मंगलवार को उन्होंने श्रीराम कथा में हनुमान जी की भक्ति के बारे में बताते हुए कहा कि इस संसार में ऐसा कौन सा काम है जो हे तात, तुम नहीं कर सकते हो। रामकाज के लिए ही तुम्हारा अवतार हुआ है। ये बात सुनते ही हनुमान पर्वत के आकार के हो गए। जामवंत ने हनुमानजी को समझाया कि सिर्फ सीता का पता लगाकर लौट आना, हनुमानजी आत्मविश्वास से भरकर बोले कि अभी एक ही छलांग में समुद्र लांघकर, लंका उजाड़ देता हूं और रावण सहित सारे राक्षसों को मारकर सीता को ले आता हूं। तब जामवंत ने कहा कि नहीं, आप ऐसा कुछ न करें। आप सिर्फ सीता माता का पता लगाकर लौट आइए। हमारा यही काम है। फिर प्रभु राम खुद रावण का संहार करेंगे। इसके बाद हनुमानजी समुद्र लांघने के लिए निकल गए। सुरसा और सिंहिका नाम की राक्षसियों ने रास्ता रोका भी, लेकिन उनका आत्म विश्वास कम नहीं हुआ। लंका पहुंचकर उन्होंने सीता का पता लगाया, लंका जलाई और लौट आए। हमें अपनी शक्तियों पर संदेह नहीं करना चाहिए। खुद पर भरोसा रखें कि हम मुश्किल से मुश्किल काम भी कर सकते हैं, तभी जीवन में सफलता मिल सकती है। जगदगुरु महावीर दास जी ब्रह्मचारी ने राम कथा में हनुमान का वर्णन करते हुए कहा कि हनुमान महाराज की महिमा की भक्ति का वर्णन करते हुए कहा कि मंगल मूर्ति मारुति नंदन, सकल अमंगल मूल निकंदन। अर्थात मानव जीवन में मंगल करना और अमंगल को दूर कर देने का कार्य श्रीराम की कृपा से मारुति नंदन श्री हनुमान जी ही करते है। मंगलवार को कथा के दूसरे दिन श्रद्धालुओं ने कथा का श्रवण किया। इस मौके पर मंच संचालन श्री राघवेन्द्र रामायणी ने किया।
सीहोर। राम काज कीन्हें बिनु, मोहिं कहां विश्राम ये दोहा बताता है कि भगवान श्रीराम के लिये ही श्री हनुमान अवतार लेते हैं। श्रीराम जहां विष्णु के अवतार हैं तो श्री हनुमान जी ग्यारहवें रुद्रावतार हैं। बिना हनुमान की भक्ति के रामभक्ति पाना असंभव है। सात चिरंजीवियों में एक श्री हनुमानजी की साधना कलयुग में सबसे अधिक की जाती है। देश का शायद ही ऐसा कोई कोना होगा जहां पर अष्ट सिद्धि के दाता की श्रीहनुमान जी की पूजा ना की जाती हो। हनुमानजी संकटमोचन हैं जिनका सुमिरन करने मात्र से ही बड़े से बड़े संकट और दु:ख दूर हो जाते हैं। उक्त विचार शहर के चाणक्यपुरी स्थित श्री गोंदन सरकारधाम में श्रीराम लला विराजमान एवं प्राण-प्रतिष्ठा के उपलक्ष्य में पांच दिवसीय श्रीराम कथा के दूसरे दिन झांसी पीठाधीश्वर के जगदगुरु महावीर दास ब्रह्मचारी ने कहे।
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