अनियमित वर्षा, जल उपयोग की अक्षमता, अनियमित भूजल दोहन, जल प्रदूषण, और कमजोर अपशिष्ट प्रबंधन कानूनों के कारण जल की गुणवत्ता में कमी जैसे विभिन्न जल प्रबंधन के मुद्दों का कृषि क्षेत्र सामना कर रहा है। मृदा संरक्षण, वनीकरण, और कम खाद-पानी की आवश्यकता वाली स्वदेशी फसलों की खेती ऐसी प्रक्रियाएं हैं जिनसे पानी को संरक्षित और न्यायोचित उपयोग करना आसान होता है, लेकिन ये प्रक्रियाएं धीरे-धीरे कम हो रही हैं। आदिवासी समुदाय प्राचीनकाल से ही प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षक रहा है । नदियों, तालाबों, झीलों, और महासागरों का जल उनके लिए पूजनीय है। इसके लिए उसने कई छोटी-बड़ी, स्थायी और अस्थायी जल संरचनाएँ भी बनाई हैं। समुदाय ने न केवल जल का संरक्षण किया है बल्कि इसका विवेकपूर्ण उपयोग भी किया है।‘जल स्वराज’ – जिसके अंतर्गत समुदाय द्वारा जल संसाधनों पर नियंत्रण देखा गया था, जिसमें मूल रूप से इसके उपयोग पर नियंत्रण और प्रदूषण के नियमन शामिल था, समुदायों के लिए वर्षों से महत्वपूर्ण प्रक्रिया रही है । लेकिन समय के साथ परिस्थितयां बदलती रही। जल सम्बंधित नीतियों के प्रभाव एवं जनसंख्या में वृद्धि के कारण जल की अधिक मांग के कारणजल के उपयोग में भी वृद्धि हुई, जो न्यायसंगत औरविवेकपूर्ण नहीं था। सदियों से, आदिवासी समुदाय एकीकृत कृषि प्रणाली का अभ्यास कर रहे हैं, जो जल उपयोग दक्षता बढ़ाने, खेत में कुशल जल प्रबंधन प्रौद्योगिकियों को बढ़ावा देने, कम पानी की मांग वाली फसलों और कृषि-वानिकी को बढ़ाने में सहायक और महत्वपूर्ण है। ये समुदाय फसल चक्र, आच्छादन फसलों के माध्यम से मल्चिंग, नवीन नमी प्रबंधन, जैविक खाद का उपयोग जैसे पारंपरिक तरीकों को अपनाकर जल आपूर्ति और मांग के बीच अंतर को कम करने का प्रयास कर रहे हैं। इन समुदायों ने जल संरक्षण के अतिरिक्त पारिस्थितिकी तंत्र में पानी से संबंधित तथा अन्य कारकों जैसे वर्षा जल संचयन, चेक बांध, खाइयों का निर्माण भी किया जाता रहा है । गर्मी के मौसम में खेती करने के लिए नवीन तंत्र विकसित किए गए हैं; मिटटी के घड़े का उपयोग कर पौधों और पेड़ों की सिंचाई करने की प्रथा, जिसे स्थानीय रूप से 'घेर' के नाम से जाना जाता है, जिससे पहाड़ी क्षेत्रों में गर्मी के मौसम के दौरान पौधों और पेड़ों की सिंचाई करना संभव हो पाता है । पहाड़ी क्षेत्रों में बड़ी संख्या में छोटी खाइयाँ बनाई जाती हैं और मिट्टी में नमी बनाए रखने के लिए ढलानदार कृषि भूमि प्रौद्योगिकी को भी अपनाया जाता रहा है।
आदिवासी समुदायों की चक्रीय जीवनशैली जलवायु अनुकूल कृषि में पुनर्स्थापनात्मक और पुनर्योजी प्रक्रियाओं को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण हैं। ये उनकी बाहरी वातावरण पर निर्भरता कम करने में भी मदद करती हैं और उन्हें अपनी आजीविका, भोजन और पोषण सुरक्षा के मामले में भी आत्मनिर्भर बनाती हैं। परन्तु विकास के चलते जल संरक्षण एवं उसके न्योयोचित उपयोग पर घरेलु स्तर, सामुदायिक स्तर एवं पंचायत स्तर पर संवाद शुरू हुए जिससे जल से संबंधित प्रौद्योगिकियों की शुरुआत हुई, और अंततः इसके व्यापार और व्यवसाय के अवसरों में बढ़ोत्तरी हुई । तत्पश्चात, जल को व्यापार की वस्तु मानते हुए इसका व्यापार प्रारम्भ हो गया, जो आने वाली पीढ़ियों और पारिस्थितिकी तंत्र के लिए भी खतरा बन रहा है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आधुनिक विकास के नाम पर जल के स्रोतों को ख़राब और दूषित कर, हमारी जल संप्रभुता से समझौता किया जा रहा है। इस स्थिति में, समुदायों के बीच कोई भागीदारीपूर्ण बातचीत न होने के कारण, आदिवासी समुदाय केवल मात्र सरकारों द्वारा प्रदान किए गए समाधानों पर निर्भर हो रहे हैं। जल संरक्षण के पारंपरिक प्रक्रियाओं को पहचानना, प्रोत्साहित करना, पुनर्जीवित करना, और समुदाय-आधारित जल प्रशासन सहित पारिस्थितिकी तंत्र में पानी से संबंधित अन्य कारकों पर काम करना महत्वपूर्ण है, जो न्यायसंगत और एक प्रभावी दृष्टिकोण है। आदिवासी क्षेत्रों में पानी की उपलब्धता और इसके उपयोग की वर्तमान स्थिति को देखते हुए, पर्यावरण बहाली के लिए जलवायु अनुकूल खेती, भूजल प्रबंधन, वर्षा जल संचयन, और सतत जल संसाधन प्रबंधन जैसे दृष्टिकोणों सहित एक सुनियोजित रणनीति की आवश्यकता है।समाज के सभी वर्गों को कुशल जल संरक्षण और नए संसाधनों के विकास के लिए मिलकर संवाद स्थापित करते हुए काम करने की आवश्यकता है।
जब प्रत्येक व्यक्ति जल को एक वस्तु के रूप में उपयोग न करते हुए इसकी जीवंतता और प्रकृति में इसे एक महत्वपूर्ण घटक के रूप में मान पायेगा, तो हम जल संप्रभुता की रक्षा कर सकने में सफल हों सकेंगे । जल संप्रभुता की रक्षा के लिए, सभी स्तर पर योगदान आवश्यक है । घरेलू स्तर पर, हमें मिट्टी की नमीं बनाए रखने और जल का उपयोग कम करने के लिए विभिन्न कृषि प्रौद्योगिकियों को अपनाना होगा, जैसे कि ढलानदार कृषि भूमि प्रौद्योगिकी, मल्चिंग, जीरो-टिलेज, ड्रिप या फव्वारा सिंचाई, जैविक और प्राकृतिक खेती आदि ।देशी बीजों का उपयोग खेती में बढ़ाने की आवश्यकता है, क्योंकि ये संकर बीजों की तुलना में कम लागत में फसल उत्पन्न कर मिट्टी को स्वस्थ रखते हैं। उर्वरकों और कीटनाशकों का उपयोग कम करने से पानी की खपत कम होती है और भूमिगत जल प्रदूषण की समस्या से बचा जा सकताहै। स्थानीय समुदायों को जल संसाधनों के संरक्षण और प्रबंधन में सम्मिलित करते हुए वाटरशेड प्रबंधन कार्यक्रमों का विकास किया जाना आवश्यक है । इसमें वृक्षारोपण, मृदा संरक्षण, और चेक डैम निर्माण को सम्मिलित किया जान चाहिए । आदिवासी समुदायों द्वारा उपयोग में लाये जा रहे जल संरक्षण और जल संचयन के पारंपरिक तरीकों को अन्य क्षेत्रों में भी लागू करने हेतु प्रोत्साहन और पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है ।
गांव, क्षेत्रीय, और राष्ट्रीय स्तर पर, समुदाय आधारित और समुदाय नेतृत्व वाली जल प्रशासन प्रणाली की स्थापना और सुदृढ़ीकरण करके पानी की न्यायोचित उपयोग को सुनिश्चित किया जा सकता है। कृषि वानिकी और सामुदायिक वनों का विकास किया जाकर उच्च जल गुणवत्ता बनाए रखने, पानी की मात्रा को बनाये रखने, और सतही और भूजल प्रवाह को नियंत्रित करने में मदद मिल सकेगी । महज़ जल दिवस मानाने से जल का संरक्षण नहीं किया जा सकता इसके लिए आवश्यकता है कि ठोस क़दम उठाये जा कर ज़रूरी नीतिगत बदलावों को धरातल पर उतरा जाये जिससे पुनः जल स्वराज को प्राप्त किया जा सके। इसके लिए वाग्धारा संस्था विगत 2 दशकों से, भारत के पश्चिमी भाग के तीन राज्यों -राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात राज्यों के त्रिसंघ क्षेत्रों में 1000 गांवों में आदिवासी समुदाय के साथ सहभागिता से पानी के संसाधनों के न्यायसंगत उपयोग , प्रयोग और संवहन को सुनिश्चित करते हुए जल संरक्षण पर कार्यरत है। संस्था द्वारा आदिवासी परिवारों के साथ जलवायु अनुकूल कृषि में सहायक पुनर्स्थापनात्मक और पुनर्योजी प्रक्रियाओं को बढ़ावा देते हुए उनकी चक्रीय जीवन शैली को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया जा रहा है।
जयेश जोशी
कृषि एवं जल सम्बंधित विषयों के जानकार एवं सचिव, वाग्धारा
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