आलेख : भीड़ का खौफ दिखाकर फैसले पलटवाना चाहते हैं भड़काऊ भाईजान? - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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रविवार, 4 फ़रवरी 2024

आलेख : भीड़ का खौफ दिखाकर फैसले पलटवाना चाहते हैं भड़काऊ भाईजान?

कोर्ट के आदेश पर ज्ञानवापी के व्यास तहखाने में लंबे अंतराल के बाद पूजा-अर्चना शुरु हो गयी है। यह अलग बात है कि मुगल आक्रांताओं को अपना आदर्श मानने वाले कुछ तथाकथित मुठ्ठीभर लोग कोर्ट के फैसले पर ही सवाल उठाकर अपनी सियायी रोटी सेकने में जुट गए है। जबकि ज्ञानवापी में जो फैसले दिए गए है, वे सबूत के आधार पर है। कानून के तहत ही फैसला दिया गया है। सेवा निवृत्त जज डॉ अजय विश्वेश की मानें तो कोर्ट ने समय देकर बाकायदा दोनों पक्षों को सुनने के बाद फैसला दिया है। कोर्ट भावनाओं के बजाय साक्ष्यों पर फैसला देता है। यदि किसी को आपत्ति है तो साक्ष्यों के साथ उपरी अदालतों में भी अपनी बात रख सकता। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है फैसला पक्ष में नहीं तो कब तक जुडिसियली का अपमान करते रहेंगे धर्म ठेकेदार? ओवैसी जैसे नेताओं को बताना पड़ेगा कि अदालते सरिया नहीं कानून से चलती है। दुसरा बड़ा सवाल आखिर कब तक भीड़तंत्र व एकजुटता का खौफ दिखाकर फैसले बदलवाते रहेंगे कट्टरपंथी? सबूत, दलील कमजोर, फिर आरोपों पर जोर क्यों? तीसरा बड़ा सवाल यह है कि ज्ञानवापी का सच कबूल क्यों नहीं कर रहा मुस्लिम पक्ष? क्या अदालत पर सवाल उठाकर सच को झूठला सकता है मुस्लिम पक्ष? इससे बड़ा सवाल तो यह है कि जब साबित हो चुका है ज्ञानवापी मंदिर आस्था ही नहीं ऐतिहासिक सत्य भी है तो झुठलाने की हिमाकत क्यों की जा रही है और ज्ञानवापी मंदिर नहीं मस्जिद है तो साबित करो, भीड़तंत्र को उकसाने की क्या जरुरत है? उन्हें समझना होगा अब हम नए भारत में जी रहे है, जहां वोटबैंक का दबाव नहीं बनाया जा सकता 

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फिरहाल, इलाहबाद हाईकोर्ट ने ज्ञानवापी के व्यास तहखाने में शुरू हुई पूजा पर साक्ष्यों व दलीलों के बाद कोई भी रोक लगाने से इनकार कर दिया है. हाईकोर्ट ने कहा है कि मुस्लिम पक्ष ने अपनी याचिका में 17 जनवरी के मूल आदेश को चुनौती नहीं दी. मामले पर अगली सुनवाई 6 फरवरी को होगी। मतलब साफ है वाराणसी जिला जज डॉ अजय विश्वेश के आदेश तथ्य व साक्ष्यों के साथ कानूनी दायरों में है। बावजूद इसके कुछ मुस्लिम धर्मगुरुओं व भड़काऊ भाईजान न सिर्फ पूरे मामले में देश की सरकार को घेरने की कोशिश में जुटे है, बल्कि भीड़ के सहारे दबाव बनाने की कोशिश कर रहे है। ये उनके भड़काऊ तकरीरों का ही कमाल था कि कल तक जहां 100 से 150 लोग जुमे की नमाज पढ़ते थे, इकठ्ठे 2400 से अधिक लोग पहुंच गए। मस्जिद में जगह कम पड़ गयी और बैरंग वापस लौटना पड़ा। इसके अलावा विरोध में दुकाने बंद की गयी। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है भीड़तंत्र के सहारे आदेश को पलटवाना चाहते है भड़काऊ भाईजान?


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हद तो तब हो गयी जब उन्होंने लोगों के बीच धर्म की खाई चौड़ी करने का आरोप लगाते हुए ज्ञानवापी पर हक को लेकर सड़कों पर लड़ाई होगी, का उेलान करने से भी बाज नहीं आएं। यह अलग बात है कि उनकी कोई सुनता नहीं। हलांकि इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि ज्ञानवापी मामले में कोर्ट के फैसले के बाद कुछ मुस्लिम समाज के लोगों में काफी गुस्सा है. इसी दौरान मलिक मोतासिम खां ने भी अपनी बात रखते हुए कहा परेशान हैं. सफोकेशन महसूस कर रहे हैं. इसके पीछे उनका तर्क है 1991 वर्शिप एक्ट। लेकिन 93 पर उनके मुंह पर खामोशी छायी हुई है। तथ्यों व साक्ष्यों पर यकीन करें तो 1993 से पहले व्यासजी के तहखाने में नियमित पूजा होती थी, बाबरी मस्जिद के हवाले से लॉ एंड आर्डर की दुहाई देकर तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने न सिर्फ पूजा बिना किसी आदेश के रुकवा दी, बल्कि लोहे के मोटे खंभों की चहारदीवारी से पूरे ज्ञानवापी की बैरिकेडिंग करा दी। इन्हीं तथ्यों को हिन्दू पक्ष के अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन ने आधार बनाया व फैसला अपने पक्ष में किया। आखिर क्या वजह है कि ज्ञानवापी का सच कबूल नहीं कर पा रहा मुस्लिम पक्ष? आखिर कब तक कुतर्को से भड़काते रहेंगे भाईजान? उन्हें समझना होगा कि अब वोटबैंक के दबाव वाली न सरकार है और ना ही वो भारत। अब भारत बदल रहा है। आदेश पहले भी होते थे लेकिन उसे समय दबाव वाली सरकारें थी। अब सरकारी आदेश का पालन करने वाली सरकारें है, इसलिए कंप्लायंट तुरंत हो रहा है। अधिवक्ता विष्णु जैन यूं ही सवाल नहीं खड़ा कर रहे है, उनके पास तथ्य व साक्ष्य दोनों है। इतिहास बताता है कि आक्रांताओं ने मंदिरों को तोड़ा है। किस तरह पाकिस्तान, ईरान, अफगानिस्तान सहित अन्य मुस्लिम मुल्कों में सैकड़ों मंदिरों को तोड़कर उनका अस्तित्व मिटाया गया है। दरअसल, ज्ञानवापी सनातनी लोगों के दिल पर अंकित एक ऐसा शब्द है, जिसकी महिमा का वर्णन न केवल सनातन ग्रंथों में है बल्कि कई प्रतिष्ठित अंग्रेजी इतिहासकारो द्वारा काशी पर किए गए शोधकार्यों और उनकी पुस्तकों से भी इसकी पुष्टि होती है. दैवीय ग्रंथों और आध्यात्मिक खोज की कहानियों से भरे सनातन ग्रंथों में अक्सर ज्ञानवापी को एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल के रूप में उद्धृत किया गया है. इसी तरह वाराणसी का अध्ययन करने वाले अंग्रेजी इतिहासकार भी इन ग्रंथों से सहमति जताते हैं. ईबी हैवेल और एडविन ग्रीव्स जैसे लेखकों ने ब्राह्मण के कुएं के किनारे बैठकर तीर्थयात्रियों को पानी पिलाने का आकर्षक विवरण प्रस्तुत किया है. ज्ञानवापी का उल्लेख सनातन ग्रंथों में भी मिलता है. स्कंद पुराण के काशी खंड में कहा गया है कि ज्ञानवापी का निर्माण स्वयं भगवान शिव ने किया था. लिंग पुराण में 6 प्रमुख वापियों यानि कुओं का जिक्र है. पहली वापी ज्येष्ठा वापी है. दूसरी वापी है ज्ञानवापी; इसे ज्ञानवापी नाम इसलिए दिया गया क्योंकि यह भगवान शिव के आशीर्वाद से बनाई गई थी और इसका पानी पीने से भक्त प्रबुद्ध हो जाते हैं और सभी प्रकार का ज्ञान प्राप्त करते हैं. तीसरी वापी का नाम कर्कोटक वापी है, जो नागकुआं के नाम से प्रसिद्ध है. चौथी वापी का नाम भद्रवापी है. पांचवी वापी शंखचूड़ वापी है और छठी वापी को सिद्ध वापी के नाम से जाना जाता है.


“बनारस-द सेक्रेड सिटी“ पुस्तक में भी दर्ज है ज्ञानवापी की सच्चाई

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ई.बी. हेवेल ने अपनी पुस्तक “बनारस-द सेक्रेड सिटी“ में ज्ञानवापी की उत्पत्ति के संबंध में दो सिद्धांतों का जिक्र किया है. उनके अनुसार, इस कुएं से जुड़ी किंवदंती यह है कि एक समय की बात है जब बनारस सूखे से पीड़ित था. बारह वर्षों तक बारिश नहीं हुई थी जिसकी वजह से नगर की भयंकर दुर्दशा हो गई. अंततः एक ऋषि, जो महान हिंदू संतों में से एक थे, ने शिव का त्रिशूल पकड़कर उसे इसी स्थान पर धरती में गाड़ दिया. तुरंत पानी का एक झरना फूट पड़ा, जो पूरे शहर की परेशानी दूर करने के लिए पर्याप्त था. चमत्कार के बारे में सुनकर शिव ने कुएं में अपना निवास स्थान बना लिया और आज भी वहीं हैं. एक और किंवदंती के अनुसार जब विश्वेश्वर के पुराने मंदिर को औरंगजेब ने नष्ट कर दिया था तो एक पुजारी ने मूर्ति ले ली और उस कुएं में फेंक दिया. दोनों अंग्रेजी लेखकों ने उस ब्राह्मण का अच्छे से विवरण दिया है, जो कुएं के पास बैठकर तीर्थयात्रियों को पानी देता था. दोनों लेखकों ने अन्य छोटे मंदिरों और गणेश की बड़ी आकृतियों के बारे में भी लिखा है. ई.बी. हैवेल के मुताबिक ’ज्ञान-कूप यानि ज्ञान का कुआं, स्वर्ण मंदिर और औरंगज़ेब की मस्जिद के बीच बड़े चतुर्भुज में स्थित है, जो पुराने विश्वेश्वर मंदिर के स्थान पर बनाया गया है. यह एक सुंदर सारासेनिक पिलर से ढका हुआ है, जिसे 1828 में ग्वालियर के दौलत राव सिंधधिया की विधवा ने बनवाया था. पास में विशाल पत्थर से बना हुआ बैल (नंदी) हैं. तीर्थयात्रियों की भीड़ को हमेशा देखने और अध्ययन करने के लिए बहुत कुछ मिलता है. एक ब्राह्मण प्रत्येक तीर्थयात्री को एक घूंट पानी पिलाने के लिए करछुल (डोई) लेकर कुएं के पास बैठता है. कोलोनेड एक पसंदीदा विश्राम स्थल है, और वहां आप अक्सर उन तीर्थयात्रियों को देख सकते हैं जो अपने संरक्षक देवता की तस्वीर और प्रतीकों को अपने साथ ले जाते हैं. फर्श पर एक छोटे से मंदिर की व्यवस्था करते हैं और विधि-विधान से पूजा करते हैं.’ एडविन ग्रेव्स अपनी पुस्तक ’काशी द सिटी इलस्ट्रियस’में लिखते हैं,  ’ज्ञान बापी-एक ढलानदार पगडंडी वाली गली से उतरते हुए पहली इमारत जो नज़र में आती है वह औरंगजेब की मस्जिद है, जो मस्लिमों द्वारा ध्वस्त किए गए विश्वनाथ के पुराने मंदिर की जगह बनाई गई है. यह एक अच्छी इमारत है, हालांकि इसका बहुत अधिक उपयोग नहीं किया गया है और यह हमेशा से ही हिंदुओं की आंखों की किरकिरी रही है क्योंकि यह उस स्थान के बिल्कुल केंद्र में है जिसे वे विशेष रूप से पवित्र भूमि मानते हैं. इसी जगह पर साल 1809 में झगड़ा हुआ था जो विनाशकारी साबित हुआ. मस्जिद के पीछे और इसके आगे के भाग में संभवतः पुराने विश्वनाथ मंदिर के कुछ टूटे हुए अवशेष हैं.’ ’मस्जिद के पूर्व में एक सादा लेकिन अच्छी तरह से निर्मित स्तंभ स्थित है, जो ज्ञान बापी, ज्ञान के कुएं को कवर करता है. यह कुआं पत्थरों की दीवार से घिरा हुआ है, जिस पर एक ब्राह्मण बैठता है. उपासक कुएं पर आते हैं, फूल चढ़ाते हैं, और ब्राह्मण के हाथ से कुएं से एक छोटा चम्मच पानी प्राप्त करते हैं और इसे वे अपने माथे और आंखों पर लगाते हैं, और उनमें से कुछ थोड़ा पीते हैं, और फिर खुश होकर चले जाते हैं. स्तंभ के उत्तर में एक बैल की एक विशाल आकृति है, जो महादेव की नंदी है. इस बैल को बहुत सम्मान के साथ माना जाता है, इस बैल के नजदीक गौरी शंकर यानि पार्वती और महादेव की आकृतियों वाला एक मंदिर है.इसी खुली जगह में एक या दो अन्य छोटे मंदिर और गणेश की एक बड़ी आकृति है, जिसे ज्ञान के कुएं के पास उपयुक्त रूप से रखा गया है क्योंकि गणेश बुद्धि के देवता हैं.’खास बात है कि हिन्दू पक्ष के अधिवक्ता ने इसे अपनी दलीलों में कोड भी किया है।


जब औरंगजेब ने दिया मंदिर तोड़ने का फरमान

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मंदिर के तोड़े जाने का एक महत्वपूर्ण प्रमाण ‘मा-असीर-ए-आलमगीरी’ नाम की पुस्तक भी है। यह पुस्तक औरंगज़ेब के दरबारी लेखक सकी मुस्तईद ख़ान ने 1710 में लिखी थी। इसी किताब में उस शाही फरमान का उल्लेख है, जिसमें औरंगज़ेब ने विश्वनाथ मंदिर को तोड़ने के लिए जारी किया था। फारसी में जारी शाही फरमान-1 में कहा गया है कि ज्ञानवापी वह जगह है जहां काशी में शिव का आदिस्थान माना गया है। जहां शिव स्वयं अविमुक्तेश्वर लिंग रूप में इस तरह से विराजमान हैं कि आक्रांताओं द्वारा कई बार की कोशिशों के बावजूद भी उसे हिलाया तक नहीं जा सका जबकि कोशिशें मुहम्मद गोरी, सुल्तान महमूद शाह, शाहजहां सहित कई मुग़ल आक्रांताओं ने की। बाद में 1669 में औरंगजेब के समय जब मूल मंदिर को तोड़कर मंडपम के ऊपर गुम्बद-मेहराब बनाकर उसे मस्जिद के रूप में तामीर करा दिया गया तो भी शिवलिंग को अपनी जगह से हिला पाने की कोशिशें नाकाम ही रहीं। यहीं पर वजूखाना बनवा दिया गया था जहां नमाजी हाथ-पैर धोते हैं जो उसी तरफ सिर किए बैठे नंदी से करीब 40 फिट की दूरी पर है। इसलिए भी इसके मुख्य मंदिर होने के प्रमाण सामने आए हैं। शिवलिंग को क्षति न पहुंचाए जाने का जिक्र प्रायः मुगलकालीन सभी इतिहासकारों ने करते हुए लिखा है कि काशी के प्रधान शिवालय का ध्वंस करने के बाद जब शिवलिंग को अपने साथ ले जाने की कोशिश हुई तो तमाम कोशिशों के बाद भी शिवलिंग अपने मूल स्थान से हिला भी नहीं। अंततः शिवलिंग छोड़ दिया गया और अंत में सारा खजाना लूटकर चले गए। बता दें कि पुराणों में शिव और पार्वती के आदि स्थान काशी विश्वनाथ को प्रथम लिंग माना गया है। इसका उल्लेख महाभारत में भी किया गया है। वहीं औरंगजेब से पहले जाएँ तो 11वीं सदी तक यह मंदिर अपने मूल रूप में बना रहा, सबसे पहले इस मंदिर के टूटने का उल्लेख 1034 में मिलता है। इसके बाद 1194 में मोहम्मद गोरी ने इसे लूटने के बाद तोड़ा। काशी वासियों ने इसे उस समय अपने हिसाब से बनाया लेकिन वर्ष 1447 में एक बार फिर इसे जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह ने तुड़वा दिया। फिर वर्ष 1585 में राजा टोडरमल की सहायता से पंडित नारायण भट्ट ने इसे बनवाया था लेकिन वर्ष 1632 में शाहजहाँ ने एक बार फिर काशी विश्वनाथ मंदिर को तुड़वाने के लिए मुग़ल सेना की एक टुकड़ी भेज दी। लेकिन हिन्दुओं के प्रतिरोध के कारण मुग़लों की सेना अपने मकसद में कामयाब न हो पाई। हालाँकि, इस संघर्ष में काशी के 63 जीवंत मंदिर नष्ट हो गए। इसके बाद सबसे बड़ा विध्वंश औरंगजेब ने करवाया जो काशी के माथे पर सबसे बड़े कलंक के रूप में आज भी विद्यमान है। साक़ी मुस्तइद खाँ की किताब ‘मासिर -ए-आलमगीरी’ के मुताबिक़ 16 जिलकदा हिजरी- 1079 यानी 18 अप्रैल 1669 को एक फ़रमान जारी कर औरंगजेब ने मंदिर तोड़ने का आदेश दिया था। साथ ही यहाँ के ब्राह्मणों-पुरोहितों, विद्वानों को मुसलमान बनाने का आदेश भी पारित किया गया था। मंदिर से औरंगजेब के ग़ुस्से की एक वजह यह थी यह परिसर संस्कृत शिक्षा बड़ा केन्द्र था और दाराशिकोह यहाँ संस्कृत पढ़ता था। और इस बार विश्वनाथ मंदिर की महज एक दीवार को छोड़कर जो आज भी मौजूद है और बिना किसी सर्वे के भी साफ दिखाई देती है, समूचा मंदिर संकुल ध्वस्त कर दिया गया। मुग़ल इतिहासकारों के अनुसार ही 15 रब- उल-आख़रि यानी 2 सितम्बर 1669 को बादशाह औरंगजेब को खबर दी गई कि मंदिर न सिर्फ़ गिरा दिया है, बल्कि उसकी जगह मस्जिद की तामीर भी करा दी गई है। इसे औरंगजेब के समय अंजुमन इंतजामिया जामा मस्जिद नाम दिया गया था लेकिन बाद में ज्ञानवापी कूप के कारण इसका नाम भी ज्ञानवापी मस्जिद ही रहा। वहीं मंदिर के खंडहरों पर ही बना वह मस्जिद बाहर से ही स्पष्ट दीखता है जिसके लिए न किसी पुरातात्विक सर्वे की जरुरत है न किसी खुदाई की। लेकिन अभी सर्वे के बाद मिले शिवलिंग और दूसरे प्रमाणों की वजह से हिन्दुओं की स्थिति और भी मजबूत हुई है।


 




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सुरेश गांधी

वरिष्ठ पत्रकार

वाराणसी

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