राष्ट्रीय लोकदल को किसानों की पार्टी के नाम से जाना जाता है। परंतु धीरे-धीरे लोकदल पर व्यापारी, किसान विरोधी मानसिकता रखने वाले और अपने आप को स्वर्ण जातियों का बताने वाले लोगों का पर कब्ज़ा हो चुका है। जिसमें किसान वर्ग और ख़ास तौर पर जाट समाज पीछे छूटता नजर आ रहा है। रालोद प्रमुख जयंत चौधरी तो कई मौकों पर कह ही चुके हैं कि रालोद जाटों की पार्टी नहीं है और उन्होंने जाटों का ठेका नहीं लिया है। भाजपा के साथ गठबंधन होने के बाद उन्होंने भाजपा की सारी विचारधारा को भी अंगीकार कर लिया है। किसानों की सबसे बड़ी मांग एमएसपी की गारंटी के विषय में उन्होंने बयान दिया था कि ऐसा करना संभव नहीं है, देश के बजट पर इसका बहुत ही नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। पीएम मोदी के अंदर उन्हें चौधरी चरण सिंह का अक्स नजर आने लगा है। किसी भी सियासी दल का महत्व उसके प्रवक्ताओं से होता है जो उस दल की विचारधारा को दर्शाता है। यदि रालोद के प्रवक्ताओं की बात की जाए तो उनका भी खेती किसानी से कोई लेना देना नहीं है। विभिन्न टीवी चैनलों पर आने वाले रालोद के मुख्य प्रवक्ताओं में अब स्वर्ण समाज और व्यापारी वर्ग से ही आते हैं। जबकि व्यापारी वर्ग के एक ख़ास प्रवक्ता का नाम तो लखनऊ में रालोद के नाम पर दलाली करने के लिए विख्यात है। खैर हास्यास्पद है कि जिन्होंने अपने जीवन में कभी खेत की मेड नहीं देखी वें किसानों की पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हुए खेती किसानी के विषय में चैनलों पर सत्ताधारी भाजपा की वकालत करते नज़र आते हैं। हालांकि ऐसा नहीं है कि रालोद में काबिल वक्ताओं की कोई कमी है, लेकिन उनको गिरोहबंदी के तहत आगे नहीं आने दिया जाता।
यदि किसी चैनल पर किसी पत्रकार अथवा विश्लेषक द्वारा इन प्रवक्ताओं को खेती किसानी के मुद्दों पर आइना दिखाया जाए, तो ये भड़क जाते हैं और किसानों की समस्याओं की कोई बात सुनना पसंद नहीं करते। क्योंकि तमाम प्रवक्ता व्यापारिक मानसिकता से ताल्लुक रखते हैं। गन्ना किसान और पश्चिमी यूपी के विषय में शून्य जानकारी होने के बावजूद चैनलों पर किसानों के मुद्दों को भटकाने का काम करते हैं। तो क्या रालोद में कोई काबिल किसान प्रवक्ता बनने लायक नहीं है? हालाकि कुछ प्रवक्ता नामचरे और औपचारिकता भर के लिए हैं वो भी केवल कागजों तक ही सीमित हैं बड़े चैनलों पर कभी कभार भूले बिसरे दिखाई देते हैं। भाजपा में जाने के बाद मुस्लिम समाज छिटक चुका है। जिस भाईचारे और सामाजिक सौहार्द को बनाने के लिए जयंत ने 10 साल प्रयास किये। हाथरस में लाठियां खाई। अजित सिंह साज़िश के तहत हरा दिए गए। तो क्या पार्टी को अब इन घटनाओं के सियासी लाभ की कोई आवश्यकता नहीं है? जिस प्रकार रालोद से मुस्लिम छिटक गया, अब जाटों और किसानों को भी भागने के लिए मजबूर किया जा रहा है? तो क्या माना जाए कि अब सर्व समाज के बलबूते और नए विचारों के आधार पर नए राष्ट्रीय लोकदल का निर्माण होगा, जिसमें किसानों विशेषकर जाटों और मुसलमानों के लिए कोई स्थान नहीं होगा ?
के.पी. मलिक
( लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक एवं दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं )
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