विशेष : राम के चरित्र में मर्यादा, त्याग, प्रेम और लोकव्यवहार के होते हैं दर्शन - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शुक्रवार, 19 जनवरी 2024

विशेष : राम के चरित्र में मर्यादा, त्याग, प्रेम और लोकव्यवहार के होते हैं दर्शन

भगवान श्री विष्णुजी के बाद श्री नारायणजी के इस अवतार की आनंद अनुभूति के लिए देवाधिदेव स्वयंभू श्री महादेव 11वें रुद्र बनकर श्री मारुति नंदन के रूप में निकल पड़े। यहां तक कि भोलेनाथ स्वयं माता उमाजी को सुनाते हैं कि मैं तो राम नाम में ही वरण करता हूं। जिस नाम के महान प्रभाव ने पत्थरों को तारा है। लोकजीवन के अंतिम यात्रा के समय भी इसी ‘राम नाम सत्य है’ के घोष ने जीवनयात्रा पूर्ण की है। और कौन नहीं जानता आखिर बापू ने अंत समय में ‘हे राम’ किसके लिए पुकारा था। आदिकवि ने उनके संबंध में लिखा है कि वे गाम्भीर्य में उदधि के समान और धैर्य में हिमालय के समान हैं। राम के चरित्र में पग-पग पर मर्यादा, त्याग, प्रेम और लोकव्यवहार के दर्शन होते हैं

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श्रीराम आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं। उनकी कार्यप्रणाली का ही दूसरा नाम-प्रजातंत्र है। उनकी कार्यप्रणाली को समझने से पहले श्रीराम को समझना होगा। श्रीराम यानी संस्कृति, धर्म, राष्ट्रीयता और पराक्रम। सच कहा जाए तो अध्यात्म गीता का आरंभ श्रीराम जन्म से आरंभ होकर श्रीकृष्ण रूप में पूर्ण होता है। एक आम आदमी बनकर जीवनयापन करने के लिए जो तत्व, आदर्श, नियम और धारणा जरूरी होती है उनके सामंजस्य का नाम श्रीराम है। एक गाय की तरह सरल और आदर्श लेकर जिंदगी गुजारना यानी श्रीराम होना है। एक मानव को एक मानव बनकर श्रेष्ठतम होते आता है-इसका साक्षात उदाहरण यानी श्रीराम। नर से नारायण कैसे बना जाए यह उनके जीवन से सीखा जा सकता है। कहा जा सकता है राम सिर्फ एक नाम नहीं हैं। राम हिन्दुस्तान की सांस्कृतिक विरासत हैं। राम हिन्दुओं की एकता और अखंडता का प्रतीक हैं। राम सनातन धर्म की पहचान है। धर्मस्वरूप राम -सबको जोड़ता है, मिलाता है! राम ने अपने व्यक्तित्व के द्वारा आदि से अंत तक धर्म का सही स्वरूप उपस्थित किया है।


श्रीराम इस संसार को राक्षसों से मुक्त करने के लिए अयोध्यापति दशरथ के घर आएं। उनका सारा जीवन मानव समाज की सेवा को समर्पित रहा। युगों बाद भी राम से जुड़े आदर्श आज हिन्दुओं के ही नहीं बल्कि सारे मानव समाज के आदर्श हैं। एक राजा ने तीन विवाह कर कुल को कलह में झोक दिया। भाई भरत ने भाई की पादुकाओं से ही राज चलाया। सीता हरण की पीड़ा, लंका के दहन से रावण के घमंड का चूर होना, अंतिम समय में लक्ष्मण का रावण से ज्ञान प्राप्त करना आदि कुछ ऐसे उदाहरण है, जिसमें आज की राजनीति, समाज और संयुक्त परिवार बहुत कुछ सीख सकते हैं। राम के नाम, रूप, धाम, लीला, आचरण में सिर्फ और सिर्फ एक-दुसरे को जोड़ने की दिव्य शैली विद्यमान है। चाहे बाललीला हो या वनलीला, या फिर जनकपुर की यात्रा, वन यात्रा में फूलों भरा मार्ग हो या कांटों भरा, भगवान राम ने अपने चरित्र से सबकों तारा है, या यूं कहें मिलाया है। भारतीय संतों व चिंतकों ने विश्वास व्यक्त किया है कि जब धर्म की सारी मर्यादाएं टूट जायेंगे तो भी राम का चरित्र सारे समाज को मिलाने के लिए सदा सर्वदा प्रस्तुत रहेगा।


राम ने कभी छोटे-बड़े उंच-नीच का भेदभाव नहीं किया। महल का, कुटियों के लिए थोड़ा भी भेदभाव चुभ जाता था राम को। उत्तम भोजन, कीमती वस्त्र और सुंदर निवास का सुख सबको सुलभ हो, राम यही चाहते थे। चक्रवर्ती सम्राट दशरथ के लिए यह कार्य असम्भव न था। कौशल्या साम्राज्ञी थी उत्तरकौशल की। सर्वगुण सम्पन्न राम सबको प्रिय लगते थे ही। दशरथ-कौशल्या के राम प्राणाधार थे। ममतामयी मां भला कैसे इंकार कर सकती थी-पुत्र के इस प्रस्ताव को। ‘अब तो बंधु सखा संग लेहि बोलाईं और अनुज सखा संग भोजन करही‘। यह नित्य का नियम था राम का। छोटों को बड़ों से और अमीरों को गरीबों से जोड़ने का यह पहला अभियान था, बाल राम का। उसके बाद से तो फिर नियम ही निमय बनने लग गए, वह नियम जो आज भी प्रासंगिक है। भगवान श्रीराम स्वयं कहते हैं- सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते। अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम।। अर्थात मेरा यह संकल्प है कि जो एक बार मेरी शरण में आकर मैं तुम्हारा हूं, कहकर मुझसे अभय मांगता है, उसे मैं समस्त प्राणियों से निर्भय कर देता हूं। मैं तुम्हारा हूं सिर्फ कहने से नहीं होता। किसी का होने के लिए उस जैसा होना पड़ता है।


राम के गुणों को अपनाकर ही उनका बना जा सकता है। तभी राम उसे अभय प्रदान करते हैं। तब राम हमें भव-सागर में डूबने के लिए नहीं छोड़ते। जो राम को छोड़ देता है, यानी उनके गुणों से किनारा कर लेता है, उसका डूबना तय है। देखा जाय तो जब नल के हाथ से फेंके हुए पत्थरों से समुद्र पार कर लंका जाने के लिए सेतु बनाया जाने लगा, तब राम ने नल से इस चमत्कार का रहस्य पूछा। नल ने बताया- भगवान, यह आपके नाम के प्रताप से हो रहा है। तब भगवान ने अपने हाथ से एक पत्थर उठाकर उसे समुद्र में फेंका पर वह डूबने लगा। रामचंद्रजी ने नल से पूछा- जब मेरे नाम के बल से पत्थर समुद्र पर तैर सकता है तब मेरे स्वयं के हाथों फेंका गया पत्थर कैसे डूब गया? नल ने विनयपूर्वक उत्तर दिया- प्रभु, जिसे आप छोड़ देंगे, वह तो अवश्य डूबेगा ही। अतः हमें राम के गुणों को अपनाकर उनका आज्जान करना चाहिए। अवतार लेने से लेकर साकेत गमन तक राम ने दो कुलों, वंशों, किनारों, समूहों को जोड़ने का उपक्रम किया है। अर्थात श्रीराम जी सदा एक-दुसरे को जोड़ते रहे। चाहे वह निरपराध अहिल्या श्रापमुक्त कर वर्षों बाद पति-पत्नि का मिलन कराने का हो, या धनुष यज्ञ के दौरान मिथिलेश व अवधेश को मिलाने का। ‘भजेउ राम सम्भु धनु भारी। फिर तो -सिय जय माल, राम उर मेली।। अब तो मिले जनक दशरथ, अति प्रीति। सम समधी देखे हम आजू।। निमिकुल और रघुकुल का विरोध मिटाकर, उत्तम नाता जोड़कर, उन्हे राम ने समधी बना दिया। परशुराम को शांत कर ब्राम्हण और क्षत्रिय के बीच का संघर्ष, आक्रोश, अश्रद्धा को राम ने समाप्त कर दिया।


वनपथ के दौरान राम ने निषाद को हृदय से लगाकर उपेक्षा, हीनभावना, निम्नकुल के प्रति छुआछूत जैसे विचार व भेदभावों को राम ने मिटा दिया। राम ने वनचरों को सभ्य बनाकर उन्हें श्रेष्ठ लोगों से मिला दिया। वन से लौटने के बाद राम का अयोध्या में पशु कुलाधम का मानवकुल श्रेष्ठ से मिलन, सर्वोपरि मिलन है। राम के व्यक्तित्व की पराकाष्ठा है कि वह दोनों को एक दूसरे के इतना निकट ला दिए। वह चाहते तो अकेले रावण को मारकर सीता को प्राप्त कर सकते थे। लेकिन उन्होंने लंका प्रवेश के दौरान चाहे सेतु निर्माण हो या रावण द्वारा दण्डित और देश से निष्कासित विभीषण की सलाह, समाज द्वारा उपेक्षित एवं तिरस्कृत वानर सुग्रीवादि और वनवासियों की सेवा श्रम सहायता लेकर ही श्रीरामजी ने रावण कुल का अंत किया। हनुमानजी को भक्ति एवं शक्ति और उपासकों को अनुरक्ति एवं युक्ति देकर, दोनों को जोड़ने का काम रामजी ने ही किया है। श्रीरामजी के कर्म, धर्म, व्यहार, परमार्थ इस बात के गवाह है कि हर अवस्था, हर दशा, हर परिस्थिति और प्रत्येक देश काल में राम का क्रियाकलाप चरितार्थ हुआ है। यह अदभुत नहीं तो और क्या है कि जनकपुर में सीताजी को पाकर, दो कुलों (वंशों) को जोड़ा तो वनवास काल में सीता को खोकर अनेक कुलों को एक-दुसरे से मिलाया।


राम घर-बन कहीं भी रहे बस एक-दुसरे को जोड़ते ही रहे। आत्मा को परमात्मा की प्राप्ति श्रीराम कृपा से ही संभव है। भौतिक विज्ञान से अध्यात्म विज्ञान का सामंजस्य श्रीरामजी के व्यक्तित्व से ही सहज सम्भव हुआ है। आज जो राम को यथार्थ रूप में जानता, भजता और पाता है वही जुड़ता और जोड़ता है सबसे। कहने का अभिप्राय है अलगाव, बिलगाव और बिखराव आदि टूटन और घुटन से बचने के लिए राम के आचरण को ही अपनाना होगा। जातिवाद, क्षेत्रवाद, रूढिवाद, भाषावाद और आतंकवाद जैसे अनेकों समाजघातीवाद, जो सिर उठा रहें हैं, उनके आक्रोश को भी राम का व्यक्तित्व ही समाप्त कर सकता है। भगवान ने विष्णु ने नवमी के दिन ही भगवान राम के रूप में अवतार लिया था। माना जाता है कि भगवान राम का यह अवतार धरती से राक्षसों और असुरी प्रवृत्तियों का विनाश करने के लिए था। इसीलिए उन्होंने आगे चलकर पृथ्वी के महान बलसाली राक्षण रावण का वध किया। इस दिन न सिर्फ भगवान राम की पूजा होती है बल्कि उनके भाई लक्ष्मण और मां सीता के साथ हनुमान जी की भी पूजा की जाती है।


भजेउ राम सम्भु धनु भारी। फिर तो -सिय जय माल, राम उर मेली।। अब तो मिले जनक दशरथ, अति प्रीति। सम समधी देखे हम आजू।। निमिकुल और रघुकुल का विरोध मिटाकर, उत्तम नाता जोड़कर, उन्हे राम ने समधी बना दिया। परशुराम को शांत कर ब्राम्हण और क्षत्रिय के बीच का संघर्ष, आक्रोश, अश्रद्धा को राम ने समाप्त कर दिया। वनपथ के दौरान राम ने निषाद को हृदय से लगाकर उपेक्षा, हीनभावना, निम्नकुल के प्रति छुआछूत जैसे विचार व भेदभावों को राम ने मिटा दिया। राम ने वनचरों को सभ्य बनाकर उन्हें श्रेष्ठ लोगों से मिला दिया। वन से लौटने के बाद राम का अयोध्या में पशु कुलाधम का मानवकुल श्रेष्ठ से मिलन, सर्वोपरि मिलन है। राम के व्यक्तित्व की पराकाष्ठा है कि वह दोनों को एक दूसरे के इतना निकट ला दिए। वह चाहते तो अकेले रावण को मारकर सीता को प्राप्त कर सकते थे। लेकिन उन्होंने लंका प्रवेश के दौरान चाहे सेतु निर्माण हो या रावण द्वारा दण्डित और देश से निष्कासित विभीषण की सलाह, समाज द्वारा उपेक्षित एवं तिरस्कृत वानर सुग्रीवादि और वनवासियों की सेवा श्रम सहायता लेकर ही श्रीरामजी ने रावण कुल का अंत किया।


 





Suresh-gandhi


सुरेश गांधी

वरिष्ठ पत्रकार

वाराणसी

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