एक मजबूत वैचारिक आधार भाजपा को अडिग समर्थकों का ऐसा समूह देता है जिस पर वह भरोसा कर सकती है। लेकिन लगातार चुनाव जीतने के लिए उसे इस मूल आधार को मजबूत करना होता है। भारत के कुछ सबसे गरीब राज्यों में इसकी बार-बार मिली सफलताएं दिखाती हैं कि इसका समर्थन आधार सभी सामाजिक समूहों में फैला हुआ है, खासकर हिंदी भाषी राज्यों में। यही कारण है कि भले ही जाति एक ज्वलंत सामाजिक मुद्दा बनी हुई है, लेकिन 1990 के दशक की तुलना में अब इसके राजनीतिक प्रभाव बहुत अलग हैं। भारत अपने प्रभावशाली आर्थिक विकास के मामले में एक वैश्विक अपवाद है। न केवल अवसरों का विस्तार करने के लिए विकास आवश्यक है, बल्कि यह सरकारों को उनकी योजनाओं को साकार करने के लिए संसाधन भी प्रदान करता है। जीडीपी वृद्धि अक्सर विशेषज्ञों के पूर्वानुमानों से बेहतर प्रदर्शन करती है, जैसा कि उसने दूसरी तिमाही के मैक्रो डेटा में किया था। आय और कॉर्पोरेट कर संग्रह में तेजी आई है और घाटा मध्यम है, जिससे भारत सरकार को चुनौतियों से निपटने की छूट मिलती है। भारत का विकास पैटर्न, विशेष रूप से महामारी के बाद, वितरण के मामले में असमान है। भाजपा जमीनी स्थिति को भांपने और इसे कम करने के लिए राजकोषीय पैकेज के साथ प्रतिक्रिया करने में तेज रही है। भारत सरकार के राजस्व संग्रह में विस्तार के साथ इसने मई 2022 से उपभोक्ताओं को ऊर्जा की कीमतों में वैश्विक उछाल से बचा लिया है। पेट्रोल और डीजल की कीमतों पर रोक और रसोई गैस की दरों में कमी बड़े उदाहरण हैं। इस पर कई राज्य स्तरीय योजनाएं सोने पर सुहागा का काम करती हैं।पांच राज्यों के चुनाव परिणाम का ंसंकेत साफ है, नेता हो या दल चाहे जितनी जाति जनगणना, मंडल-कमंडल व आरक्षण की दुहाई दें, जनमानस अब विकास, कानून-व्यवस्था व सुरक्षा देने वालें के साथ ही खड़ी होगी। बता दें, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, व राजस्थान सहित अन्य विधानसभा चुनावों मे जाति जनगणना का मुद्दा उठाकर जातियों के वोट हासिल करने के लिए हर हथकंडे अपनाएं गए। या यूं कहे जाति व अगड़ा-पिछड़ा का मुद्दा उठाकर देश को बांटने की भरपूर कोशिश हुई, लेकिन भाजपा के चार बड़ी जातियों - नारी, युवा, किसान और गरीब के आगे हवा गए। जनता ने कांग्रेस सहित इंडिया गठबंधन के जाति जनगणना के सहारे 2024 की जीत के ख्वाब की धुर्री उड़ा दी। जाति-आधारित क्षेत्रीय दल फिर से विकास के आगे चारों खाना चित हो गएं
मोदी मैजिक का जवाब नहीं
अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों का सेमीफाइनल कहे जा रहे विधानसभा चुनावों के नतीजों ने कुछ बातें बिल्कुल साफ कर दी हैं। पहली, बीजेपी उत्तर भारत में बेहद ताकतवर है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का कोई जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं है। इन चुनावों में कांग्रेस ने प्रदेश नेताओं को तरजीह देने की रणनीति अपनाई थी, जबकि बीजेपी सभी राज्यों में कलेक्टिव लीडरशिप के आधार पर पीएम मोदी के चेहरे के भरोसे मैदान में उतरी थी। चुनाव नतीजों ने स्पष्ट कर दिया है कि आम वोटरों के बीच पीएम मोदी के नाम और चेहरे का सिक्का आज भी पहले की ही तरह चलता है। दूसरी, बीजेपी और कांग्रेस दोनों ने मुफ्त रेवड़ियों की घोषणा करने में उदारता दिखाई थी। लेकिन वोटरों ने कांग्रेस की गारंटी के बजाय मोदी की गारंटी को प्राथमिकता दी, जिससे साफ है कि मोदी के नाम की विश्वसनीयता कहीं ज्यादा है। तीसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि इन चुनावों में कांग्रेस का कास्ट सेंसस का कार्ड नहीं चला। इस कार्ड की अहमियत इस बात से समझी जा सकती है कि बीजेपी भी इस मसले पर दबाव में थी और रक्षात्मक मुद्रा में दिख रही थी। लेकिन चुनाव नतीजों से साफ हो गया है कि ओबीसी का सपोर्ट काफी हद तक बीजेपी के साथ बना हुआ है। ऐसे में आगामी लोकसभा चुनावों के लिहाज से यह मसला अपनी अहमियत खो चुका है। राज्यों की बात की जाए तो मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान को इस बात का श्रेय देना होगा कि मुख्यमंत्री उम्मीदवार नहीं बनाए जाने के बावजूद वह पूरे दम-खम से मैदान में डटे रहे और बड़ी जीत हासिल की। छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस सत्ता से बाहर जरूर हुई, लेकिन दोनों जगह इसने अच्छी फाइट दी। इस लिहाज से मानना होगा कि सत्ता गंवाने के बाद भी कांग्रेस दोनों राज्यों में काफी हद तक अपनी जमीन बचाए हुए है। कांग्रेस नेतृत्व के लिए बुरी बात यह है कि वह छत्तीसगढ़ में अपनी जीत मानकर चल रही थी और कई हलकों में भी ऐसे ही दावे किए जा रहे थे, लेकिन राज्य में बीजेपी का जमीनी स्तर पर कैंपेन काम आया। तेलंगाना में कांग्रेस को शानदार जीत मिली है। वहां छह महीने पहले तक उसे मुकाबले में भी नहीं माना जा रहा था। मगर क्षेत्रीय पार्टी बीआरएस को उसने बुरी तरह पराजित कर दिया। ऐसे में यह सवाल खासा अहम हो गया है कि इंडिया गठबंधन यहां से किस तरह आगे बढ़ेगा। क्या उसमें शामिल अन्य क्षेत्रीय पार्टियां कांग्रेस को अपने लिए चुनौती के रूप में देखेंगी? क्या प्रतिकूल चुनाव नतीजों से कांग्रेस को लगा झटका उसे अन्य सहयोगी दलों के लिए ज्यादा स्वीकार्य बनाएगा? इन सवालों के जवाब अगले कुछ दिनों और हफ्तों में मिलेंगे, लेकिन इतना तय है कि बीजेपी अब ज्यादा आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ेगी जबकि विपक्षी गठबंधन को अपने तरकश के लिए नए तीर खोजने होंगे।मजबूत है भाजपा का ओबीसी कार्ड
परिणाम बताते है कि साढ़े नो साल बाद भी नरेंद्र मोदी जी भाजपा की कोई काट देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस के पास नहीं है। जाति जनगणना का मुद्दा उठाने और अपने मोनोफेस्टों में शामिल करने के बावजूद मध्यप्रदेश, राजस्थान और यहां तक की ओबीसी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के राज छत्तीसगढ़ तक में दाल नहीं गली। जितनी आबादी उतना हक का नारा भी टॉय-टॉय फुस्स हो गया। चुनाव नतीजे ने बता दिया की जनता जाति नहीं विकास चाहती है। अब कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती होगी विपक्षी इंडिया गठबंधन में क्षत्रपों को बनाएं रखने की। कांग्रेस लोगोंको समझा नहीं पायी कि यह लड़ाई अन्य पिछड़ा वर्ग ओबीसी या स्वर्ण से नहीं है। कांग्रेस को जानना होगा बीजेपी अब पहले की तरह ब्राह्मण बनिया पार्टी नहीं है, यह ओबीसी के नेतृत्व वाली पार्टी है। जहां तक इन राज्य में आदिवासी समुदायों की स्थिति का प्रश्न है तो समुदायों के सम्मान की आकांक्षा को तो भाजपा ने बढ़ाया ही है। आदिवासी नायकों के सम्मान से लेकर संग्रहालय बनाने और अवकाश घोषित करने आदि जैसी कई तरह की पहलें हुई है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आदिवासी क्षेत्रों में पहले से ही सक्रिय है। उनके लिए विद्यालय, अस्पताल तक की व्यवस्था कर रखी है। इस चुनाव का सबसे बड़ा संदेश यह भी है कि कांग्रेस भले हिंदीभाषी क्षेत्र में अपनी स्थिति सुधारने में विफल साबित हुई है, लेकिन दक्षिण भारत में पार्टी के अच्छे दिन जारी हैं। कर्नाटक के बाद तेलंगाना में मिली कांग्रेस की जीत न सिर्फ हैरान करने वाली रही, बल्कि दक्षिण की राजनीति में यह बड़ा पड़ाव माना जा रहा है। देश के इस युवा राज्य तेलंगाना में पहली बार कांग्रेस की सरकार बनी है। हालांकि बीजेपी ने भी तेलंगाना में पिछली बार के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन करने का दावा किया है। वहां अभी की विधानसभा में बीजेपी की तीन सीटें थीं, जिसे बढ़ाकर बीजेपी ने 10 कर दिया है। साथ ही, बीजेपी का वोट प्रतिशत बढ़कर 14 फीसदी के करीब पहुंच गया है। लेकिन कांग्रेस के लिए दक्षिण में जीत पार्टी को और मजबूती देगी।
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी
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