शिक्षा और जागरूकता के कारण शहरी क्षेत्रों में जहां कई ऐसे रीति रिवाज लगभग समाप्त हो गए हैं जिससे महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता है, वहीं देश के दूर दराज़ के ग्रामीण क्षेत्रों में इसके अभाव के कारण यह आज भी समाज के लिए एक कलंक बना हुआ है. पहाड़ी राज्य उत्तराखंड का लामाबगड़ गांव इसका एक उदाहरण है. जिला बागेश्वर स्थित कपकोट ब्लॉक से करीब 21 किमी दूर इस गांव में कई ऐसी सामाजिक बुराईयां देखने को मिल जाती हैं जिससे लैंगिक भेदभाव स्पष्ट रूप से नज़र आता है. चिंता की बात यह है कि इसे समाप्त करने की जगह बढ़ावा दिया जाता है. पंचायत से मिले आंकड़ों के अनुसार इस गांव की आबादी लगभग 1500 के करीब है. अनुसूचित जनजाति बहुल इस गांव में उच्च जातियों की संख्या मात्र दस प्रतिशत है. साक्षरता के मामले में भी महिला और पुरुष में काफी बड़ा अंतर नज़र आता है. पुरुषों के 40 प्रतिशत की तुलना में महिला साक्षरता की दर मात्र 22.2 प्रतिशत है. यह अंतर जहां जागरूकता की कमी को दर्शाता है वहीं समाज में दहेज जैसी बुराई को भी अपनी जड़ें मज़बूत करने में सहायता प्रदान करता है.
हालांकि लामाबगड़ गांव के कुछ परिवार ऐसे भी हैं जहां जागरूकता के कारण बालिकाओं को शिक्षा के भरपूर अवसर मिल रहे हैं. गांव की 19 वर्षीय हेमा गढ़िया का कहना है कि 'मेरे साथ परिवार में कोई भेदभाव नहीं किया जाता है. मैं 12वीं के बाद अब कॉलेज भी कर रही हूं. मुझे आगे भी पढ़ने और अपने सपनों को पूरा करने के अवसर मिल रहे हैं. मेरे माता पिता मुझ पर कोई पाबंदी नहीं लगाते हैं. मुझसे यह कभी नहीं कहा जाता है कि दहेज का सामान जुटाने की वजह से तेरी पढ़ाई रुकवा दी जाएगी.' हेमा कहती है कि जिस घर में जागरूकता होगी वहां लड़कियों को पढ़ने और आगे बढ़ने से नहीं रोका जायेगा. कई बार आर्थिक समस्या के कारण लड़कियों को अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ती है, लेकिन उन्हें दहेज़ के नाम पर शिक्षा से वंचित नहीं किया जाना चाहिए.'
वहीं गांव की एक 43 वर्षीय महिला माना देवी कहती हैं कि 'दहेज जैसी बुराई सदियों से चली आ रही है, जिसे समय समय पर अलग अलग नाम दे दिए गए हैं. पहले लड़की पक्ष भेट स्वरुप इस बुराई को निभाता था, आज यह खुल्लम खुल्ला होने लगा है. आज लड़का पक्ष इसे अपनी प्रतिष्ठा से जोड़कर देखने लगा है. जबकि यह प्रतिष्ठा नहीं बल्कि अनैतिक कृत्य है, जिसमें पूरा समाज साथ देता है. वहीं यदि कोई लड़की मांग से कम दहेज लाती है तो ससुराल में उसे मानसिक यातनाओं से गुज़रना पड़ता है. सामाजिक स्तर पर अब इस बुराई को समाप्त करने की आवश्यकता है. इसके लिए स्वयं समाज को जागरूक होना होगा. इसके विरुद्ध अभियान चलाने की ज़रूरत है.'
एक अभिभावक 50 वर्षीय विष्णु दत्त का कहना है कि 'दहेज एक ऐसी बुराई है जिसे रीति रिवाज का नाम दे दिया गया है. इसके कारण न केवल लड़कियों की शिक्षा प्रभावित हो रही है बल्कि कई बार वह मानसिक अत्याचार का भी शिकार होकर तनाव में रहती हैं. दहेज़ जैसी बुराई के कारण ही आर्थिक रूप से कमज़ोर परिवार की लड़कियों की शादी रुक जाती है. वहीं 73 वर्षीय कलावती देवी कहती हैं कि 'हमारे जमाने में भी दहेज जैसी बुराई थी. परंतु इसके लिए लड़की पक्ष पर किसी प्रकार का दबाब नहीं डाला जाता था. आज दहेज नहीं, इंसानो का लालच बोल रहा है क्योंकि अब रोजगार के अवसर कम और बेरोजगारी अधिक बढ़ गई है, जिस कारण लोगों को लगता है कि पैसा जितना मिल जाए और जैसा मिल जाए वही ठीक है. इसके लिए लड़की पक्ष पर अधिक दहेज देने के लिए दबाब भी डाला जाता है और कम दहेज़ लाने वाली लड़कियों के साथ शोषण और अत्याचार किया जाता है. इसलिए ये सामाजिक बुराई अब पूर्ण रूप से गैर क़ानूनी अपराध में बदल गया है.'
देश में दहेज के खिलाफ सबसे पहले 1961 में दहेज निरोधक क़ानून बना, इसके बाद समय समय पर इसमें संशोधन कर इसे और अधिक सख्त बनाया गया ताकि दहेज के नाम पर महिलाओं को किसी भी प्रकार के शारीरिक या मानसिक अत्याचार से बचाया जा सके. इसका प्रभाव भी देखने को मिला है. लेकिन जिस प्रकार से इसके परिणाम की आशा की जानी चाहिए थी वह आज भी नज़र नहीं आता है. भले ही शहरी क्षेत्रों में जागरूकता के कारण महिलाएं जेल भेज कर दहेज़ लोभियों को सबक सिखा देती हैं लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में यह प्रतिशत अभी भी काफी कम है. दरअसल ग्रामीण क्षेत्रों में इस बुराई को रीति रिवाजों का नाम दे दिया जाता है. लेकिन बेहतर यह होगा कि जो रिवाज लैंगिक भेदभाव को बढ़ावा देता हों, उसके विरुद्ध समाज को जागरूक किया जाए. यह आलेख संजॉय घोष मीडिया अवार्ड 2023 के तहत लिखा गया है.
महिमा जोशी
उत्तराखंड
(चरखा फीचर)
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