इस संबंध में गांव की एक महिला 47 वर्षीय गोविंदी देवी कहती हैं कि "मैं अपने तीनों बच्चों को लेकर नौकरी करने मुंबई गई थी. वहां मुझे दिन रात काम करने पर भी वेतन अच्छा नहीं मिलता था. कभी काम पर लेट पहुंचने पर या कोई काम गलत हो जाने पर फिर से वही काम करने को बोला जाता था. वहां के वेतन से मेरे घर का खर्च नहीं चल पाता था. मेरे पति भी शहर में ही काम करते है. वेतन अच्छा न मिलने के कारण मैं गांव वापस आ गई. मैं यहां भी रोजगार करती हूं. लेकिन काम की अपेक्षाकृत पैसे बहुत कम मिलते हैं. जिससे घर का खर्च और बच्चों की शिक्षा पूरी नहीं हो पाती है." वहीं 25 वर्षीय मनोरमा देवी का कहना है कि "आज का पढ़ा लिखा युवा जिसमें लड़कियां और महिलाएं भी शामिल हैं, सरकारी नौकरी को प्राथमिकता देती हैं. लेकिन नौकरी के सीमित अवसरों के कारण अधिकतर युवा, लड़कियां और महिलाएं इसे प्राप्त करने में असफल रहती हैं. जिसके बाद वह स्व-रोजगार का रास्ता अपनाती हैं. इससे अच्छा है कि वह पहले से ही स्व रोजगार शुरू करें, इससे वह न केवल आत्मनिर्भर बनेंगी बल्कि वह दूसरो को भी रोजगार देने में सक्षम हो सकती हैं. मैंने भी सिलाई सीखी है और अब मैं सिलाई मशीन खरीद कर कपड़े सिलने का काम करती हूं. त्योहारों के समय मुझे काफी काम मिल जाता है. जिससे मुझे अच्छी आमदनी हो जाती है." आय के मामले में घर के अंदर भी महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता है. इस संबंध में 44 वर्षीय माया देवी का कहना है कि "घर की स्थिति देखकर मेरा भी मन करता है कि मैं बाहर जाकर कोई रोजगार करुं, परंतु हमारी मेहनत की अपेक्षाकृत हमें कम भुगतान किया जाता है. जिससे बाहर जाकर काम करने का भी मन नहीं करता है. इतना ही नहीं, जो आय प्राप्त होगी उस पर भी हमारा हक नहीं होता है." माया देवी कहती हैं कि हमारे गाँव में स्त्रियां बचपन से ही लिंग भेद का शिकार होती रही हैं. यहां तक की उन्हें घर के फैसले लेने से भी दूर रखा जाता है. हालांकि हममें इतना साहस तो है कि हम खुद काम करके खा सकती हैं. लेकिन इसके बावजूद महिलाओं को वह स्थान नहीं दिया जाता है, जिसकी वह हकदार होती हैं. यदि महिलाओं को समाज में आजादी और उचित स्थान मिले तो वह भी अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा सकती हैं. लेकिन पितृसत्तात्मक समाज में वह लैंगिक भेदभाव का शिकार होती रहती है.
वहीं 58 वर्षीय माधवी देवी का कहना है कि "पति की मृत्यु के बाद मुझे रोजगार के लिए घर से बाहर निकलना पड़ा. जहां कदम कदम पर मुझे भेदभाव का शिकार होना पड़ता था. जो काम मैं करती थी, वही पुरुष भी करते थे, लेकिन पैसे भुगतान के मामले में स्पष्ट भेदभाव किया जाता था. पुरुषों को मुझसे अधिक भुगतान किया जाता था. परंतु अब मैं रोजगार नहीं करती हूं क्योंकि रोजगार करने से हम स्त्रियों का कोई फायदा नहीं है. अब मैं स्कूल में भोजन बनाने का कार्य करती हूं. अगर हमारा समाज थोड़ा जागरूक और समझदार हो तो महिलाएं खुद अपना स्थान बना सकती हैं और काम करने लग जाएंगी. रोजगार के क्षेत्र में महिलाओं के साथ होने वाले लैंगिक भेदभाव को कुछ जागरूक पुरुष भी महसूस करते हैं. इस संबंध में 49 वर्षीय प्रकाश चंद जोशी कहते हैं कि "मैं रोजगार करता हूं. जहां मुझे अच्छा पैसा मिल जाता है. लेकिन मैं देखता हूं कि जो महिलाएं रोजगार करती हैं, उन्हें पुरुषों की तुलना में कम भुगतान किया जाता है. हालांकि ये कहना बुरा नहीं होगा कि सभी को उसके काम के अनुसार वेतन दिया जाना चाहिए. इस संबंध में लामाबगड़ के 29 वर्षीय युवा ग्राम प्रधान गिरीश सिंह गढ़िया का कहना है कि "मैं गांव में रोजगार लाता हूँ उसमें कोई भेदभाव नही करता. मैं स्त्री और पुरुष दोनो को समान रूप से कार्य देता हूं. गांव में रोजगार करने पर जो आय निश्चित की जाती है वही सभी को मिलता है. काम अलग अलग होने से पैसा भी वैसे ही दिया जाता है." गिरीश सिंह का कहना है कि सरकार को एक ऐसी योजना चलानी चाहिए जिसमें रोजगार या अन्य क्षेत्रों जहां पर भी महिलाओं के साथ लैंगिक भेदभाव किया जाता है, इस पर रोकथाम होनी चाहिए. वास्तव में, ग्रामीण क्षेत्रों में लैंगिक भेदभाव दूर करने के लिए ग्रामीणों का जागरूक होने के साथ साथ महिलाओं का शिक्षित होना भी आवश्यक है. बहुत सी महिलाओं को अपने अधिकारों के बारे में पता ही नही होता है. जिस कारण उन्हें भेदभाव और शोषण का सामना करना पड़ता है. यह आलेख संजॉय घोष मीडिया अवार्ड 2023 के अंतर्गत लिखा गया है.
महिमा जोशी
बागेश्वर, उत्तराखंड
(चरखा फीचर)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें