राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की वेबसाइट पर दिये गए ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी 2020 के आंकड़ों के अनुसार देश में कुल 15921 उप-स्वास्थ्य केंद्र, 30813 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, 5649 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, 1193 अनुमंडलीय अस्पताल और 810 जिला अस्पताल हैं. आरएचएस के अनुसार देशभर में क्रमशः 24 प्रतिशत उप स्वास्थ्य केंद्र, 29 प्रतिशत प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और 38 प्रतिशत सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र की कमी बताई गई है. वर्तमान में 10453 पीएचसी ऐसे हैं जो सप्ताह में 24 घंटे अपनी सेवाएं दे रहे हैं. बात आती है कि इतने स्वास्थ्य केंद्र होने के बावजूद ग्रामीण क्षेत्र में स्थित उप स्वास्थ्य केंद्रों का हाल बुरा क्यों है? क्या जर्जर, अभावग्रस्त, निष्क्रिय और मृतप्रायः उप-स्वास्थ्य केंद्र के भरोसे ग्रामीणों का स्वास्थ्य बेहतर हो सकता है?
सच तो यह है कि इन उप स्वास्थ्य केंद्रों पर केवल टीकाकरण और किसी विशेष अवसरों पर कागजी खानापूर्ति के लिए नर्स या स्वास्थ्य सेवक उपस्थित होते हैं. बाकी दिनों में यह उप स्वास्थ्य केंद्र पूरी तरह से ठप रहता है. न चिकित्सक और न कोई अन्य सुविधा रहती है. ग्रामीण झोलाछाप डॉक्टरों के पास जाकर सेहत व पैसे बर्बाद करते हैं. कभी-कभार झोलाछाप डाॅक्टरों के चक्कर में उन्हें जान भी गंवानी पड़ती है. प्रखंड स्थित पीएचसी जाने के लिए ग्रामीणों को लंबी दूरी तय करनी पड़ती है. यह जरूर है कि प्रसव व परिवार नियोजन हेतु प्रखंड स्तर पर सरकार की अच्छी व्यवस्था है. जहां जाकर बच्चा-जच्चा दोनों ही सुरक्षित व स्वस्थ होकर घर लौटते हैं. एंबुलेंस की सुविधा होती है. आशा दीदी भी गर्भवती महिलाओं की सेहत की सुरक्षा के बारे में घर-घर जाकर जानकारियां देती हैं. लेकिन संचालन के तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में चल रहे कई स्वास्थ्य केंद्र केवल दिखावा से अधिक कुछ नहीं है.
वहीं गांव के एक अन्य युवक मुनिराम बताते हैं कि 2014 में गांव के करीब 84 प्रतिशत लोग टीकाकरण से वंचित रह गए थे क्योंकि गांव के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में टीका देने के लिए कोई स्टाफ उपलब्ध नहीं था. जिन परिवारों में पास साधन थे वह शहर जाकर टीका लगवा लाये लेकिन अधिकतर गरीब इससे वंचित रह गए. यदि यहाँ भी डॉक्टर उपलब्ध होते तो गांव वालों को इस प्रकार की समस्या का सामना नहीं करना पड़ता. वहीं गांव की एक 17 वर्षीय किशोरी कोमल बताती है कि इस गांव में स्वास्थ्य केंद्र तो है लेकिन उसमें पूरी तरह से सुविधा उपलब्ध नहीं है. डॉक्टर के नहीं आने से इलाज नहीं हो पाता है. इसमें सबसे अधिक गर्भवती महिलाओं को कठिनाइयां उठानी पड़ती है. हालांकि इस अस्पताल में नार्मल डिलेवरी हो जाती है लेकिन किसी प्रसव में यदि कोई समस्या आती है तो फिर उस महिला को जिला के अस्पताल ले जाना पड़ता है जो इस गांव से करीब 3 घंटे की दूरी पर है. यदि अस्पताल में अन्य सुविधाओं के साथ साथ डॉक्टरों की स्थाई बहाली हो जायेगी तो लोगों विशेषकर महिलाओं, बुज़ुर्गों और नवजात बच्चों के इलाज के लिए काफी सुविधा हो जायेगी.
हालांकि अस्पताल में तैनात नर्स कमलेश बताती हैं कि वह पिछले आठ वर्षों से इस गांव के अस्पताल में तैनात हैं. अस्पताल में सभी प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध हैं. बच्चों का विशेष टीकाकरण किया जाता है. हालांकि उन्होंने भी माना कि यहाँ स्थाई रूप से किसी डॉक्टर की तैनाती नहीं है जिससे ग्रामीणों को इलाज कराने के लिए काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. विशेषकर इमरजेंसी के समय गांव के गरीब लोगों को बहुत परेशानी होती है. लेकिन फिर भी वह अपने स्तर पर लोगों का इलाज करने का प्रयास करती हैं. इसके बावजूद डॉक्टर नहीं होने से वह बहुत अधिक कुछ नहीं कर पाती हैं. बहरहाल, गांव में अस्पताल उपलब्ध हो जाने से ही सुविधाओं का मिलना नहीं हो जाता है बल्कि उसमें डॉक्टर की तैनाती सबसे प्रमुख है. जिसकी तरफ सरकार और स्वास्थ्य विभाग को ध्यान देने की ज़रूरत है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या केवल अस्पताल बना देने से ही सरकार और विभाग की ज़िम्मेदारी ख़त्म हो जाती है? क्या गांव के लिए सभी सुविधाओं से लैस अस्पताल का होना ज़रूरी नहीं है?
गायत्री
लूणकरणसर, राजस्थान
(चरखा फीचर)
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