उत्तर में आकाश की सीमाओ को चुनौती देता हिमालय की गोद में विराजमान है सबसे प्राचीनतम ज्योतिर्लिंग केदारनाथ, तो दक्षिण में धर्म की गहराइयों को मापता युगो की कथा सुनाता हिंद महासागर के तट पर स्थित है ज्योतिर्लिंग रामेश्वरम्। कहते है लंका पर चढ़ाई से पहले श्रीराम ने रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग की स्थापना की थी. यह 12 ज्योतिर्लिंगों एवं मूल चारों धामों में से एक है। तमिलनाडु के रामेश्वरम में स्थित यह द्वादश ज्योतिर्लिंग भारत के प्रसिद्ध मंदिरों में से भी एक है। इस मंदिर में दो शिवलिंग हैं। एक शिवलिंग माता सीता ने बनाया था और दूसरा हनुमान जी द्वारा स्थापित हैं। मंदिर परिसर में ही एक प्राकृतिक झरना है, जिसे ‘थीर्थम’ कहा जाता है। मान्यता है कि इस झरने के पानी में डुबकी लगाने मात्र से सभी दुख कष्ट दूर हो जाते हैं और पापों से मुक्ति मिल जाती है। उत्तराखंड के गंगोत्री से गंगाजल लेकर श्री रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग पर अर्पित करने का विशेष महत्त्व है। आध्यात्म रामायण में श्रीराम ने घोषणा की है कि जो मनुष्य रामेश्वर शिव का दर्शनकर सेतुबंध को प्रणाम करेगा, वह ब्रह्महत्यादि पापों से मुक्त होगा -‘प्रणमेत् सेतुबंधं यो दृष्ट्वा रामेश्वरम् शिवम्। ब्राह्महत्यादि पापेभ्यो मुच्यतेमनुग्रहात्‘।। रामेश्वरम् की यात्रा करने वालों को हर जगह राम-कहानी की गूंज सुनाई देती है। रामेश्वरम् के विशाल टापू का चप्पा-चप्पा भूमि राम की कहानी से जुड़ी हुई है। किसी जगह पर राम ने सीता जी की प्यास बुझाने के लिए धनुष की नोंक से कुआं खोदा था, तो कहीं पर उन्होनें सेनानायकों से सलाह की थी। कहीं पर सीताजी ने अग्नि-प्रवेश किया था तो किसी अन्य स्थान पर श्रीराम ने जटाओं से मुक्ति पायी थी। ऐसी सैकड़ों कहानियां प्रचलित है। यहां राम-सेतु के निर्माण में लगे ऐसे पत्थर भी मिलते हैं, जो पानी पर तैरते हैं। मान्यता अनुसार नल-नील नामक दो वानरों ने उनको मिले वरदान के कारण जिस पाषाण शिला को छूआ, वो पानी पर तैरने लगी और सेतु के काम आयी
श्रीराम से है जुड़ा शिवलिंग का इतिहास
मान्यताओं के अनुसार, भगवान राम ने लंका विजय की कामना से लंका जाने से पहले भगवान शिव की पूजा करना चाहते थे. तब उन्होंने इस जगह पर महादेव के शिवलिंग की स्थापना कर इसकी पूजा अर्चना की थी. भगवान राम के नाम से ही इस जगह का नाम रामेश्वरम द्वीप और मंदिर का नाम रामेश्वरम पड़ा. पुराणों के अनुसार, रावण एक ब्राह्मण था और ब्राह्मण को मारने के दोष को खत्म करने के लिए भगवान राम भगवान शिव की पूजा करना चाहते थे, लेकिन तब इस द्वीप पर कोई मंदिर नहीं था, इसलिए हनुमान जी को कैलाश पर्वत से भगवान शिव के शिवलिंग लाने के लिए कहा गया. जब हनुमान जी समय पर शिवलिंग लेकर नहीं पहुंच पाए, तब माता सीता ने समुद्र की रेत को मुट्ठी में उठाकर शिवलिंग का निर्माण किया और इसी शिवलिंग की भगवान राम ने पूजा की. हनुमान जी के द्वारा लाए गए शिवलिंग को भी यहीं पर स्थापित कर दिया गया. यहां भगवान राम ने नल एवं नील नामक दो बलशाली वानरों की सहायता से लंका पर चढ़ाई करने से पूर्व एक पत्थरों के सेतु का निर्माण करवाया था, जिसे रामसेतु कहा गया। यह वही रामसेतु है, जिसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ‘एडेम्स ब्रिज’ के नाम से जाना जाता है। नल और नील को एक ऋषि का श्राप था कि तुम दोनों जिस वस्तु को भी पानी में फेकोगे वह नहीं डूबेगी। यही श्राप सेतु बनाते समय भगवान राम के काम आया, इसलिए वह दोनों योद्धा पत्थरों को जल में डालते गए और एक विशाल सेतु का निर्माण हो गया। जिस पर चढ़कर वानर सेना ने लंका पहुंच विजय पाई। बाद में श्री राम ने विभीषण के अनुरोध पर धनुषकोटि नामक स्थान पर यह सेतु तोड़ दिया था। आज भी इस 30 मील (48 कि.मी.) लम्बे सेतु के अवशेष सागर में दिखाई देते हैं। रामेश्वरम मंदिर में ये पत्थर आज भी भक्तों के दर्शन के लिए रखे गए हैं।
रामेश्वरम मंदिर
यह मंदिर लगभग 1000 फुट लंबा और 650 फुट चौड़ा है. इस मंदिर में 40 फुट ऊंचे दो पत्थर इतनी बराबरी के साथ लगाए गए हैं कि इनको देखकर आश्चर्य होना स्वभाविक है. मान्यताओं के अनुसार, रामेश्वर मंदिर निर्माण में लगाए हुए पत्थरों को श्रीलंका से नावों के जरिए लाया गया था. रामेश्वरम मंदिर का गलियारा विश्व का सबसे लंबा गलियारा है. यह उत्तर से दक्षिण में 197 मीटर और पूर्व पश्चिम में 133 मीटर लंबा है. इस गलियारे के परकोटे की चौड़ाई 6 मीटर और ऊंचाई 9 मीटर है. मंदिर में प्रवेश द्वार 38.4 मीटर ऊंचा है. यह मंदिर लगभग 6 हेक्टेयर में बना हुआ है. रामेश्वरम में प्रचलित किवदंतियों की मानें तो इस मंदिर के अंदर सभी कुएं भगवान राम ने अपने बाणों से बनाए थे. ऐसा माना जाता है कि इनमें कई तीर्थ स्थलों का जल मिलाया गया था.शिव पुराण में कहा गया है कि रामेश्वरम में दर्शन मात्र से ब्रह्म हत्या जैसे पाप दूर हो जाते हैं। जो व्यक्ति यहां स्थित भगवान शिव के ज्योतिर्लिंग पर पूरी श्रद्धा से गंगाजल चढ़ाता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। मंदिर में विशालाक्षी जी के गर्भ-गृह के निकट ही नौ ज्योतिर्लिंग हैं, जो लंकाधिपति विभीषण द्वारा स्थापित बताए जाते हैं। रामनाथस्वामी मंदिर के इष्टदेव की एक उपाधि है। यह मंदिर शिल्प, स्थापत्य व आस्था के लिहाज से भी देश के सबसे महान मंदिरों एवं पर्यटन स्थलो में से एक है। इस मंदिर में भगवान शिव की मूर्ति पूजा नहीं होती है। चूंकि राम व शिव दोनों से मंदिर जुड़ा है, इसलिए उन अनूठे मंदिरों में से एक जो शैव व वैष्णव, दोनों के लिए समान रूप से श्रद्धा का प्रतीक है। हर साल लाखों की संख्या में भक्त इस मंदिर में दर्शन करने आते है। ब्रह्मोत्सव के उत्सव के दौरान रामनाथस्वामी मंदिर घूमने जाना सबसे बेहतरीन होता है। क्योंकि इस समय त्यौहार का समय होता है और कई देशों से पर्यटक मंदिर को देखने के लिए पहुंचते हैं। यह समय वर्ष के जून और जुलाई महीने में पड़ता है।
मणि दर्शन
कहते है सागर में स्नान कर ज्योतिर्लिंग पर गंगाजल चढ़ाने का बहुत महत्व है। सुबह 4 बजे से 6 बजे के बीच मणि दर्शन कराया जाता है। मणि दर्शन में स्फटिक के शिवलिंग के दर्शन कराए जाते हैं जो एक दिव्य ज्योति के रूप में दिखाई देते हैं। बड़ी संख्या में श्रद्धालु, बाबा भोले के मणि दर्शन कर अपने जीवन को धन्य समझते हैं।
24 कुंओं की महिमा
श्री रामेश्वरम में 24 कुंए हैं, जिन्हें तीर्थ कहकर सम्बोधित किया जाता है। इनमें से अब 22 ही शेष हैं। हर एक कुंए का अलग-अलग नाम भी हैं । ऐसी मान्यता है कि इन कुंओं के जल से स्नान करने पर व्यक्ति को उसके सभी पापों से मुक्ति मिलती है। यहां का जल मीठा होने से श्रद्धालु इसे बड़े चाव और भक्ति से पीते भी हैं। कुओं के बारे में माना जाता है कि ये कुंए भगवान श्री राम ने अपने अमोघ बाणों के द्वारा तैयार किये थे । उन्होंने अनेक तीर्थों का जल मंगाकर उन कुंओं में छोड़ा था जिसके कारण उन कुंओं को आज भी तीर्थ कहा जाता है।
अद्भूत है कलाकृतियां
मौजूदा मंदिर तीन सौ साल पहले बना था और यह द्रविड़ शिल्प का उत्कृष्ट नमूना है। इसके गर्भगृह के चारों तरफ तीन गलियारे हैं। आखिरी गलियारे को भारत का सबसे बड़ा मंदिर गलियारा माना जाता है। इसमें विभिन्न आकृतियों से सजे 1212 स्तंभ हैं। जहां आज मंदिर हैं, वहीं पर राम ने लंका युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद शिव की आराधना में यज्ञ किया था। इस मंदिर में जो सबसे सुंदर कलाकारी देखने को मिलता है वह है मंदिर के दीवारों पर खोद कर बनाई गई पत्थरों की मूर्तियां और डिजाइन। दीवारों पर की गई नक्काशी देखने में बहुत ही सुंदर दिखती है और इतिहास के महान कला को दर्शाती है। मंदिर का क्षेत्र लगभग 15 एकड का है। इन कलाकृतियों की खूबी यह है कि वर्षों पुरानी होने के बावजूद ये आजतक अपनी चमक-दमक बरकरार रखे हुए हैं। विदेशी सैलानियों के लिए तो ये कलाकृतियां अद्भूत, अकल्पनीय एवं अविश्वसनीय हैं। इसका प्रवेश-द्वार चालीस फीट ऊंचा है। प्राकार में और मंदिर के अंदर सैकड़ों विशाल खंभे हैं, जो देखने में एक-जैसे लगते है परंतु पास से देखने पर पता चलता है हर खंभे पर बेल-बूटे की अलग-अलग कारीगरी है।
रामेश्वरम शंखरुपी द्वीप है
रामेश्वरम एक सुंदर शंख के आकार का द्वीप है। कहते हैं कि काफी पहले यह सकल जंबूद्वीप भूमि से जुड़ा हुआ था परंतु बाद में सागर की लहरों और सुनामी के कारण मुख्य भारत भूमि से यह कटकर अलग द्वीप बन गया। रामनाथ की मूर्ति के चारों और परिक्रमा करने के लिए तीन प्राकार बने हुए है। इनमें तीसरा प्राकार सौ साल पहले पूरा हुआ। इस प्राकार की लंबाई चार सौ फुट से अधिक है। दोनों ओर पांच फुट ऊंचा और करीब आठ फुट चौड़ा चबूतरा बना हुआ है। चबूतरों के एक ओर पत्थर के बड़े-बड़े खंभों की लम्बी कतारें खड़ी हैं। प्राकार के एक सिरे पर खड़े होकर देखने पर ऐसा लगता है मानों सैकड़ों तोरण-द्वार स्वागत करने के लिए बनाए गये हैं। इन खंभों की अद्भुत कारीगरी देखकर विदेशी भी दंग रह जाते हैं। अगर हम अलंकरण के विषय में बात करें तो मंदिर में पल्लव, त्रावणकोर, रामनतपुरम, मैसूर और पुदुक्कोट्टई राज्यों का अलग-अलग रंग देखने को मिलता है।
विशेषताएं
पुराणों में रामेश्वरम् का नाम गंधमादन है। रामेश्वरम का मुख्य मंदिर 120 फुट ऊंचा है। रामेश्वरम् से थोड़ी ही दूर पर जटा तीर्थ नामक कुंड है। किंवदंती के अनुसार श्री राम जी ने लंका युद्ध के पश्चात् अपने केशों का प्रक्षालन किया था। श्रीराम ने यहां नवग्रह स्थापन किया था। सेतुबंध यहीं से प्रारंभ हुआ, अतः यह मूल सेतु है। यहीं देवी ने महिषासुर का वध किया था। रामेश्वरम से लगभग तीस किलोमीटर की दूरी पर धनुष्कोटि नाम स्थान है। यहां अरब सागर और हिंद महासागर का संगम होने के कारण श्राद्ध तीर्थ मानकर पितृकर्म करने का विधान है।
पौराणिक मान्यताएं
रामायण के अनुसार, राम जो भगवान विष्णु के सातवें अवतार थे, ने यहां भगवान शिव की प्रार्थना की थी और उनसे अपने द्वारा की गयी ब्राह्मण हत्या, जो रावण से युद्ध के दौरान हुई थी के पाप से दोषमुक्त करने के लिए वरदान मांगा। राम शिव जी की उपासना करने के लिए विश्व का सबसे बड़ा शिवलिंग चाहते थे। तो उन्होंने अपनी वानर सेना के सेनापति हनुमान जी को आज्ञा दी की वे हिमालय से शिवलिंग ले कर आये। क्योकि हनुमान जी को शिवलिंग लाने में अधिक समय लग रहा था, राम जी की पत्नी सीता जी ने समुद्र के किनारे पड़ी रेत से छोटे से शिवलिंग का निर्माण किया जिसे ‘रामलिंग’ कहा गया और मंदिर के गर्भ गृह में रखा गया है। जब भगवान अंजनेय वापस लौटे तो उन्हें यह देखकर बहुत दुख लगा। उनके दुख को देखकर भगवान श्रीराम ने उस लिंग का नाम रखा ‘वैश्वलिंगम’ रखा। इसी कारण रामनाथस्वामी मंदिर को वैष्णववाद और शैववाद दोनों से जोड़ा गया है। इतिहासकारों का मानना है रामेश्वरम का रामनाथस्वामी मंदिर 12वीं शताब्दी का है। श्रीलंका के राजा ‘पराक्रम बाहू’ ने मूर्ति के चारों ओर एक मजबूत संरचना का निर्माण करने का प्रयास किया जो ‘सेतुपथी’ नामक एक शासक के द्वारा पूर्ण किया गया जो रामनाथपुरम के निवासी थी।
गन्धमादन पर्वत
रामेश्वरम् शहर से करीब डेढ़ मील उत्तर-पूर्व में गंधमादन पर्वत नाम की एक छोटी-सी पहाड़ी है। हनुमानजी ने इसी पर्वत से समुद्र को लांघने के लिए छलांग मारी थी। बाद में राम ने लंका पर चढ़ाई करने के लिए यहीं पर विशाल सेना संगठित की थी। इस पर्वत पर एक सुंदर मंदिर बना हुआ है, जहां श्रीराम के चरण-चिन्हों की पूजा की जाती है। इसे पादुका मंदिर कहते हैं। रामनाथ के मंदिर के चारों ओर दूर तक कोई पहाड़ नहीं है, जहां से पत्थर आसानी से लाये जा सकें। गंधमादन पर्वत तो नाममात्र का है। यह वास्तव में एक टीला है और उसमें से एक विशाल मंदिर के लिए जरूरी पत्थर नहीं निकल सकते। रामेश्वरम् के मंदिर में जो कई लाख टन के पत्थर लगे हैं, वे सब बहुत दूर-दूर से नावों में लादकर लाये गए हैं। रामनाथ जी के मंदिर के भीतरी भाग में एक तरह का चिकना काला पत्थर लगा है। कहते हैं, ये सब पत्थर लंका से लाये गए थे। रामेश्वरम् के समुद्र में तरह-तरह की कोड़ियां, शंख और सीपें मिलती है। कहीं-कहीं सफेद रंग का बड़ियास मूंगा भी मिलता है।
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें