कुछ साल पहले तक उत्तराखंड के जिन गांवों की किशोरियां 8वीं या बहुत ज्यादा 10वीं तक ही पढ़ा करती थी. जिन्हें लगता था कि वह पढ़ाई करके भी क्या कर सकती हैं? आज उसी गांव की लड़कियां न केवल 10वीं से आगे कॉलेज की पढ़ाई कर रही हैं बल्कि हर क्षेत्र में सशक्त हो रही हैं. सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के साथ साथ गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा जागरूकता पर किये जा रहे प्रयासों से अब परिस्थिति बदल चुकी है. अब किशोरियां न केवल पढ़ रही हैं बल्कि अपने अधिकारों के प्रति जागरूक भी हो रही हैं. इस संबंध में बागेश्वर जिला के गरुड़ ब्लॉक स्थित सैलानी गांव की एक 19 वर्षीय किशोरी जानकी दोसाद कहती है कि 'पहले जब मैं पढ़ाई करती थी तो मुझे ज्यादा चीजों की जानकारी नहीं हुआ करती थी. लेकिन जब मैं किशोरियों के सशक्तिकरण पर काम करने वाली संस्था चरखा से जुड़ी और मैंने उनका वर्कशॉप अटेंड किया तो मुझे बहुत सी चीजों के बारे में पता चला. मैंने किशोरियों के अधिकार और सशक्तिकरण को समझा. जिससे मुझे आगे बढ़ने का एक रास्ता मिला। आज मैं कॉलेज कर रही हूं. अब मैं, जब लोगों के बीच में जाकर बात करती हूं तो मुझे हिचकिचाहट नहीं होती है. मैं खुद को और दूसरी लड़कियों को भी सशक्त बनाना चाहती हूं.' इसी गांव की एक किशोरी रेणु कहती है कि 'शहर के साथ-साथ गांव की किशोरियां भी आगे बढ़ रही हैं. वह सशक्त हो रही हैं क्योंकि गांव में अच्छे विद्यालय बन गए हैं, जहां टीचर की सुविधा उपलब्ध है. गांव के लोग भी जागरूक हो रहे हैं और अब वह लड़कियों को पढ़ाते हैं. रेणु की बातों को आगे बढ़ाते हुए 16 वर्षीय हिमानी कहती है कि 'जीवन में बहुत सी ऐसी बातें हैं जो मैंने स्कूल नहीं बल्कि चरखा संस्था से जुड़ने के बाद सीखा है. पहले मुझे किसी के सामने बोलने से भी डर लगता था. लेकिन जब मैं चरखा संस्था की वर्कशॉप में आई तो मैंने अपने जीवन में बहुत बदलाव महसूस किया है.'
वहीं रौलियाना गांव की किशोरी पूजा गोस्वामी कहती है कि 'पहले मैं लोगों के सामने बोलने से भी बहुत घबराती थी. स्कूल की प्रतियोगिता में भाग लेती थी पर मुझे शर्म आती थी. लेकिन जब से चरखा से जुड़ी हूं, तब से मेरा आत्मविश्वास बहुत बढ़ गया है. अब मैं स्कूल में सभी प्रकार की प्रतियोगिता में भाग लेती हूं. मैं 2023 में विज्ञान कांग्रेस प्रतियोगिता में राज्य स्तर तक पहुंची, जिससे मेरे स्कूल का नाम ऊंचा हुआ है. मेरे गांव की महिलाओं को भी इससे बहुत कुछ सीखने को मिला है. मेरा विषय ‘ग्रामीण महिलाओं के लिए डिजिटल स्वास्थ्य सेवा का महत्व’ था. जिसमें मैंने पूरे आत्मविश्वास के साथ अपने गांव की महिलाओं की स्वास्थ्य की दशा को सबके सामने रखा था.' वहीं लमचूला गांव की कविता आर्य कहती है कि 'आज से तीन साल पहले लड़कियों के प्रति उनकी मम्मी की सोच अलग थी. परंतु आज उनकी सोच में बहुत बदलाव आया है. पहले मुझे वो घर से बाहर नहीं जाने देती थी. जब पीरियड्स होते थे तो मुझ घर से अलग रखा जाता था. जब मैं बाहर जाने लगी और सब काम करने लगी तो उन्हें अच्छा लगा. अब वो मुझे पीरियड्स के दौरान घर से दूर भी नही रखती है और कहीं जाने से भी नहीं रोकती हैं. कक्षा 11 में पढ़ने वाली कुमारी मनीषा कहती है कि 'जब से मैंने अपना होश संभाला मुझे खेलने और पेंटिंग का बहुत शौक था. इसमें मेरे परिवार के लोगों ने भी मुझे काफी सपोर्ट किया। हालांकि शुरू शुरू में मुझे घर से बाहर अकेले जाने में बहुत डर लगता था. बाहरी लोगों से बात करने में बहुत झिझक होती थी. लेकिन अब मैं लोगों से पूरे आत्मविश्वास के साथ बात करती हूं. अपनी बात कहना जानती हूं.
गनीगांव की एक 36 वर्षीय महिला गुड्डी देवी कहती हैं कि 'पहले गांव की लड़कियां बात करने से कतराती थी. खुलकर अपनी बात कह नहीं पाती थी. उनके साथ कुछ भी गलत होता था तो वह कुछ कह नहीं पाती थी. स्कूल तो जाती हैं, पढ़ाई भी करती हैं लेकिन उन्हें वह जगह नहीं मिल पाई जहां पर वह अपनी बात कह सकें. लेकिन गांव की बहुत सी लड़कियां जब चरखा संस्था के साथ जुड़ी तो उन्होंने अपने अधिकारों को जाना. आज वह अपनी बात कहने में सक्षम हुई हैं. अब वह गलत चीज़ों के लिए आवाज उठाती हैं. लड़कियों का कपड़े पहनने का तरीका बदल रहा है. पहले जहां सूट दुपट्टा पहनना जरूरी होता था, वहीं अब वह अपने मनपसंद के कपड़े पहनती हैं. कंप्यूटर सीखने जाती हैं. अब किशोरियां सशक्त हो रही हैं. गनीगांव की ग्राम प्रधान हेमा देवी कहती हैं कि पहले और आज के समय में बहुत ही बदलाव हो गया है. आज हर माता-पिता चाहते हैं कि उनकी बेटियां पढ़ी-लिखी और अपने पैरों पर खड़ी हों. अब एक दूसरे को देख-देख कर गांव के लोग भी अपनी बेटियों को कॉलेज तक पढ़ना जरूरी समझने लगे हैं. जो लड़कियां गेम्स में स्कूल के माध्यम से कहीं बाहर जाना चाहती हैं तो उनको भेजते हैं. इस तरीके से गांव की किशोरी अभी सशक्त हो रही है और होने का प्रयास भी कर रही है।
इस संबंध में सामाजिक कार्यकर्ता नीलम ग्रेंडी कहती हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में भी आज किशोरी बालिकाएं अपनी मेहनत और लगन से सशक्त होने का भरपूर प्रयास कर रही हैं. स्कूल में उन्हें अवसर मिलने लगे हैं। जिसका वह पूरा लाभ उठा रही हैं। अब वह जिला और राज्य स्तर पर खेल रही हैं और सशक्त हो रही हैं। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी और सुविधाओं की कमी के कारण किशोरियां अपनी मंजिल तक पहुंचने में कभी-कभी नाकाम हो जाती हैं। हालांकि उनमें प्रतिभा की कोई कमी नहीं है। क्षेत्र में चरखा संस्था के कामकाज के संबंध में नीलम कहती हैं कि संस्था की टीम फील्ड में गांव गांव जाकर किशोरियों को राइटिंग स्किल डेवलपमेंट के विषय में भरपूर जानकारी देती है, जिससे किशोरियां लेखन के माध्यम से अपनी बात रखने में सफल हो गई हैं। आज गरुड़ और कपकोट ब्लॉक के विभिन्न गांवों की किशोरियों अपने अधिकारों के बारे में जानती हैं. उनके लिए क्या सही है और क्या गलत है? इस संबंध में वह अपना फैसला लेने में सक्षम हो गई हैं. दिशा प्रोजेक्ट से जुड़ी किशोरियां न केवल खुद जागरूक हो रही हैं बल्कि अपने गांव की महिलाओं और किशोरियों को भी जागरूक करने का प्रयास करती हैं. उन्हें कार्यशाला में महिलाओं के विषय में, उनके विकास के विषय में जो बातें बताई जाती हैं वह गांव में जाकर इस पर चर्चा करती हैं. जिससे महिलाओं और किशोरियों का आत्मबल बढ़ा है. जो उनके सशक्त और आत्मनिर्भर होने का प्रमाण है.
हेमा रावल
गनीगांव, उत्तराखंड
(चरखा फीचर)
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