बचपन में हम आसपास की ग़लत चीज़ों को सहन नहीं करते थे। हम विरोध करते थे। हम बेशक अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे थे, मगर जागरूक थे। हमारे विरोध के आगे सरकारी अधिकारी भी डरते थे। अनुशासित रहते थे। उन्हें रातों को नींद नहीं आती थी। नतीजा, जिस ग़लत हो रही बात का हम विरोध करते थे, सरकारी अधिकारी उन्हें डर के मारे रोक देते थे या दुरुस्त कर देते थे। माना कि हम सरकार को टैक्स देते हैं। इसके बदले सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है कि नागरिकों को सुविधाएं दे, मगर हम नागरिकों का भी तो कोई फ़र्ज़ बनता है। हमारा कुम्भकरणी नींद से जागना ज़रूरी है। आज जो हम बाज़ार से च़ीज़ें लाकर खा रहे हैं या अपने बच्चों को, परिवार को खिला रहे हैं, उनमें ज़हर है। हमें इसका विरोध करना होगा। हम घरों में आने वाले प्रदूषित जल के बारे में सम्बंधित सरकारी विभाग को शिकायत करें। ईमेल व व्हाट्सअप रोज़ाना करके लोगों को जगाएं। बताएं कि फलां चीज़ में ज़हर है। मगर हम ऐसा नहीं कर रहे। दुर्भाग्य है कि हम अपने विनाश को स्वयं निमंत्रण देने पर तुले हैं। हम दिखावे के लिए समाज सेवा कर रहे हैं। हम अपना घर तो साफ-सुथरा कर रहे हैं मगर कुल शहर को गंदा करने पर आमादा हैं। हमारी ज़िम्मेदारी बनती है कि हम अपने घर के आसपास का क्षेत्र भी साफ-सुथरा रखें। ग़ाज़ियाबाद के साथ-साथ अन्य महानगरों के नगर निगमों के पास साफ-सफाई को कई सौ करोड़ रुपये बजट होता है, फिर भी साफ-सफाई चौपट है। सरकारी विभागों के पास आज आधुनिक तकनीक हैं। फिर भी काम में सुधार नहीं। कारण, सरकारी विभागों की नीयतों में खोट है। उन्हें जगाने के लिए हमें पहले जागना होगा। तभी हमारे देश के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के स्वच्छता अभियान को सफलता मिलेगी। आज देश की नदियों का हाल देखो। गंगा और यमुना नदियां मरने की ओर अग्रसर हैं। हिन्डन नदी तो नाला बनती जा रही है। केदारनाथ में पिछले दिनों भयानक आपदा आई। कश्मीर में भी कुदरती कहर बरपा। ये प्राकृतिक आपदाएं हमें अभी से चेता रही हैं। संकेत कर रही हैं कि अगर हम न चेते तो भविष्य में भारी तबाही मचेगी। तब हम कुछ नहीं कर पाएंगे।
पर्यावरण प्रदूषण के मुख्य दो कारण हैं। एक, अंधाधुंध शहरीकरण। दूसरा, अंधाधुंध ग़ैर ज़िम्मेदार रवैया। माना कि हमारा अधिकार बस वोट और टैक्स देना ही रह गया है। बाकी सारा काम तो सरकार के हवाले है। मगर हम अपने आपको कमतर न समझें। अपनी ज़िम्मेदारी समझें। खुद पहल करें और ज़िम्मेदार नागरिक साबित हों। आसपास अगर कुछ ठीक न हो रहा हो तो उसे टोकें। उसका विरोध करें। हम माना कि आज हाई-फाई हो गए हैं मगर ज़िम्मेदारी समझने में हम फिसड्डी हैं। हम नॉलेज टू विजडम को नहीं जान पा रहे। हमें आज अपनी समझ को ठीक करना है। हमने अपने घर तो ठीक कर लिये मगर हमारे मोहल्ले बहुत गंदे हैं। हम 15 अगस्त या 26 जनवरी मनाभर लेना ही देशभक्ति समझते हैं। इस तरह की छोटी-मोटी समाज सेवा या देशभक्ति से देश नहीं चला करते। विश्व में आज हम सबसे गंदे देश के लोग माने और जाने जाते हैं। विदेशी लोग हम पर हंसते हैं। हमपर तंज़ कसते हैं। वे कहते हैं कि हम गंगा को मां मानते हैं। उसे पवित्र बताते हैं। मगर हम कूड़ा-कचरा भी उसी में बहाते हैं। यह विडम्बना नहीं तो और क्या है। हम आज़ादी मिलने से लेकर आज तक एक छोटी-सी समझ पैदा नहीं कर पाये। प्राचीन समय से नदी को प्रदूषित करने की एक परम्परा-सी चल रही है। हम पूजा आदि का मलबा नदियों में बहाकर कुप्रथा के वाहक बने हुए हैं। बड़े नाले, सीवर, कूड़ा-कचरा सब नदियों में मिल रहा है। शहरों में लगे सरकारी सीवर ट्रीटमेंट प्लांट या तो कम क्षमता वाले हैं या अधिकांशतया खराब पड़े हैं। उन्हें चालू ही नहीं किया जा रहा। बुरा हाल है। हम जैसे नरक में जी रहे हैं। हमें इस ओर सोचने के अलावा जागरूक नागरिक बनना ही होगा। मेरा कानून की पढ़ाई कर रहे नौजवानों और विधि विभाग के शिक्षकों से निवेदन है कि वे इस बारे में जागरूक बनें। सम्बंधित विभागों के अधिकारियों को जगाने के लिए जमकर आरटीआई डालें। जवाब तलब करें। उन्हें मजबूर कर दें कि वे पर्यावरण के लिए महज काग़ज़ों का सहारा न लें, हक़ीक़त में भी कुछ कर दिखायें।
हम अपने घर को भी ठीक से नहीं रख पा रहे। शहर को क्या ख़ाक ठीक करेंगे। हमारी हाइजनिक कंडीशन भी ठीक नहीं है। देखना ही है तो राजस्थान प्रदेश को देखो। वहां पानी की बेहद कमी है। हम जब छोटे थे, हमें घर में जूते पहनकर घुसना मना था। हमें पानी का सदुपयोग करना सिखाया गया। हम बाहर नहाने कुंए पर जाते थे। नहाने के बाद एक बाल्टी पानी भरकर लाने को कहा जाता था। यह काम हम रोज़ करते थे। इससे घर में पानी की कमी भी पूरी हो जाती थी और जगह-जगह कीचड़ भी नहीं होता था। जब भोजन दिया जाता था, तो कहा जाता था कि थाली में जूठा भोजन बिल्कुल नहीं छोड़ना। थाली को भोजन के बाद हम सूखी मिट्टी और बाद में कपड़े से साफ करते थे। इस वजह से कहीं पानी व्यर्थ भी नहीं जाता था। मोहल्ले में भी कीचड़ या गंदगी दिखाई नहीं देती थी। इसका सुखद परिणाम यह निकलता था कि मक्खी या मच्छर भी नहीं पनपते थे। तब हम अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे होते थे। मगर घर व मोहल्ले को पवित्र बनाये रखने को सदैव तत्पर रहते थे। आज हम जैसे-जैसे ज़्यादा पढ़-लिख रहे हैं, पवित्रता से कोसों दूर होने लगे हैं। हम एडवांस होने के नाम पर पिछड़ते जा रहे हैं। हमारा सोच नकारात्मक होने लगा है। हमारे दिमाग़ में गंदगी भरने लगी है। हमारी माइंड सेट होना ज़रूरी है। हमें सबसे पहले अपना मानसिक प्रदूषण दूर करना होगा। इसे बदलना होगा। हमारे मानसिक प्रदूषण को कोई सरकार या उसकी कोई सख़्ती नहीं बदल सकती। इसलिए स्वामी विवेकानंद की बात मानो- ‘उठो, जागो और विश्व जगाओ।’ यही आज हमारा मूलमंत्र होना चाहिए।
डॉ. अशोक कुमार गदिया
कुलाधिपति
मेवाड़ विश्वविद्यालय
गंगरार, चित्तौड़गढ़
राजस्थान
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