"हमारे समय में तो माहवारी के दौरान लड़की हो या महिला, उसे एक अलग स्थान पर रखा जाता था. उसके साथ ऐसा व्यवहार किया जाता था जैसे वह कोई अछूत हो. अगर कोई लड़की इसका विरोध करती थी तो पूरा समाज उसे एक प्रकार से अपराधी घोषित कर देता था. सिर्फ पुरुष ही नहीं, बल्कि महिलाएं भी इस काम में आगे रहती थीं. अगर किसी महिला को बच्चा नहीं हो रहा होता था तो उसे ताना देने और उसका मानसिक शोषण करने में महिलाएं ही सबसे आगे होती थीं. अब तो ज़माना बहुत बदल गया है. शहर की हवा गांव को भी लगने लगी है. लेकिन फिर भी यह समाज आज भी औरतों और लड़कियों को खुलकर जीने नहीं देता है." यह कहना है 70 वर्षीय बुज़ुर्ग दुर्गा देवी का, जो पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के लामाबगड़ गांव की रहने वाली हैं और पिछले सात दशकों से गांव के बदलते सामाजिक परिवेश को बहुत करीब से देखा है.
यह गांव बागेश्वर जिला से करीब 19 किमी दूर कपकोट ब्लॉक में स्थित है. जिसकी आबादी करीब 1600 है. गांव में उच्च और निम्न जातियों की संख्या लगभग बराबर है. लेकिन महिला और पुरुष साक्षरता की दर में एक बड़ा अंतर है. जहां 40 प्रतिशत पुरुष साक्षर हैं वहीं महिलाओं में साक्षरता की दर मात्र 20 प्रतिशत दर्ज की गई है. यह अंतर न केवल सामाजिक परिवेश बल्कि जागरूकता में भी नज़र आता है. जहां महिलाएं अपने छोटे छोटे अधिकारों से भी परिचित नहीं हैं. यहां किशोरियों को बहुत कम उम्र में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. जैसे लिंग भेदभाव, बाल विवाह, छोटी उम्र में गर्भधारण हो जाना, यौन उत्पीड़न और घरेलू हिंसा आदि प्रमुख हैं. कम उम्र में विवाहित युवा लड़कियो से निश्चित मानकों और व्यवहारों का पालन करने की उम्मीद की जाती है और ऐसा नहीं करने पर उसे मानसिक अत्याचारों से गुज़रना पड़ता है. जो केवल समाज द्वारा ही नहीं बल्कि घर के अंदर भी होता है.
एक तरफ सरकार की ओर से महिला शिक्षा और सशक्तिकरण से जुड़े कई प्रयास किये जा रहे हैं. पंचायत में महिलाओं के लिए सीटें भी आरक्षित की जाती हैं. जिस पर महिला सरपंच या प्रधान निर्वाचित होती हैं. लेकिन दूसरी ओर पितृसत्तात्मक समाज पर आधारित इस गांव की संरचना में पुरुष ही अंतिम फैसला लेने का अधिकारी होता है. यही कारण है कि गांव में आज भी महिलाओं को उच्च शिक्षा या अधिकार देने की सोच बहुत संकुचित है. 49 वर्षीय प्रकाश चंद्र जोशी किशोरी शिक्षा का खुलकर विरोध तो नहीं करते हैं लेकिन वह महिलाओं द्वारा किसी भी प्रकार की नौकरी या उनके अधिकारों की सख्त आलोचना करने से भी गुरेज़ नहीं करते हैं. वह कहते हैं कि "लड़कियों को कितना पढ़ना चाहिए यह समाज निर्धारित करे, लेकिन मेरे विचार में लड़कियों और महिलाओं को सिर्फ घर का काम करना चाहिए, क्योंकि उन्हें यही शोभा देती है. आखिर उन्हें शिक्षा की क्या आवश्यकता है? अगर महिलाएं घर में रहकर काम करेंगी तो हमारी संस्कृति और पहाड़ों का रहन सहन बना रहेगा. सरकार को ज़्यादा सपोट पुरुषों को करनी चाहिए क्योंकि नौकरी उन्हें करनी है."
ऐसी संकुचित सोच का असर नई पीढ़ी को कितना प्रभावित कर रहा है, यह ज़मीनी हकीकत से पता चलता है. हालांकि अच्छी बात यह है कि नई पीढ़ी की किशोरियां इसके खिलाफ बोलने का साहस भी जुटा रही हैं. वह लैंगिक भेदभाव को बखूबी समझ रही हैं. गांव की 17 वर्षीय दीक्षा कहती है कि "लैंगिक असमानता न केवल महिलाओं के विकास में बाधा डालता है बल्कि आर्थिक और समाजिक विकास को भी प्रभावित करता है. महिलाओं और किशोरियों को जिस समाज में उचित स्थान नहीं मिलता है, वह समाज और देश पिछड़ेपन का शिकार हो जाता है. लैंगिक असमानता आज भी वैश्विक समाज के लिए एक चुनौती बनी हुई है. जिस गांव की महिलाएं और पुरुष जागरूक होंगे उनमें अपना समाज बदलने की क्षमता होगी, ऐसा गांव ही विकसित गांव की संकल्पना को पूर्ण कर सकता है." 11वीं की छात्रा पुष्पा आर्य सवाल करती है कि "आखिर घर के सारे काम महिलाएं और किशोरियां ही करती हैं. इसके बावजूद उनके साथ लैंगिक भेदभाव क्यों होता है? लड़कों से कहीं अधिक लड़कियां खेत खलियान और मवेशी चराने का काम करती हैं, फिर लड़के किचन के काम में क्यों नही हाथ बंटा सकते हैं?" वह कहती है कि "आज के समाज में कहा जाता है कि लड़कियों को बराबर का दर्जा देना चाहिए, लेकिन सच्चाई यह है कि हमारे गांव व आसपास के क्षेत्रों में, खुद हमारे परिवार में लड़कियों को लैगिक हिंसा और भेदभाव का शिकार होना पड़ रहा है."
इसी भेदभाव पर गांव की 17 वर्षीय एक अन्य किशोरी सुनीता जोशी कहती है कि "मेरे साथ घर में बचपन से ही भेदभाव किया जाता रहा है. दरअसल हमें घर के कामों में मानसिक रूप से इस तरह ढ़ाल दिया जाता है, जिससे हम लड़कियां खुद ही शिक्षित नही होना चाहती हैं. हमें बताया जाता है कि हम यहां पराये हैं और हमारा असली ठिकाना ससुराल है. जहां सास ससुर की सेवा करना और पति की आज्ञा मानना ही एक नारी का असली धर्म है." वह कहती है कि 'कोई भी बच्चा तभी आगे नही बढ़ पाता है, जब उसके समाज के लोग और माता पिता पढ़े लिखे हों, जानकार न हों. इसी सोच की कमी के कारण ही समाज में लिंग भेद को बढ़ावा मिलता है.' दीक्षा, पुष्पा और सुनीता अपनी हमउम्र किशोरियां के साथ न केवल स्कूल जाती हैं बल्कि वह इन क्षेत्रों में किशोरी सशक्तिकरण की दिशा में काम करने वाली संस्था चरखा के दिशा प्रोजेक्ट से भी जुड़ी हुई हैं. जिसका प्रभाव यह हुआ है कि अब इन किशोरियों के साथ साथ कई महिलाएं भी लैंगिक भेदभाव को समझने और इस पर बोलने भी लगी हैं. 42 वर्षीय माया देवी कहती हैं कि "मेरे किशोरावस्था में लड़कियों को पढ़ाने से अधिक घर का कामकाज सिखाने पर ज़ोर दिया जाता था. माहवारी के दौरान तो उन्हें घर से बाहर गौशाला में ही रखा जाता था. चाहे जितने भी कड़ाके की ठंड हो, लड़कियों को वहीं समय गुज़ारना पड़ता था. बाल विवाह और अंधविश्वास के नाम पर हिंसा तो आम बात थी. लेकिन अब यह प्रथाएं और उत्पीड़न बहुत कम हो गए हैं. मुझे खुशी है कि जो हमारे साथ घटित हुआ वो हमारी बहु बेटियों के साथ नहीं होता है. लेकिन इसे पूरी तरह जड़ से मिटाने की ज़रूरत है. जब तक यह समाज शिक्षित नहीं होगा, ऐसी जागरूकता नहीं आ सकती है."
आज़ादी के 76 साल बाद भी हमारे देश की हज़ारों महिलाओं और किशोरियों को लिंग आधारित भेदभाव का सामना करना पड़ता है. खास कर दूर दराज़ ग्रामीण क्षेत्रो में महिलाओं और किशोरियों के साथ लैंगिक भेदभाव अब भी हावी है. यह केवल घर और समज में ही नहीं, बल्कि स्कूलों में भी साफ़ तौर पर नज़र आता है. खुद शिक्षकों द्वारा लड़कों को गणित और विज्ञान पढ़ने जबकि लड़कियों को होम साइंस विषय लेने के लिए प्रेरित किया जाता है. उनके द्वारा कहा जाता है कि 'साइंस पढ़कर वह कौन सा अफसर बन जाएंगी? होम साइंस लेकर खाना बनाना सीखेंगी तो ससुराल में उनका सम्मान बढ़ेगा.' यह शब्द न केवल किशोरियों के सपनों को बल्कि उनके हौसलों को भी तोड़ देता है. दरअसल लड़कियों के स्कूल जाने से बालिका शिक्षा में भले ही सुधार हो रहा है. लेकिन सामाजिक कुरीतियों, रूढ़िवादिता और पुरुषवादी सोच के कारण लैंगिक असमानता में सुधार होता भविष्य के लिए नही दिख रहा है. यह आलेख संजॉय घोष मीडिया अवार्ड 2023 के तहत लिखा गया है.
महिमा जोशी
कपकोट, उत्तराखंड
(चरखा फीचर)
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