आलेख : पाई-पाई का हिसाब मांगने वाले अपना हिसाब क्यों नहीं देंगी? - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शनिवार, 17 फ़रवरी 2024

आलेख : पाई-पाई का हिसाब मांगने वाले अपना हिसाब क्यों नहीं देंगी?

हो जो भी सच तो यही है लोकसभा हो या राज्यसभा या विधानसभा या अन्य चुनाव, उम्मीदवार रुपया पानी की तरह बहाते है। कहीं-कहीं तो ये राशि चुनाव आयोग की तय रकम से भी दस गुना अधिक होता है। मतलब साफ है ये राशि कहीं न कहीं से आती ही होगी, वो चंदा भी हो सकता है या घालमेल कर बनायी गयी अवैध संपत्ति। यही अवैध धन या संपत्ति कालाधन है। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है आखिर क्यों न हो चुनावी चंदे की रकम सार्वजनिक? हालांकि छह साल पहले भाजपा द्वारा लायी गयी इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम के पीछे मंशा चुनाव में कालेधन के इस्तेमाल को रोकने की रही हो, लेकिन यदि सप्रीम कोर्ट ने प्रश्नचिन्ह लगाया है तो जरुर यह पारदर्शी नहीं रही होगी। ऐसे में सरकार को चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय के मंशा के अनुरुप चुनाव को पारदर्शी बनाने के लिए नए संशोधित बिल लेकर आने में हर्ज नहीं। देखा जाएं तो आज देश में चुनाव और दलों को मिलने वाले चुनावी चंदे में ईमानदारी को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया है, वो सराहनीय है। खासकर तब जब सरकारें आम लोगों की कमाई के एक-एक पैसे का हिसाब चाहती है। ऐसे में दुसरा बड़ा सवाल है आम आदमी से पाई-पाई का हिसाब चाहने वाली राजनीतिक पार्टियां अपने चंदे का हिसाब क्यों नहीं देना चाहती?  वक्त आ गया है जब चुनाव सुधारो को लेकर बहस को अंजाम तक पहुंचाया जाएं। राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदा में पारदर्शिता तो होनी ही चाहिए…

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फिरहाल, सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड पर रोक लगा दी है. कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड को असंवैधानिक बताया है और इस पॉलिसी को रद्द कर दिया है. कोर्ट ने माना है कि चुनाव बॉन्ड की योजना सूचना के अधिकार के खिलाफ है. यह सही है संविधान के अनुच्छेद 19 (1 ए) के तहत कुछ भी और सब कुछ जानने का कोई सामान्य हक़ नहीं है। सही है, लेकिन ऐसा क़ानून चंदे पर तो कम से कम लागू नहीं होना चाहिए। यह अनुच्छेद सरकार की गोपनीय चीजों और रक्षा संबंधी मामलों के लिए है। दरअसल, चुनावी बॉन्ड को सरकार ने आरटीआई के दायरे से बाहर रखा है. यानी आम जनता आरटीआई के तहत चुनावी बॉन्ड से संबंधित जानकारी नहीं मांग सकती है.  जबकि कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, वोटर्स का हक है कि वो पार्टियों के फंड के बारे में जानकारी रखें. चुनाव आयोग को भी इलेक्टोरल बॉन्ड से संबंधित जानकारी बेवसाइट पर देनी होगी. सरकार की दलील थी कि इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए पॉलिटिकल फंडिंग में ब्लैक मनी और गड़बड़झाला रुक सकेगा. जबकि कोर्ट ने कहा, काला धन रोकने के दूसरे रास्ते भी हैं. राजनीतिक चंदे के लिए अनुच्छेद 19 (1 ए) का दुरुपयोग ठीक नहीं है।


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दरअसल, चुनावी बॉन्ड क़ानून के तहत चंदा देने वाला व्यक्ति या संस्था, एसबीआई के बॉन्ड डिजिटल पेमेन्ट के ज़रिए ख़रीदता है और राजनीतिक पार्टियों को चंदे के रूप में देता है। लेकिन बैंक या फिर ये राजनीतिक पार्टियां चंदा देने वाले का नाम बताने के लिए बाध्य नहीं थी। लेकिन यक्ष सवाल तो यही है जब चुनावी चंदा एक नंबर की रकम से मिल रहा है तो उसे छुपाने का क्या मकसद हो सकता है? राजनीतिक दलों को चंदा देने वाले औद्योगिक घराने आखिर अपनी पहचान क्यों छिपाना चाहते हैं? यदि वो सही है तो उन्हें डर किस बात का है? खासकर जब सरकार चाहती है आम आदमी अपनी खाता बही दुरुस्त रखते हए पाई-पाई का हिसाब दें, तो आम जनमानस में अपना लेखा जोखा रखने में क्यों कोताही बरतना चाहती है। जबकि राजनीतिक दलों को चंदा संग्रह करने का अधिकार है और जमा की गयी धनराशि पर उन्हें कोई आयकर भी नहीं देना होता है. उन्हें जो पैसा चंदे या दान के रूप में मिलता है, उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे उसकी जानकारी चुनाव आयोग को मुहैया करायेंगे. पहले जो धन बैंक चेक या ड्राफ्ट के माध्यम से हासिल होता था, उसकी जानकारी तो मिल जाती थी, लेकिन नगदी चंदे के बारे में पारदर्शिता का पूरा अभाव था. इस पृष्ठभूमि में इलेक्टोरल बॉन्ड की व्यवस्था लाकर यह प्रयास हुआ कि काले धन की समस्या को रोका जाए, उसे हतोत्साहित किया जाए. लेकिन वह कारगर साबित नहीं हो सकी। एक निर्धारित समयावधि के अंदर पार्टियां इलेक्टोरल बॉन्ड को भुना लेती थीं. इस पद्धति में यह सूचना सार्वजनिक करने का प्रावधान नहीं था कि किस पार्टी को किस व्यक्ति या संस्था ने कितना चंदा इलेक्टोरल बॉन्ड के माध्यम से दिया है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया है कि अब 2018 वाली चंदा स्कीम नहीं चलेगी। चंदा देने वाले का नाम हर किसी को होना चाहिए। छह साल तक जिसने चंदा दी है, उसके रकम की सर्जरी होगी। मतलब साफ है 16518 करोड़ की चुनावी चंदे से अब पर्दा हटेगा। बता दें, चुनावी बॉन्ड जमा करने को लेकर देशभर में एसबीआई की अधिकृत कुल 29 ब्रांच हैं. जहां पर कोई भी चुनावी बॉन्ड खरीद सकता है और राजनीतिक दलों को फंड दे सकता है. हालांकि कोर्ट ने जारीकर्ता बैंक (एसबीआई) को चुनावी बॉन्ड जारी करने पर तत्काल रोक लगाने का आदेश दिया है. यानी अब इस योजना पर ब्रेक लग गया है. इससे राजनीतिक दलों की मुश्किलें बढ़ने वाली हैं. चूंकि आम चुनाव करीब हैं और पार्टियों को चुनावी चंदे की सबसे ज्यादा जरूरत होगी.


राजनीतिक दलों को मिले चदे का ब्योरा

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भाजपा को 2022-23 में लगभग 720 करोड़ रुपये का इलेक्टोरल डोनेशन (चुनावी चंदा) मिला. यह आंकड़ा चार अन्य राष्ट्रीय दलों- कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, सीपीआई--एम और नेशनल पीपुल्स पार्टी को प्राप्त कुल चुनावी चंदे से पांच गुना अधिक है. चुनावी और राजनीतिक सुधारों के लिए काम करने वाली संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने अपनी एक रिपोर्ट में उपरोक्त आंकड़े पेश किए हैं. एडीआर के अनुसार, वित्तीय वर्ष 2022-23 में राष्ट्रीय दलों को (20,000 रुपये से अधिक) 850.438 करोड़ रुपए के कुल 12,167 डोनेशन प्राप्त हुए. देश की छठी राष्ट्रीय पार्टी, बसपा को वर्ष 2022-23 के दौरान 20,000 रुपये से अधिक का कोई चंदा नहीं मिला. भाजपा के मुताबिक उसे डोनेशन से 719.858 करोड़ रुपये प्राप्त हुए. कांग्रेस के मुताबिक उसे 894 डोनेशन से 79.924 करोड़ रुपये प्राप्त हुए. आम आदमी पार्टी, नेशनल पीपुल्स पार्टी और सीपीआईएम द्वारा घोषित कुल चंदे से पांच गुना अधिक है. बता दें, एनपीपी नॉर्थईस्ट की एकमात्र राजनीतिक पार्टी है जिसे राष्ट्रीय दल का दर्जा प्राप्त है. एडीआर ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि राष्ट्रीय पार्टियों को दिल्ली से कुल 276.202 करोड़ रुपये का चंदा मिला, इसके बाद गुजरात से 160.509 करोड़ रुपये और महाराष्ट्र से 96.273 करोड़ रुपये का चंदा मिला. वित्त वर्ष 2022-23 के दौरान राष्ट्रीय पार्टियों का कुल चंदा 91.701 करोड़ रुपये बढ़ गया, जो पिछले वित्त वर्ष 2021-22 से 12.09 प्रतिशत अधिक है. एडीआर ने के मुताबिक भाजपा को वित्त वर्ष 2021-22 के दौरान 614.626 करोड़ रुपये का चुनावी चंदा प्राप्त हुआ था, जो वित्त वर्ष 2022-23 के दौरान बढ़कर 719.858 करोड़ रुपये हो गया. इस प्रकार उसे पिछली बार के मुकाबले इस बार 17.12 प्रतिशत अधिक डोनेशन मिला. हालांकि, वित्त वर्ष 2019-20 की तुलना में वित्त वर्ष 2020-21 के दौरान पार्टी के चंदे में 41.49 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई थी. वित्त वर्ष 2021...-22 के दौरान कांग्रेस को प्राप्त डोनेशन 95.459 करोड़ रुपये से घटकर वित्त वर्ष 2022-23 के दौरान 79.924 करोड़ रुपये हो गया- जो 16.27 प्रतिशत की गिरावट है. एडीआर के अनुसार, वित्त वर्ष 2020-21 और वित्त वर्ष 2021-22 के बीच कांग्रेस के इलेक्टोरल डोनेशन में 28.09 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी. एडीआर के मुताबिक पिछले वित्तीय वर्ष की तुलना में, इस बार सीपीआई (एम) को मिले चुनावी चंदे में 39.56 प्रतिशत (3.978 करोड़ रुपये) और आम आदमी पार्टी को मिले डोनेशमें 2.99 प्रतिशत (1.143 करोड़ रुपये) की कमी आई है. 


विकल्प खोजने में जुटे राजनीतिक दल

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राजनीतिक दलों को चंदे की समस्या से जूझना होगा। चुनाव में खर्च के लिए अन्य सोर्स पर बात करनी होगी। आगे चंदा कैसे लिया जाएगा, इसका विकल्प तलाशना होगा। चुनाव आयोग से राय-मशविरा करनी होगी। कोर्ट से भी विकल्प देने की मांग की जा सकती है। देखा जाएं तो हमारे देश में पंजीकृत राजनीतिक दलों की संख्या सैकड़ों में है. ऐसे में यह तो संभव है नहीं कि धन का कोई एक केंद्रीय संग्रहण हो और सभी दलों को उसमें से एक समान हिस्सा मुहैया कराया जाए. दलों की विचारधारा अलग-अलग हैं. ऐसे में व्यक्ति उस दल को चंदा नहीं देगा जिससे उसका विचार मिलता हो। वैसे भी अगर सभी दलों को एक समान चंदा मिलेगा, तो पार्टी बनाना एक धंधा बन जायेगा. ऐसे में यह व्यक्ति या संस्था पर निर्भर करता है कि वह किसी एक दल को चंदा दे या कुछ दलों में अपनी धनराशि को अपनी समझ से बांट दे. यह अलग बात है कि चुनावी चंदे के मामले में नगदी का चलन नहीं होना चाहिए और चंदा हमेशा ऐसी व्यवस्था के तहत लिया और दिया जाए, जिससे उसके स्रोत के बारे में सही जानकारी मिल सके. यदि सर्वोच्च न्यायालय का यह मानना है कि पारदर्शिता के साथ यह पता चलना चाहिए कि किस दल को किस व्यक्ति या संस्था ने कितनी धनराशि दी है, तो यह कानून की एक व्याख्या है और इसे सकारात्मक रूप में लेना चाहिए. इसी सरकार के कार्यकाल में यह कानून बना था, इसलिए इसी सरकार को यह देखना होगा कि सर्वोच्च न्यायालय की आपत्तियों और निर्देशों का अनुपालन करते हुए एक संशोधित व्यवस्था लायी जाए. ऐसा तो अब नहीं हो सकता है कि हम पहले के काले धन वाले समय में लौट जाएं, जहां न तो पैसे के स्रोत का पता चलता था और न ही पैसा देने वाले के बारे में. आज भी हर चुनाव में हम देखते हैं कि चुनाव आयोग बड़ी मात्रा में नगदी की धर-पकड़ करता है. पहले भी कई बार आयोग की ओर से कहा जा चुका है कि चुनावों में बाहर से पैसा आने के अंदेशों को खारिज नहीं किया जा सकता है. किसी भी व्यवस्था या नियम का उद्देश्य यही है कि हमारे देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भ्रष्टाचार और धन-बल का हस्तक्षेप न हो और स्वच्छ एवं निष्पक्ष चुनाव हों.


चुनावी बॉन्ड स्क्रीम क्या है...

2 जनवरी, 2018 में केंद्र सरकार चुनावी बॉन्ड योजना लेकर आई थी.चुनाव बॉन्ड के जरिए राजनीक दलों को चंदा दिया जाता है. कोई भी भारतीय नागरिक या कंपनी-कारोबारी-कॉरपोरेशन चुनावी बॉन्ड खरीद सकते थे, जो लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 29ए के तहत रजिस्टर्ड हैं और जिन्हें पिछले लोकसभा या विधानसभा चुनाव में एक प्रतिशत से अधिक वोट मिले हों.  इसमें कोई भी नागरिक, कंपनी या संस्था किसी पार्टी को चंदा दे सकती थी. ये बॉन्ड 1000, 10 हजार, 1 लाख और 1 करोड़ रुपये तक के हो सकते थे. खास ये है कि बॉन्ड में चंदा देने वाले को अपना नाम नहीं लिखना पड़ता था. ये चुनावी बॉन्ड एसबीआई की 29 ब्रांचों में मिलते थे. यह बॉन्ड साल में चार बार यानी जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर में जारी किए जाते थे. इसे ग्राहक बैंक की शाखा में या उसकी वेबसाइट पर ऑनलाइन खरीद सकता था. राजनीतिक दलों को चुनावी बॉन्ड जारी होने से 15 दिन के भीतर इनकैश कराना होता है. दरअसल, चुनावी बॉन्ड क़ानून के तहत चंदा देने वाला व्यक्ति या संस्था, एसबीआई के बॉन्ड डिजिटल पेमेन्ट के ज़रिए ख़रीदता है और राजनीतिक पार्टियों को चंदे के रूप में देता है। लेकिन बैंक या फिर ये राजनीतिक पार्टियाँ चंदा देने वाले का नाम बताने के लिए बाध्य नहीं है। ऐसे में इन्कम टैक्स रिटर्न के मार्फ़त सरकार को तो सबकुछ पता चल जाता है लेकिन लोगों को पता नहीं चल पाता कि किस पार्टी को किस उद्योगपति ने कितना चंदा दिया। या इतनी बड़ी मात्रा में चंदा लेकर वह सरकार चंदा देने वाले उस उद्योगपति का किस तरह और कितना भला करने वाली है। कुल मिलाकर पारदर्शिता बिल्कुल नहीं थी। सवाल यह है कि आखि़र हक़ किसे है? क्या वोटर या आम नागरिक केवल अपना अमूल्य वोट देकर सरकार बनाने और राजनीतिक दलों के नेताओं को कुर्सी पर बैठाने के लिए ही बना है? कौन सा दल किस उद्योगपति से एहसान का चंदा लेकर सत्ता में जा बैठा है, यह जानना महत्वपूर्ण नहीं है? क्या सारी चौकसी और तमाम पहरेदारी केवल आम आदमी पर ही लगाई जाएगी? आखि़र उसके बारे में सबकुछ जानने का हक़ सरकार को किसने और क्यों दिया? क्या राजनीतिक दल किसी आसमान से टपके हैं जो तमाम क़ानूनों और नियमों से हमेशा ऊपर ही बने रहते हैं? जबकि रिजर्व बैंक का कहना है कि चुनावी बॉन्ड योजना से मनी लॉन्ड्रिंग का खतरा है। ब्लैक मनी को भी बढ़ावा मिलेगा। हाल ही में 2 जनवरी से 11 जनवरी तक चुनावी बॉन्ड के लिए विंडो खोला गया था। 11 जनवरी को विंडो बंद हो गया था, जो चंदा आया होगा, वो 15 दिन में इनकैश हो गया था।







Suresh-gandhi


सुरेश गांधी

वरिष्ठ पत्रकार

वाराणसी

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