इस गांव में करीब 633 परिवार रहते हैं. जिसकी कुल आबादी लगभग 3900 है. इतनी बड़ी आबादी वाला यह गांव 11 टोला में बंटा हुआ है. अनुसूचित जाति बहुल इस गांव में करीब 1600 अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़ा वर्ग परिवार रहता है. यहां की अधिकतर आबादी खेती किसानी से जुड़ी हुई है. ज़्यादातर परिवार खेती किसानी से जुड़ा हुआ है. जिनके पास खेती लायक ज़मीन नहीं है वह रोज़गार के अन्य साधन से जुड़े हुए हैं. ज़्यादातर लोग रोज़गार के लिए दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, सूरत और गुरुग्राम पलायन करते हैं. कैशापी पुरानी डिह में साक्षरता की दर लगभग 58 प्रतिशत है. इसमें महिलाओं की साक्षरता दर मात्र 27 प्रतिशत है. यह अंतर केवल साक्षरता की दर में ही नहीं बल्कि सोच में भी नजर आता है। यहां का ग्रामीण समाज लैंगिक भेदभाव से आज़ाद नहीं हुआ है. गाँव की 16 वर्षीय ज्योति कहती है कि "हम लड़कियों के साथ इस प्रकार का भेदभाव आम है। हमारे माता-पिता को हमारी शिक्षा से अधिक चिंता घर का कामकाज सिखाने की रहती है। वह शिक्षा के महत्व नहीं जानते हैं। इसीलिए वह हमारे स्कूल जाने के बारे में नहीं सोचते हैं। लेकिन यदि हमें अवसर मिले तो हम लड़कियां भी बता सकती हैं कि हम लड़कों से कम नहीं हैं."
हालांकि इसी गाँव में कुछ घर उच्च जाति के भी हैं, जहां परिस्थिती इससे अलग देखने को मिलती है। उच्च जाति की लगभग सभी लड़कियां स्कूल और कॉलेज जाती हैं। उन्हें शिक्षा प्राप्त करने का पूरा अवसर मिलता है। अभिभावक लड़कों के समान ही उन्हें पढ़ने का अवसर प्रदान करते हैं। लेकिन जागरूकता के अभाव में निम्न जाति में अभी भी शिक्षा के प्रति उदासीनता नजर आती है। माता-पिता को लड़कियों को पढ़ाने से कहीं अधिक घर के कामों को सिखाने की चिंता रहती है। निम्न समुदाय की इन लड़कियों दोहरे भेदभाव का सामना करनी पड़ती है। कक्षा 9 में पढ़ने वाली रौशनी बताती है कि "जब भी हम स्कूल जाते हैं तो उच्च जाति के शिक्षक न केवल हमारा मज़ाक उड़ाते हैं बल्कि हमारे साथ भेदभाव भी करते हैं। शिक्षक कहते हैं कि तुम लड़कियां पढ़ कर क्या करोगी? कौन सा कलेक्टर बन जाओगी?" वह बताती है कि स्कूल में हमारे लिए पानी की अलग व्यवस्था की जाती है। हमें उच्च जाति की लड़कियों के साथ बैठने भी नहीं दिया जाता है। यहां तक कि पीने का पानी भी अलग है। एक बार एक लड़की ने उच्च जाति के नल से पानी भर लिया था तो एक शिक्षक ने उसकी बुरी तरह पिटाई कर दी थी, जिससे उसका हाथ टूट गया था। लेकिन उनकी दबंगता के कारण किसी ने उनके खिलाफ कंप्लेन करने की हिम्मत नहीं दिखाई।
बहरहाल, बिहार सरकार ने बालिका शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए कई योजनाएं संचालित कर रही है। खास बात यह है कि इसमें अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग की बालिकाओं की शिक्षा के लिए कई प्रकार की विशेष योजनाएं चलाई जा रही हैं। इसके बावजूद इस समुदाय में लड़कियों की शिक्षा के प्रति नकारात्मक सोच इसकी महत्ता को कमजोर बना देता है। लड़कियों की शिक्षा के प्रति ऐसी सोच दरअसल जागरूकता की कमी के कारण है। ऐसे में सरकार को योजनाओं के संचालन के साथ साथ गाँव में माता-पिता के साथ जागरूकता अभियान चलाने की भी जरूरत है। उन्हें यह बताने की आवश्यकता है कि लैंगिक भेदभाव न केवल लड़कियों के सर्वांगीण विकास में बाधक है बल्कि देश की तरक्की में भी रोड़ा है क्योंकि आधी आबादी को नज़रंदाज़ कर कोई भी समाज या देश विकसित नहीं बन सकता है।
सीमा कुमारी
गया, बिहार
(चरखा फीचर)
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