15 जनवरी को मकर संक्रांति पर 77 सालों के बाद वरीयान योग और रवि योग का संयोग बन रहा है. इस दिन बुध और मंगल भी एक ही राशि धनु में विराजमान रहेंगे. वरीयान योग प्रातः 2 बजकर 40 मिनट से लेकर रात 11 बजकर 11 मिनट तक रहेगा। जबकि रवि योग : सुबह 07 बजकर 15 मिनट से लेकर सुबह 08 बजकर 07 मिनट तक रहेगा। सोमवार 5 साल बाद मकर संक्रांति के दिन पड़ रही है. ऐसे में सूर्य संग शिव का आशीर्वाद भी प्राप्त होगा. इस दिन सूर्य रात 2 बजकर 54 मिनट पर मकर राशि में प्रवेश करेंगे. मकर संक्रांति पुण्यकाल : सुबह 07 बजकर 15 मिनट से शाम 06 बजकर 21 मिनट तक और महा पुण्यकाल सुबह 07 बजकर 15 मिनट से सुबह 09 बजकर 06 मिनट तक है। संक्रांति शब्द का अर्थ है- मिलन, एक बिंदु से दूसरे बिंदु तक का मार्ग, सूर्य या किसी ग्रह का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करना, दो युगों या विचारधाराओं के संघर्ष से परिवर्तित होते वातावरण से उत्पन्न स्थितियां। संक्रांत होना ही जीवन है। परिवर्तन और संधि, इसके दो महत्वपूर्ण पक्ष हैं, जिन्हें समझना जरूरी है। जैसे धनु और मकर। जैसे फल और फूल। जैसे बचपन और यौवन। जैसे परंपरा और आधुनिकता। जैसे शब्द और वाक्य। एक-दूसरे से जुड़ना, बदलना और विस्तार या विनिमय। खिचड़ी का भी यही भाव है। खिचड़ी यानी मिश्रण। विश्व के सारे समाजों और संस्कृतियों का मूलाधार ही है- मिश्रण। मकर संक्रांति को सूर्य की गति से निर्धारित किया जाता है। बच्चे की विस्मय भावना में व सृजनशील कलाकार की कल्पना में हर सूर्योदय अपने प्रकार का पहला सूर्योदय होता है। जीवन को अंधकार से उजाले की ओर ले जाने का। यही एक ऐसा पर्व है जो नए साल के शुरु होते ही हर किसी के मन में उत्साह और उमंग भर देता है। यही वजह है कि भारतीयों का असली नव वर्ष मकर संक्रांति का दिन ही होता है। कहते है इस दिन स्नान-दान करने से दस हजार अश्वमेघ यज्ञ जितना पुण्य फल की प्राप्ति होती है। साथ ही जटिल से जटिल रोगों का निवारण भी होता है
पूजन विधि
मकर संक्रांति के दिन ब्रतामुहूर्त में नित्य कर्म से निवृत्त होकर शुद्ध स्थान पर कुशासन पर बैठें और पीले वस्त्र का आसन बिछा कर सवा किलो चावल और उड़द की दाल का मिश्रण कर पीले वस्त्र के आसन पर सम भाव से पांच ढेरी रखें। फिर दाहिने क्रम से पंचशक्तियों की मूर्ति, चित्र या यंत्र को ढेरी के ऊपर स्थापित कर सुगंधित धूप और दीपक प्रज्ज्वलित करें। इसके बाद एकाग्रचित हो एक-एक शक्ति का स्मरण कर चंदन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, फल अर्पित कर पंचोकार विधि से पूजन सम्पन्न करें। आम की लकड़ी हवन कुंड में प्रज्ज्वलित कर शक्ति मंत्र की 108 आहुति अग्नि को समर्पित कर पुनः एक माला मंत्र जाप करें। वेद, पुराण के अनुसार यदि किसी भी देवी-देवता की साधना में उस शक्ति के गायत्री मंत्र का प्रयोग किया जाए तो सर्वाधिक फलित माना जाता है। इसलिए पंचशक्ति साधना में इसका प्रयोग करना चाहिए। श्री गणेश गायत्री मंत्र- ऊं तत्पुरुषाय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्ति प्रचोदयात्! श्री शिव गायत्री मंत्र- ऊं महादेवाय विद्महे रुद्रमूर्तये धीमहि तन्नो शिव प्रचोदयात! श्री विष्णु गायत्री मंत्र- ऊं श्री विष्णवे च विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णुरू प्रचोदयात! महालक्ष्मी गायत्री मंत्र- ऊं महालक्ष्मयै च विद्महे विष्णु पत्न्यै च धीमहि तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात! सूर्य गायत्री मंत्र- ऊं भास्कराय विद्महे महातेजाय धीमहि तन्नो सूर्य प्रचोदयात! मंत्र जाप समाप्त कर पंचशक्तियों की क्रमशः पंचज्योति के साथ आरती करें और पुष्पांजलि अर्पित कर तिल के लड्डू, फल, मिष्ठान्न, खिचड़ी, वस्त्र आदि का सामर्थ्य के अनुसार सुपात्र को दान दें। यदि दान की वस्तुओं की संख्या 14 हो तो विशेष शुभ माना जाता है।
पितरों का श्राद्ध और तिल का है महत्व
मकर संक्रान्ति के दिन पितरों की मुक्ति के लिए तिल से श्राद्ध करना चाहिए। वैसे भी मकर संक्रांति के अवसर पर तिल से सूर्य की पूजा के संदर्भ में श्रीमद्भागवत एवं देवी पुराण में उल्लेख है। पुत्र शनि एवं अपनी दुसरी पत्नी छाया के श्राप के कारण सूर्य भगवान को कुष्ठ रोग हो गया, किन्तु यमराज के प्रयत्न से कुष्ठ रोग समाप्त हो गया, लेकिन सूर्यदेव ने क्रोधित होकर शनि के घर कुंभ राशि को जलाकर राख कर दिया। इससे शनि और उनकी माता को कष्ट का सामना करना पड़ रहा था। यमदेव ने अपनी सौतेली माता और भाई शनि के कल्याण के लिए पिता सूर्य को काफी समझाया, तब जाकर सूर्यदेव शनि के घर कुभ में पहुंचे। वहां सबकुछ जला हुआ था। शनिदेव के पास तिल के अलावा कुछ नहीं था इसलिए उन्होंने सूर्यदेव की काले तिल से पूजा की। इससे प्रसंन होकर सूर्यदेव ने आर्शीवाद दिया कि शनि का दुसरा घर मकर राशि मेरे आने पर धन्य-धान्य से भर जायेगा। तिल के कारण ही शनिदेव को उनका वैभव फिर से प्राप्त हुआ था इसलिए शनिदेव को तिल प्रिय है। इसी समय से मकर संक्रांति पर तिल से सूर्य एवं शनि की पूजा का विधान है। शिव रहस्य, ब्रह्मपुराण, पद्म पुराण आदि में भी मकर संक्रांति पर तिल दान करने पर जोर दिया गया है। शनि को खुश करने के लिए काली उड़द की दाल भी दान व खायी भी जाती है। एक मान्यता यह भी है कि इस तिथि को ही स्वर्ग से गंगा की अमृत धारा धरती पर उतरी थी। शनि देव मकर राशि के स्वामी हैं और इस तिथि को सूर्य मकर राशि में प्रवेश करते हैं। वैसे भी इसका वैज्ञानिक पक्ष यह है कि संक्रांति के दिन उड़द की खिचड़ी व तिल खाने का खास महत्व है। इस दिन से सूर्य की रश्मियां तीब्र होने लगती है जो शरीर में पाचक अग्नि उद्दीप्त करती है। उड़द की दाल व दही के रुप में प्रोटीन और चूड़ा व चावल के रुप में कार्बोहाइडेट जैसे पोषक तत्वों को अवशोषित करने के लिए यह समय अनुकूल होता है। गुड़ रक्तशोधन का कार्य करता है तथा तिल, मूगफली शरीर में वसा की आपूर्ति करता है।
पुत्र की राशि में प्रवेश करते है भगवान सूर्य
साल का यह पहला बड़ा त्योहार है। ये सूर्य की उपासना का पर्व है. सूर्य के धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करने पर खरमास की भी समाप्ति हो जाती है और सभी मांगलिक कार्य शुरू हो जाते हैं. इस साल मकर संक्रांति बेहद खास मानी जा रही है, क्योंकि रविवार और मकर संक्रांति दोनों ही सूर्य को समर्पित है. पुराणों के अनुसार मकर संक्रांति से सूर्य उत्तरायण होते हैं और ऐसे शुभ संयोग में मकर संक्रांति पर स्नान, दान और सूर्य उपासना से अन्य दिनों में किए गए दान-धर्म से अधिक पुण्य की प्राप्ति होगी. जी हां, मकर संक्रांति के दिन सूर्य देव अपने पुत्र शनि की राशि में विराजमान होते हैं. मान्यता है कि अपने शनि देव पिता सूर्य के अपने घर यानी मकर राशि में प्रवेश करने पर उनकी तिल, गुड़ से उपासना करते हैं। जब सूर्यदेव अपने पुत्र की राशि मकर में प्रवेश करते हैं। जब सूर्य की गति उत्तरायण हो जाती हैं। सूरज की किरणों से होने लगती है अमृत की बरसात, तो उस घड़ी को कहते है मकर संक्रांति। मकर संक्रांति के अवसर पर जितना शुभ गंगा स्नान को माना गया है, उतना ही शुभ इस दिन दान को भी माना गया है। मान्यता है कि इस दिन गंगा, युमना और सरस्वती के संगम, प्रयाग मे सभी देवी देवता अपना स्वरूप बदलकर स्नान के लिए आते है। इस लिए इस दिन दान, तप, जप का विशेष महत्व है। इस दिन गंगा स्नान करने से सभी कष्टों का निवारण हो जाता है। मकर संक्रांति मे चावल, गुड, उड़द, तिल आदि चीजों को खाने मे शामिल किया जाता है। इस दिन ब्राहमणों को अनाज, वस्त्र, उनी कपड़े आदि दान करने से शारीरिक कष्टों से मुक्ति मिलती है। मकर संक्रांति पर पुण्य और महापुण्य काल का विशेष महत्व है. धार्मिक मान्यता है कि इस दिन से स्वर्ग के द्वार खुल जाते हैं. मकर संक्रांति के पुण्य और महापुण्य काल में गंगा स्नान-दान करने व्यक्ति के सात जन्मों के पाप धुल जाते हैं और वह स्वर्ग लोग में स्नान प्राप्त करता है. गीता में भी कहा गया है जो उत्तरायण और शुक्ल पक्ष में देह त्यागता है उसे जन्म-मरण के बंधन से मुक्ति मिल जाती है. वह दोबारा मृत्य लोक (पृथ्वी लोक) में नहीं जन्म लेता. इस दिन जूते, अन्न, तिल, गुड़, वस्त्र, कंबल का दान करने से शनि और सूर्य देव की कृपा प्राप्त होती है. ज्योतिषाचार्यों के अनुसार मकर संक्रांति के अवसर पर गंगा स्नान एवं गंगातट पर दान को अत्यंत शुभ माना गया है और यदि वह स्नान तीर्थ प्रयागराज संगम या गंगासागर में किया जाएं, तो उस स्नान को महास्नान की संज्ञा दी गयी है। इसी महास्नान के लिए लोग लाखो-करोड़ों की संख्या लंबी दूरी तयकर घंटों लाइन में लगकर श्रद्धालु मकर संक्रांति के दिन पुण्यस्नान के लिए पहुंचते है। मान्यता है कि इस अवसर पर दिया गया दान सौ गुना बढ़कर पुनः प्राप्त होता है। इस दिन शुद्ध घी व कंबल का दान मोक्ष की प्राप्ति करवाता है।
सारे तीर्थ बार-बार गंगासागर एकबार
माघ मासे महादेवः यो दास्यति घृत कंबलम्। स भुवत्वा सकलान भोगान अंते मोक्ष् प्राप्ति।। शायद इसीलिए गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम व गंगासागर स्नान का महत्व भी है। ठंड के बावजूद यहां करोडों आस्थावान डूबकी लगाते है। आस्थावानों का मानना है यहां स्नान से न सिर्फ मोक्ष की प्राप्ति होती है, बल्कि जनम-जनम के सारे पाप व दुख दूर हो जाते है। साल में केवल एक दिन मकर संक्रांति के दिन ही गंगासागर में पुण्य महास्नान की परंपरा है। संभवतः इसीलिए कहा जाता है सारे तीर्थ बार-बार गंगा सागर एक बार। इस दिन गंगासागर महातीर्थ स्थल में बदल जाता है। देश के कोने-कोने से विभिन्न परंपराओं, संस्कारों, भाषा व संप्रदायों के लोग गंगासागर पहुंचते हैं। इनमें बिहार, मध्यप्रदेश,श्झारखंड, उत्तर प्रदेश के श्रद्धालुओं के साथ-साथ देश के सुदूर पश्चिम में स्थित राजस्थान व गुजरात के लोग भी शामिल होते है। झुंड में चल रहे गृहस्थों के अलग विभिन्न परंपराओं व संप्रदायों के साधु-संयासियों का जत्था भी होता है। इसमें मोबाइल बाबा, होंडा बाबा, लक्खड़ बाबा से लेकर नागा बाबाओं का झुंड शामिल होता है, जिनके अलग-अलग अनुशासन व पंत होते है, लेकिन विविध-विविध स्वरुप, रंग-रुप, भाषा और विश्वास के बावजूद सभी का एक ही उद्देश्य होता है, वह है पतित पावनी गंगासागर में मिलनस्थल का संगमस्थल मोक्षदायिनी गंगासागर में स्नान करना। गंगासागर प्राचीन काल से ही कपिलमुनि के साधनास्थल के रुप में विख्यात है। कपिलमुनि आश्रम एवं गंगासागर तीर्थस्थल को सन्यासियों एवं धार्मिक आस्था के लोगों के लिए महापीठ माना गया है। इस स्थल पर ही राजा सागर के 60 हजार पुत्र भस्मिभूत हुए थे। बाद में राजा भगीरथ ने अपने पूर्वजों के उद्धार के लिए कठोर तपस्या की। उन्हीं की तपस्या से प्रसंन होकर मां गंगा उनके पीछे-पीछे धरती पर अवतरित हुई। मां गंगा के निर्मल जल से ही सागर के 60 हजार पुत्रों को मोक्ष की प्राप्ति हुई। शास्त्रों में उल्लेख है कि गंगा देवी चर्तुदश भुवन को पवित्र कर सकती है। गंगा सभी तीर्थो की जननी है। सभी तीर्थ स्नान और तीर्थस्थल भ्रमण से जो पुण्य लाभ प्राप्त होता है वह सभी लाभ एकमात्र गंगासागर स्नान से ही प्राप्त हो जाता है। गंगासागर द्वीप का प्रमुख आकर्षण महर्षि कपिलमुनि का मंदिर है। हालांक कपिलमुनि के आश्रम का जिक्र विभिन्न ऐतिहासिक व पौराणिक ग्रंथों में मिलता है लेकिन 197 में समुद्र से एक किमी दूर मंदिर के सेवायत श्रीमद पंच रामानंदी निर्वाणी अखाड़ा, हनुमानगढ़ी अयोध्या के महंतों द्वारा वर्तमान मंदिर का निर्माण कराया गया है। मंदिर में 6 शिलाओं पर 6 मूर्तियां है। ये मूर्तियां लक्ष्मी, घोड़े को पकड़े राजा इंद्र, गंगा, कपिलमुनि, राजा सागर और हनुमान जी की है। ‘माघ मकर रवि गति जब होई, तीरथ पतीह आज सब कोई’ ‘माघ मकर रवि गति जब होई, तीरथ पतीह आज सब कोई’ अर्थात माघ माह में मकर राशि पर भगवान सूर्य आ जाते हैं और तीर्थों के राजा प्रयाग के संगमत तट पर कल्पवास शुरू हो जाता है। कल्पवास का अपना अलग ही आध्यात्मिक महत्व होता है। बड़े-बड़े साधु व महात्माओं का प्रवचन सुनने को मिलता है। जहां पर धर्म की एक अलग ही दुनिया बसती है। इसी वजह से अनादि काल से प्रयाग ऋषियों व महात्माओं की तपोस्थली रही है। गंगा को स्वर्ग की नदी माना जाता है। यह पृथ्वी पर भगीरथ के तप से आयी और सगर के पुत्रों का उद्धार करते हुए सागर में मिल गयी। जिस दिन गंगा सागर में मिली थी वह मकर संक्रान्ति का दिन था। इसलिए मकर संक्रान्ति के दिन गंगा स्नान का पुण्य कई गुणा बताया गया है। विद्वानों की मानें तो सूर्य सभी राशियों को प्रभावित करते हैं, किन्तु कर्क व मकर राशियों में सूर्य का प्रवेश धार्मिक दृष्टि से अत्यन्त फलदायक है। यह प्रवेश अथवा संक्रमण क्रिया छः-छः माह के अन्तराल पर होती है। भारत देश उत्तरी गोलार्ध में स्थित है। मकर संक्रान्ति से पहले सूर्य दक्षिणी गोलार्ध में होता है अर्थात् भारत से अपेक्षाकृत अधिक दूर होता है। इसी कारण यहां पर रातें बड़ी एवं दिन छोटे होते हैं तथा सर्दी का मौसम होता है। किन्तु मकर संक्रान्ति से सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध की ओर आना शुरू हो जाता है। अतएव इस दिन से रातें छोटी एवं दिन बड़े होने लगते हैं तथा गरमी का मौसम शुरू हो जाता है। दिन बड़ा होने से प्रकाश अधिक होगा तथा रात्रि छोटी होने से अन्धकार कम होगा। अतः मकर संक्रान्ति पर सूर्य की राशि में हुए परिवर्तन को अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर होना माना जाता है। प्रकाश अधिक होने से प्राणियों की चेतनता एवं कार्य शक्ति में वृद्धि होगी। ऐसा जानकर सम्पूर्ण भारतवर्ष में लोगों द्वारा विविध रूपों में सूर्यदेव की उपासना, आराधना एवं पूजन कर, उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की जाती है।
विभिन्न प्रांतों में है अलग-अलग मान्यताएं
मकर संक्रांति उन गिने-चुने अवसरों में से एक है, जब पूरे देश में एक साथ पर्व-त्योहार अलग-अलग नाम से मनाएं जाते है। बिहार, झारखंड, बंगाल में संक्रांति, उत्तर प्रदेश में खिचड़ी, पंजाब में लोहड़ी, असम में बिहू तो दक्षिण भारत में पोंगल की धूम रहती है। झारखंड के कई इलाकों में टुसु व सोहराय पर्व का उत्साह चरम पर होता है। हमारा देश कृषि प्रधान रहा है। फसलों के पकने पर होली व दीवाली मनाएं जाते है, वहीं मकर संक्रांति के अवसर पर रबी की फसल को लहलहाता देख लोग उत्सवमय हो जाते हैं। धार्मिक महत्व के साथ-साथ मकर संक्रांति का भी लोक पक्ष भी बहुत सशक्त हैं। खास बात यह है कि मकर संक्रांति के दिन से ही सूर्य उत्तरायण होना प्रारम्भ होता है। सूर्य लगभग 30 दिन एक राशि में रहता है। इस काल में सूर्य कुछ निस्तेज तथा चंद्रमा प्रभावशाली रहता है तथा औषधियों व अन्न की उत्तपत्ति में सहायक रहता है। इस काल में सूर्य की रश्मियां तेज हो जाती है, जो रबी की फसल को पकाने में सहायक करती है। उत्तरायणकाल में सूर्य के तेज से जलाशयों, नदियों व समुद्रों का जल वाष्परुप में अंतरीक्ष में चला जाता है और दक्षिणायनकाल में यही वाष्प-कण पुनः वर्षा के रुप में धरती पर बरसते है। यह क्रम अनवरत चलता रहता है।
निरीली है महाकुंभ की महिमा
कुंभ का इतिहास हालांकि हजारों साल पुराना है लेकिन यह कब शुरू हुआ इस बारे में कोई आधिकारिक जानकारी नहीं है। ईसा पूर्व 629 से 645 तक भारत में रहे चीनी यात्री ह्वेन सांग ने अपने यात्रा वर्णन में प्रयाग में हर पांच साल बाद लोगों के जुटने तथा गंगा में स्नान करने का जिक्र किया है। इतिहासकारों का मानना है कि कुंभ की शुरूआत राजा हर्षवर्धन के कार्यकाल में हुई जबकि कुछ लोग मानते हैं कि इसे आदि शंकराचार्य ने शुरू कराया। कुंभ में तीन शाही स्नान तथा कुल छह मुख्य स्नान होते है। इसमें शाही स्नान, मकर संक्रांति, मौनी अमावस्या तथा वसंत पंचमी के दिन प्रमुख रुप से स्नान किए जाते है। इसके अलावा पौष पूर्णिमा, माघ पूर्णिमा तथा महाशिवरात्रि के दिन मुख्य स्नान पर्व हैं। कहते है अमृत की खींचा-तानी के समय चन्द्रमा ने अमृत को बहने से बचाया। गुरू ने कलश को छुपा कर रखा। सूर्य देव ने कलश को फूटने से बचाया और शनि ने इन्द्र के कोप से रक्षा की। इसलिए जब इन ग्रहों का संयोग एक राशि में होता है तब कुंभ का अयोजन होता है। क्योंकि इन चार ग्रहों के सहयोग से अमृत की रक्षा हुई थी। गुरू एक राशि लगभग एक वर्ष रहता है। इस तरह बारह राशि में भ्रमण करते हुए उसे 12 वर्ष का समय लगता है। इसलिए हर बारह साल बाद फिर उसी स्थान पर कुंभ का आयोजन होता है। लेकिन कुंभ के लिए निर्धारित चार स्थानों में अलग-अलग स्थान पर हर तीसरे वर्ष कुंभ का अयोजन होता है। कुंभ के लिए निर्धारित चारों स्थानों में प्रयाग के कुंभ का विशेष महत्व है। हर 144 वर्ष बाद यहां महाकुंभ का आयोजन होता है। शास्त्रों में बताया गया है कि पृथ्वी का एक वर्ष देवताओं का दिन होता है, इसलिए हर बारह वर्ष पर एक स्थान पर पुनः कुंभ का आयोजन होता है। देवताओं का बारह वर्ष पृथ्वी लोक के 144 वर्ष के बाद आता है। ऐसी मान्यता है कि 144 वर्ष के बाद स्वर्ग में भी कुंभ का आयोजन होता है इसलिए उस वर्ष पृथ्वी पर महाकुंभ का अयोजन होता है। महाकुंभ के लिए निर्धारित स्थान प्रयाग को माना गया है। तीर्थराज प्रयाग का उल्लेख भारत के धार्मिक ग्रन्थों वेद, पुराण, रामायण और महाभारत में भी मिलता है। गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों का यहां संगम होता है, इसलिए हिन्दुओं के लिए प्रयाग का विशष महत्त्व है। शास्त्रों के अनुसार दक्षिणायन को देवताओं की रात्रि अर्थात नकारात्मकता का प्रतीक तथा उत्तरायण को देवताओं का दिन अर्थात सकारात्मकता का प्रतीक माना गया है। इसलिए इस दिन जप, तप, दान, स्नान, श्राद्ध, तर्पण आदि धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष महत्व है। इस तिथि का एक अन्य रूप में भी महत्व बढ जाता है क्योंकि इस तिथि को खरमास समाप्त होता है और शुभ मास शुरू होता है।
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी
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