पड़ती है। महिमा इतनी अपरंपार है कि इस आध्यात्म की धारा निराकार या अलौकिक न होकर लौकिक हो जाती है। खासतौर से उस दौर में जब दुनियाभर में प्रकृति-पर्यावरण को लेकर वैज्ञानिक समेत पूरा कायनात चिंतित है। सामूहिकता में मनाया जाने वाला लोकपर्व छठ संदेश देता है कि हम अपने आसपास हर दिन सफाई करें। पर्यावरण को बचाएं और प्रकृति पर मंडरा रहे खतरे को दूर भगाएं। सूर्य जागृत ईश्वर है। इसीलिए छठ को प्रकृति पर्व कहा जाता है। या यूं कहे इस पर्व का प्रकृति के साथ सबसे करीबी रिश्ता माना जाता है। सूर्य की पूजा से न सिर्फ मन व शरीर शुद्ध होता है बल्कि प्रकृति के करीब पहुंचने का अवसर मिलता है। इस पर्व की महत्ता धार्मिक के साथ वैज्ञानिक भी है। इसमें व्रतियों की श्रद्धा की महापरीक्षा भी होती हैं। कहते है साफ-सफाई के मामले में व्रतियों की एक भूल पूण्य की जगह पाप भोगने को विवश कर देती है। यही वजह है कि यह पर्व सामूहिक रूप से लोगों को स्वच्छता की ओर उन्मुख करता है। अर्थात प्रकृति को सम्मान व संरक्षण देने का संदेश भी यह पर्व देता है। आज जबकि पूरी दुनिया में पर्यावरण को लेकर चिंता जतायी जा रही है, तब छठ का महत्व और जाहिर होता है। इस पर्व के दौरान साफ-सफाई के प्रति जो संवेदनशीलता दिखायी जाती है, वह लगतार बनी रहे तो पर्यावरण का भी भला होगा। छठ पूजा की प्रक्रिया के बारे में वैज्ञानिकों का कहना है कि इससे सेहत को फायदा होता है। सूर्य को अर्घ देने के लिए उपयोग में लाया जाने वाला हल्दी, अदरक, मूली और गाजर जैसे फल-फूल स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद होते हैं। सूर्य की सचेष्ट किरणों का प्रभाव मनुष्य ही नहीं पेड़-पौधों पर पड़ता है। पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ देने से शरीर को प्राकृतिक तौर में कई चीजें मिल जाती हैं। पानी में खड़े होकर अर्घ देने से टॉक्सिफिकेशन होता है जो शरीर के लिए फायदेमंद होता है। यह वैज्ञानिक तथ्य है कि सूर्य की किरणों में कई ऐसे तत्व होते हैं जो प्रकृति के साथ सभी जीवों के लिए लाभदायक होते हैं। ऐसा माना जाता है कि सूर्य को अर्घ देने के क्रम में सूर्य की किरणें परावर्तित होकर आंखों पर पड़ती हैं। इससे स्नायुतंत्र सक्रिय हो जाता है और व्यक्ति खुद को ऊर्जान्वित महसूस करता है।
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी
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