हरिहर पुराण के अनुसार हिमालय पुत्री पार्वती की यह मनोइच्छा थी कि उनका विवाह केवल भगवान शिव से हो। परन्तु भोलेनाथ थे की सदैव गहरी समाधी में लीन रहते थे, ऐसे में भगवान शिव के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखना कठिन था। देवतागण परेशान हो उठे तो इसकी जिम्मेदारी प्रेम के देवता कामदेव व उनकी पत्नी रति को भगवान भोलेनाथ की तपस्या भंग करने को सौंपी गयी। अपनी तपस्या के भंग होने से शिवजी क्रोध में आकर कामदेव को भस्म कर देते हैं। परंतु क्रोध से शांत होने पर रति और देवों के आग्रह पर वह कामदेव को क्षमा कर देते हैं। इस खुशी में कामदेव ने ब्रजमंडल में ब्रह्मभोज का आयोजन किया। इस उत्सव में 33 करोड़ देवी-देवताओं शामिल हुए और चंदन का टीका लगाकर खुशियां मनाई। सभी देवी-देवता झूमने लगे। भगवान भोलेनाथ डमरु पर नृत्य करने लगे तो नारायण बंशी, पार्वती जी ने वीणा तो मां सरस्वती ने गाया बसंत ऋतु का गीत। कहते है तभी से ब्रजमंडल में होली मनाई जाने लगी। एक अन्य कथानुसार, यह पर्व राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी जुड़ा हुआ है. कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं और शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं. कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था, इसी खु़शी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था। कहते है सात फेरों के बंधन में बधने के बाद भगवान भोलेभंडारी पार्वती संग कैलाश पर विराजमान भांग बूटी में मदमस्त थे। उसी वक्त समस्या लेकर श्रीकृष्ण पहुंचे, वह भी कोई छोटी मोटी समस्या नहीं बल्कि उनकी आन-बान-शान पर बन आई थी। बताया राधा संग होली खेलने पर हार जाता हूं हर बार। इस बार तय करके आया हूं कि राधा से जीतूंगा। इतना सूनते ही भगवान भोलेनाथ ने गणों को दे दी भांग बूटी का आदेश और मदमस्त होकर डमरु की धून पर थिरकते हुए पार्वती संग जमकर होली खेली और श्रीकृष्ण को जीत का आर्शीवाद देकर ब्रज वापस कर दिया। ब्रज लौटने पर श्रीकृष्ण ने जमकर खेली अबीर-गुलाल की होली, पूरा ब्रजमंडल झूम उठाहोली यानी रंग-राग, आनंद-उमंग और प्रेम-हर्षोल्लास का सामाजिक उत्सव। होली के रंग जीव को सरस बनाते है, तो इस मौके के गीत-गवनई और हंसी-ठिठोली उत्साह के रंग भरते है। होली एक सांस्कृतिक, धार्मिक और पारंपरिक त्योहार है। पूरे भारत में इसका अलग ही जश्न और उत्साह देखने को मिलता है। होली भाईचारे, आपसी प्रेम और सद्भावना का त्योहार है। इस दिन लोग एक दूसरे को रंगों में सराबोर करते हैं। घरों में गुझिया और पकवान बनते हैं। लोग एक दूसरे के घर जाकर रंग-गुलाल लगाते हैं और होली की शुभकामनाएं देते हैं। होली हमारी उत्सवधर्मी सामूहिक सांस्कृतिक स्मृति का पर्व है, जब हर तरह की उंच-नीच, छोटे-बड़े की सीमाएं टूट जाती है और हर पुरुष के मन में कृष्ण भाव और स्त्री के मन में राधा भाव वास करने लगता है। इसकी सामूहिकता इसे एक समाजवादी उत्सव बना देती है। होली के सन्दर्भ में यूं तो कई कथाएं इतिहासों और पुराणों में वर्णित है, परन्तु हिन्दू धर्म ग्रन्थ विष्णु पुराण में वर्णित प्रहलाद और होलिका की कथा सबसे ज्यादा मान्य और प्रचलित है। इस दिन रंगों से खेलते समय मन में खुशी, प्यार और उमंग छा जाता हैं। राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है। राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही, पर इनको उत्कर्ष तक पहुंचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्योहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। किसानों का हृदय खुशी से नाच उठता है। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ रंगों की फुहार फूट पड़ती है। होली के दिन आम्र मंजरी तथा चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य है। फाल्गुन मास की पूर्णिमा तिथि को होलिका दहन की परंपरा है. अगले दिन चैत्र मास की प्रतिपदा तिथि में रंगों वाली होली खेलने का विधान है.
शुभ मुहूर्त
इस साल होली 25 मार्च दिन सोमवार के दिन मनाई जाएगी, जबकि होलिका दहन 24 मार्च को किया जाएगा. इस साल फाल्गुन पूर्णिमा तिथि 24 मार्च को सुबह 09 बजकर 54 मिनट से शुरू होगी और पूर्णिमा तिथि का समापन अगले दिन 25 मार्च को दोपहर 12 बजकर 29 मिनट पर होगा. 24 मार्च को होलिका दहन के लिए शुभ मुहूर्त देर रात 11 बजकर 13 मिनट से लेकर 12 बजकर 27 मिनट तक है. होलिका दहन के लिए कुल 1 घंटे 14 मिनट का समय मिलेगा. कहते है प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था. जो अपने बल के अहंकार में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था. हिरण्यकशिपु अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी. हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था. प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग नहीं छोड़ा. हिरण्यकश्यप ने भक्त प्रहलाद को बुलाकर राम का नाम न जपने को कहा तो प्रहलाद ने स्पष्ट रूप से कहा, पिताजी! परमात्मा ही समर्थ है. प्रत्येक कष्ट से परमात्मा ही बचा सकता है. मानव समर्थ नहीं है. यदि कोई भक्त साधना करके कुछ शक्ति परमात्मा से प्राप्त कर लेता है तो वह सामान्य व्यक्तियों में तो उत्तम हो जाता है, परंतु परमात्मा से उत्तम नहीं हो सकता है. इतना सुनते ही अहंकारी हिरण्यकश्यप क्रोध से लाल पीला हो गया. हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती. हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठ जाए. आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, लेकिन प्रह्लाद बच गया. ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है.धुलेंडी
होलिका दहन के अगले दिन से धुलेंडी मनाया जाता है, जो कहीं-कहीं पांच दिनों तक चलता है। धुलेंडी को धुलंडी, धुरड्डी, धुरखेल या धूलिवंदन जैसे नामों से भी जाना जाता है. इस त्योहार का मुख्य उद्देश्य होली की तरह ही प्रेम, उल्लास, एकता और भाईचारा है. हर कोई अपने दोस्त, मित्र, रिश्तेदार और दुश्मन के भी घर जाकर उससे गले मिलकर, गिले-शिकवे दूर करते है और रंग-गुलाल लगाकर उनके जीवन के लिए मंगल कामनाएं करते है.कथानुसार धलुंडी के दिन भोलेनाथ ने कामदेव को उनकी तपस्या भंग करने के प्रयास में भस्म कर दिया था. लेकिन देवी रति की प्रार्थना पर उन्होंने कामदेव को क्षमा दान देकर पुर्नजन्म दिया. महादेव ने देवी रति को यह वरदान दिया कि वह श्रीकृष्ण के पुत्री रूप में जन्म लेंगी. कामदेव के पुर्नजन्म और देवी रति को प्राप्त वरदान की खुशी में धूमधाम से मनाया जाता है. एक अन्य कथानुसार, त्रैतायुग की शुरुआत में भगवान विष्णु ने धूलि वंदन किया था, इसकी याद में धुलेंडी मनाई जाती है. धूल वंदन अर्थात लोग एक दूसरे पर धूल लगाते हैं. कई जगहों पर होली की राख को लगाने की परंपरा है. होली के अगले दिन धुलेंडी के दिन सुबह के समय लोग एक दूसरे पर कीचड़, धूल लगाते हैं. इसे धूल स्नान कहते हैं. पुराने समय में इस दिन चिकनी मिट्टी की गारा का या मुलतानी मिट्टी को शरीर पर लगाया जाता था. इतिहासकारों का मानना है कि आर्यों में भी इस पर्व का प्रचलन था लेकिन अधिकतर यह पूर्वी भारत में ही मनाया जाता था। इस पर्व का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। इनमें प्रमुख हैं, जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गार्ह्य-सूत्र। नारद पुराण और भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है। संस्कृत साहित्य में वसन्त ऋतु और वसन्तोत्सव अनेक कवियों के प्रिय विषय रहे हैं। होली के पर्व की तरह इसकी परंपराए भी अत्यंत प्राचीन हैं और इसका स्वरूप और उद्देश्य समय के साथ बदलता रहा है। प्राचीन काल में यह विवाहित महिलाओं द्वारा परिवार की सुख समृद्धि के लिए मनाया जाता था और पूर्ण चंद्र की पूजा करने की परंपरा थी। वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था। उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा।चंद्र ग्रहण के साए में होली
होली के दिन लगने वाला चंद्र ग्रहण एक उपछाया ग्रहण है, जो कन्या राशि में लगेगा. हालांकि भारत में दिखाई न देने के कारण सूतक मान्य नहीं होता. लेकिन फिर से भी ग्रहण के दौरान सावधानी और सतर्कता बरतना जरूरी होता है. ग्रहण का अशुभ प्रभाव आपके जीवन में न पड़े इसके लिए आप मंत्रों का जाप करें. ग्रहण के दौरान जप, तप, ध्यान और भजन आदि से इसके दुष्प्रभाव दूर होते हैं.
होली के रंग हजार
मथुरा और वृंदावन में भी 15 दिनों तक होली का पर्व मनाया जाता है। कुमाऊं की गीत बैठकी में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियां होती हैं। यह सब होली के कई दिनों पहले शुरू हो जाता है। हरियाणा की धुलंडी में भाभी द्वारा देवर को सताए जाने की प्रथा है। बंगाल की दोल जात्रा, चौतन्य महाप्रभु के जन्मदिन के रूप में मनाई जाती है। जलूस निकलते हैं और गाना बजाना भी साथ रहता है। इसके अतिरिक्त महाराष्ट्र की रंग पंचमी में सूखा गुलाल खेलने, गोवा के शिमगो में जलूस निकालने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन तथा पंजाब के होला मोहल्ला में सिक्खों द्वारा शक्ति प्रदर्शन की परंपरा है। वैसे होली को लेकर देश के विभिन्न अंचलों में तमाम मान्यतायें हैं और शायद यही विविधता में एकता की भारतीय संस्कृति का परिचायक भी है। उत्तर पूर्व भारत में होलिका दहन को भगवान कृष्ण द्वारा राक्षसी पूतना के वध दिवस से जोड़कर पूतना दहन के रूप में मनाया जाता है तो दक्षिण भारत में मान्यता है कि इसी दिन भगवान शिव ने कामदेव को तीसरा नेत्र खोल भस्म कर दिया था और उनकी राख को अपने शरीर पर मल कर नृत्य किया था। तत्पश्चात कामदेव की पत्नी रति के दुख से द्रवित होकर भगवान शिव ने कामदेव को पुनर्जीवित कर दिया, जिससे प्रसन्न हो देवताओं ने रंगों की वर्षा की। इसी कारण होली की पूर्व संध्या पर दक्षिण भारत में अग्नि प्रज्जवलित कर उसमें गन्ना, आम की बौर और चन्दन डाला जाता है। यहां गन्ना कामदेव के धनुष, आम की बौर कामदेव के बाण, प्रज्वलित अग्नि शिव द्वारा कामदेव का दहन एवं चन्दन की आहुति कामदेव को आग से हुई जलन हेतु शांत करने का प्रतीक है।
राज्यों की होली पर एक नजर
होली के त्योहर में जितनी मस्ती और धूम मचती है, उतनी किसी और त्योहर में नहीं होती है। हर उम्र के लोगों के लिए उल्लास का माहौल होता है। बिहार के पारंपरिक गीत, जिसे सुनते ही तन-बदन होली के रंग से सराबोर हो जाता है। गंगा किनारे लोकगायकों की टोली से उभरते गीत बताते हैं कि बिहार में होली का मतलब क्या होता है, मस्ती का रंग क्या होता है। देश के कुछ हिस्सों में विशुद्ध अंदाज में परंपराएं मौजूद हैं, जिनमें पश्चिम बंगाल का नाम ऊपर है। यहां डोल जात्रा के साथ वसंत उत्सव का आगाज होता है। भगवान श्रीकृष्ण की आराधना और वसंत ऋतु के आगमन पर डोल जात्रा निकाली जाती है। डोल जात्रा के साथ शुरू हुई होली अबीर के रंगों से और रंगीन हो जाती है। कुमाऊं की गीत बैठकी में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियां होती हैं। यह सब होली के कई दिनों पहले शुरू हो जाता है। हरियाणा की धुलंडी में भाभी द्वारा देवर को सताए जाने की प्रथा है। महाराष्ट्र की रंग पंचमी में सूखा गुलाल खेलने, गोवा के शिमगो में जलूस निकालने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन तथा पंजाब के होला मोहल्ला में सिक्खों द्वारा शक्ति प्रदर्शन की परंपरा है। तमिलनाडु की कमन पोडिगई में मुख्य रूप से कामदेव की कथा पर आधारित वसंतोतसव है जबकि मणिपुर के याओसांग में योंगसांग उस नन्हीं झोंपड़ी का नाम है जो पूर्णिमा के दिन प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है। दक्षिण गुजरात के आदिवासियों के लिए होली सबसे बड़ा पर्व है, छत्तीसगढ़ की होरी में लोक गीतों की अद्भुत परंपरा है और मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी इलाकों में बेहद धूमधाम से मनाया जाता है। भगोरिया जो होली का ही एक रूप है। बिहार का फगुआ जम कर मौज मस्ती करने का पर्व है और नेपाल की होली में इस पर धार्मिक व सांस्कृतिक रंग दिखाई देता है। इसी प्रकार विभिन्न देशों में बसे प्रवासियों तथा धार्मिक संस्थाओं जैसे इस्कॉन या वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में अलग अलग प्रकार से होली के श्रृंगार व उत्सव मनाने की परंपरा है जिसमें अनेक समानताएं और भिन्नताएं हैं।
संगीत में होली
भारतीय शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, लोक तथा फिल्मी संगीत की परम्पराओं में होली का विशेष महत्व है। शास्त्रीय संगीत में धमार का होली से गहरा संबंध है, हालांकि ध्रुपद, धमार, छोटे व बड़े ख्याल और ठुमरी में भी होली के गीतों का सौंदर्य देखते ही बनता है। कथक नृत्य के साथ होली, धमार और ठुमरी पर प्रस्तुत की जाने वाली अनेक सुंदर बंदिशें जैसे चलो गुंइयां आज खेलें होरी कन्हैया घर आज भी अत्यंत लोकप्रिय हैं। ध्रुपद में गाये जाने वाली एक लोकप्रिय बंदिश है खेलत हरी संग सकल, रंग भरी होरी सखी। भारतीय शास्त्रीय संगीत में कुछ राग ऐसे हैं जिनमें होली के गीत विशेष रूप से गाए जाते हैं। बसंत, बहार, हिंडोल और काफी ऐसे ही राग हैं। होली पर गाने बजाने का अपने आप वातावरण बन जाता है और जन जन पर इसका रंग छाने लगता है। उपशास्त्रीय संगीत में चैती, दादरा और ठुमरी में अनेक प्रसिद्ध होलियाँ हैं। होली के अवसर पर संगीत की लोकप्रियता का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि संगीत की एक विशेष शैली का नाम ही होली हैं, जिसमें अलग अलग प्रांतों में होली के विभिन्न वर्णन सुनने को मिलते है जिसमें उस स्थान का इतिहास और धार्मिक महत्व छुपा होता है। जहां ब्रजधाम में राधा और कृष्ण के होली खेलने के वर्णन मिलते हैं वहीं अवध में राम और सीता के जैसे होली खेलें रघुवीरा अवध में।
साधना का दिन भी है होली
हमारी परंपरा में होली न केवल एक त्योहार मात्र है बल्कि मंत्र-तंत्र व यंत्रों की सिद्धि के लिए पौराणिक महत्व का उत्सव भी है। सारे पर्वो और त्योहारों में होली पूजा-पाठ व अनुष्ठान संपन्न करने के लिए सर्वश्रेष्ठ समय है। धर्म ग्रंथों में होली केवल हर्षोल्लास के लिए नहीं बल्कि मंत्र-तंत्र और यंत्रों की सिद्धि के लिए भी सबसे उपयुक्त मानी गई है। होलिका दहन की रात्रि को सभी तरह के सकाम और निष्काम कर्मो की सिद्धि के लिए विहित अवसर माना गया है। राजस्थान के अजमेर शहर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर गाई जाने वाली होली का विशेष रंग है। उनकी एक प्रसिद्ध होली है आज रंग है री मन रंग है, अपने महबूब के घर रंग है री। इसी प्रकार शंकर जी से संबंधित एक होली में दिगंबर खेले मसाने में होली कह कर शिव द्वारा श्मशान में होली खेलने का वर्णन मिलता हैं। भारतीय फिल्मों में भी अलग अलग रागों पर आधारित होली के गीत प्रस्तुत किये गए हैं जो काफी लोकप्रिय हुए हैं। सिलसिला के गीत रंग बरसे भीगे चुनर वाली, रंग बरसे और नवरंग के आया होली का त्योहार, उड़े रंगों की बौछार, को आज भी लोग भूल नहीं पाए हैं।
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी
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