यदि किसी चैनल पर किसी पत्रकार अथवा विश्लेषक द्वारा इन प्रवक्ताओं को खेती किसानी के मुद्दों पर आइना दिखाया जाए, तो ये भड़क जाते हैं और किसानों की समस्याओं की कोई बात सुनना पसंद नहीं करते। क्योंकि तमाम प्रवक्ता व्यापारिक मानसिकता से ताल्लुक रखते हैं। गन्ना किसान और पश्चिमी यूपी के विषय में शून्य जानकारी होने के बावजूद चैनलों पर किसानों के मुद्दों को भटकाने का काम करते हैं। तो क्या रालोद में कोई काबिल किसान प्रवक्ता बनने लायक नहीं है? हालाकि कुछ प्रवक्ता नामचरे और औपचारिकता भर के लिए हैं वो भी केवल कागजों तक ही सीमित हैं बड़े चैनलों पर कभी कभार भूले बिसरे दिखाई देते हैं। भाजपा में जाने के बाद मुस्लिम समाज छिटक चुका है। जिस भाईचारे और सामाजिक सौहार्द को बनाने के लिए जयंत ने 10 साल प्रयास किये। हाथरस में लाठियां खाई। अजित सिंह साज़िश के तहत हरा दिए गए। तो क्या पार्टी को अब इन घटनाओं के सियासी लाभ की कोई आवश्यकता नहीं है? जिस प्रकार रालोद से मुस्लिम छिटक गया, अब जाटों और किसानों को भी भागने के लिए मजबूर किया जा रहा है? तो क्या माना जाए कि अब सर्व समाज के बलबूते और नए विचारों के आधार पर नए राष्ट्रीय लोकदल का निर्माण होगा, जिसमें किसानों विशेषकर जाटों और मुसलमानों के लिए कोई स्थान नहीं होगा ?
के.पी. मलिक
( लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक एवं दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं )
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