गोमती तट पर बसे लखनऊ को नवाबों का शहर कहा जाता है। यहां की गंगा जमुनी तहजीब की चर्चा देश ही नहीं दुनिया भर में होती है। मतलब साफ है लखनऊ तब भी चर्चा में रहा, आज भी है। चुनाव के लिहाज देश की हाई प्रोफाइल लोकसभा सीटों में से एक यूपी की राजधानी लखनऊ भी है। और जब बात लखनऊ की हो तो प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी की चर्चा किए बिना सबकुछ अधूरा लगता है। क्योंकि लखनऊ बाजेपीयी की राजनीतिक कर्मभूमि रही है। वे यहां से पांच बार सांसद रहे। इस सीट को भाजपा का गढ़ भी कहा जाता है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यूपी की सत्ता पर बारी बारी भले ही सपा और बसपा ने राज किया है लेकिन आज तक उनका कोई सांसद नहीं चुना जा सका। सीनियर जनर्लिस्ट मो इशहाक कहते है लखनऊ सीट में बीजेपी उम्मीदवार राजनाथ सिंह के आगे कोई नहीं टिकने वाला है। इस बार वे न सिर्फ जीत की हैट्रिक लगायेंगे, बल्कि जीत का मार्जिन भी बढ़ेगी। बाजी किसके हाथ लगेगी, ये तो 4 जून को पता चलेगा। लेकिन बड़ा सवाल तो यही है क्या राजनाथ सिंह हैट्रिक लगायेंगे या सपा-बसपा का खाता खुलेगा? क्योंकि इस बार हो रहे लोकसभा चुनाव में केन्द्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का मुकाबला सपा के रविदास मेहरोत्रा व बसपा के सरवर मलिक से है। खास यह है कि चर्चा के केन्द्र में अब भी अटल बिहारी बाजपेयी ही है। राजनाथ को भरोसा है कि अटल की राजनीतिक विरासत लखनऊ वाले इस बार भी उन्हें ही सौंपेगें। जबकि सपा व बसपा को अपने कोर वोटर के साथ महंगाई, बेराजेगारी व योगीराज के बुलडोजर संस्कृति के खिलाफ मुखर होने वाले मतदाताओं पर भरोसा हैकहते लखनऊ को भगवान राम छोटे भाई लक्ष्मण ने बसाया था। यहां की दशहरी आम और चिकन की कढ़ाई और लखनऊ का गलावटी कबाब मशहूर है। कुछ लोग इसे लखन पासी के शहर के तौर पर भी जानते हैं. खास यह है कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की कर्मभूमि रही है और वह यहां से 5 बार सांसद चुने गए. लखनऊ 1991 से भगवा पार्टी का गढ़ सीट रही है, जब अटल बिहारी वाजपेयी ने यहां से चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। 1991 के बाद से बीजेपी लखनऊ में एक भी लोकसभा चुनाव नहीं हारी है. यहां 5वें चरण में 20 मई को वोट डाले जाएंगे. ये सीट प्रदेश की हॉट सीटों में हैं. क्योंकि, यहां से देश के रक्षा मंत्री और बीजेपी के सीनियरलीडर राजनाथ सिंह चुनावी मैदान में है। लखनऊ लोकसभा सीट के तहत 5 विधानसभा सीटें आती हैं. इनमें लखनऊ पश्चिम, लखनऊ उत्तर, लखनऊ पूर्व, लखनऊ मध्य और लखनऊ कैंट विधानसभा सीट शामिल है. पांचों विधानसभा सीटों पर बीजेपी का कब्जा है. लेकिन प्रत्याशियों के दावे और वादों को देखा जाएं तो इस सीट पर अब त्रिकोणी मुकाबला देखने को मिल सकता है। वहीं मुस्लिम कैंडिडेट घोषित करके बसपा ने सपा को तगड़ा झटका दे दिया है। सरवर मालिक लखनऊ की उत्तरी सीट से 2022 में बसपा के टिकट पर विधानसभा चुनाव लड़ चुके हैं। हालांकि इस चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। मतलब साफ है लखनऊ में ठीक-ठाक मुस्लिम आबादी होने के कारण मुकाबला त्रिकोणीय हो सकता है। सरवर मलिक के मजबूत चुनाव लड़ने से इंडिया गठबंधन के संयुक्त उम्मीदवार रविदास मेहरोत्रा को नुकसान हो सकता है, क्योंकि मुस्लिम में सेंधमारी होने से सपा को घाटा हो सकता है।
वोटरों के मन की बात उन्हीं की जुबानी
हजरतगंज के दिवाकर दुबे कहते हैं, मोदी की गारंटी, श्रीराम मंदिर, राष्ट्रवाद, 370 जैसे मुद्दे सिवाय भाजपा के कोई सुलझा नहीं सकता था। बात जब वोट की आयेगी तो इन मुद्दों पर विचार जरुर करेंगे। इंदिरानगर के व्यापारी नेता रमाकांत गुप्ता कहते है जीएसटी सहित अन्य टैक्सों से हम परेशान जरूर हुए। हमारा समय अब कागजी कामों में भी जाता है। इसके बावजूद हमारा वोट देश की बेहतरी के लिए होगा, छोटी-मोटी दिक्कतों से क्या घबराना। यहां से थोड़ा आगे बढ़ने पर पत्रकारपुरम के सनवारुल कहते हैं, हम गरीब जरूर हैं लेकिन जब विदेशों में हमारे देश का नाम होता है तो हमें भी बहुत अच्छा लगता है। अरे, देश पहले है। जबकि दुर्गा यादव ने कहा, गरीबों के लिए जो सोचेगा, हम उसी को वोट देंगे। वहीं मो. इस्लाम ने कहा कि पुराने लखनऊ में विकास के नाम पर कुछ नहीं हुआ। सीवर लाइन जैसी बुनियादी सुविधा नहीं मिल पाई। लेकिन कमलनाथ ने कहा, मेट्रो चली, पूरे शहर में सुलभ शौचालय खुले, सड़कें ठीक हुईं, लखनऊ स्वच्छ हुआ। कटिया से मुक्ति मिली। अब क्या चाहिए। सलीम ने कहा लखनऊ से जेद्दा, कुवैत या अन्य खाड़ी देशों में जाने वाले मजदूरों या कारीगरों की संख्या बहुत घट गई है। कारण कि नियम बहुत सख्त हो गए हैं। पहले हम रोज 150-200 इसीआर (इमीग्रेशन चेक रिक्वायर्ड) करते थे लेकिन अब 20-20 दिन तक कोई नहीं आता। इसमें कोई शक नहीं कि भारतीयों का शोषण न होने पाए, इसके लिए नियमों को सख्त किया गया था। लेकिन इसका यह नतीजा निकला। अब जिन घरों की रोजी-रोटी छिन गई, वे वोट किसे देंगे, इसे समझा जा सकता है। जबकि रामजी ने कहा कि केंद्र सरकार का कामकाज संतोषजनक रहा है। यहां से अगर उज्ज्वला के 100 कनेक्शन दिए गए तो उनमें 20 मुस्लिम को मिले। कुलदीन ने कहा कांग्रेस की न्याय योजना हवाई योजना है। जबकि जम्मू-कश्मीर से धारा 370 को हटाने के भाजपा के वायदे को ज्यादातर लोग पॉलिटिकल स्टंट मानते हैं। वे यह भी मानते हैं कि रोजगार के मोर्चे पर मोदी सरकार काफी हद तक असफल रही है। इसके बावजूद लोग उन्हें एक और मौका देने को तैयार हैं। ज्यादातर लोगों को लगता है कि आतंकवाद से निपटने में केंद्र को कामयाबी मिली है। हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि सरकार काम कम, पर प्रचार ज्यादा करती है।कुल मतदाता
2011 की जनगणना के मुताबिक लखनऊ जिले की आबादी 45.89 लाख है जिनमे पुरुषों की आबादी 23.94 लाख और महिलाओं की आबादी 21.95 लाख है। इसमें 71.5 फीसदी हिन्दू व 26.30 फीसदी मुस्लिम है। 14.3 फीसदी अनुसूचित जाति व .02 फीसदी अनसूचित जनजाति है। इसके अलावा ब्राह्मण, राजपुत और वैश्य 18 फीसदी है और यही मतदाता निर्णयक भूमिका में है. 2019 में 20,40,367 मतदाताओं के सापेक्ष कुल वोट 11,16,445 यानी 54.718 फीसदी वोट पड़े थे। यहां कुल पुरुष 9,43,815, महिला 10,96,455, थर्ड जेंडर 97 है। जबकि वोट डालने वालों में कुल पुरुष 6,09,363, महिला 4,97,734 व थर्ड जेंडर 3 थे। लखनऊ में में 5 विधानसभा क्षेत्र हैं। उनमें 9,43,815 पुरुष वोटर हैं। महिला मतदाताओं की संख्या 10,96,455 हैं। थर्ड जेंडर के मतदाता 97 हैं। राजनाथ सिंह को कुल 6,33,026 वोट मिले थे।
जातिय समीकरण
लखनऊ लोकसभा क्षेत्र में 5 विधानसभा सीटें हैं। लखनऊ पश्चिम, लखनऊ उत्तरी, लखनऊ पूर्वी, लखनऊ मध्य और लखनऊ कैंट। इनमें से 2022 के विधानसभा चुनावों में 3 सीटों पर बीजेपी ने कब्जा किया था। जातीय समीकरणों पर गौर करें तो यहां करीब 71 फीसदी आबादी हिंदू समाज से है। इसमें 18 प्रतिशत मतदाता राजपूत और ब्राह्मण हैं और बाकी में अन्य जातियां शामिल हैं। इसके अलावा लखनऊ लोकसभा क्षेत्र में करीब 18 प्रतिशत मुस्लिम वोटरों का प्रभाव है। 28 फीसदी के करीब ओबीसी समाज की संख्या है। लखनऊ संसदीय सीट पर अनुसूचित जन जातीय 0.2 फीसदी और अनुसूचित जाति लगभग 18 फीसदी के करीब है। इस बार सपा-कांग्रेस का गठबंधन है बावजूद इसके भाजपा जीत को लेकर आश्वस्त है। हालांकि इस बार उसका फोकस जीत के अंतर को बढ़ाने पर है।
कब कौन जीता
अगर यहां के इतिहास की बात की जाए, तो भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित, नेहरू जी की सलहज शीला कौल और देश के प्रमुख विपक्षी नेताओं में से एक रहे हेमवती नंदन बहुगुणा भी इसी सीट से संसद तक पहुंचे. इसके बाद यहां पर लोकदल, जनता दल व कांग्रेस ने बारी-बारी प्रभुत्व बनाए रखा। 1951 से 1977 के बीच विजयलक्ष्मी पंडित, श्योराजवती नेहरू, पुलिन बिहारी बनर्जी, बी.के. धवन और शीला कौल कांग्रेस के सांसद रहे। लेकिन 1967 के चुनाव निर्दलीय उम्मीदवार आनंद नारायण ने जीत का परचम लहराया था. इसके बाद 1971 व 1984 में हुए आम चुनाव में कांग्रेस की शीला कौल सांसद बनीं थी. 1977 की कांग्रेस-विरोधी लहर में भारतीय लोकदल के प्रत्याशी के रूप में हेमवती नंदन बहुगुणा यहां से जीते, लेकिन 1980 में ही शीला कौल ने कांग्रेस की वापसी करवा दी, और 1984 में भी वही यहां से सांसद बनीं. 1989 में जनता दल के मान्धाता सिंह ने यहां कब्ज़ा किया। लेकिन 1991 से वर्तमान समय तक इस सीट पर भाजपा का कब्जा है. 1991 से 2009 तक यहां पर भाजपा के दिग्गज एवं संस्थापक नेता अटल बिहारी वाजपेयी विजयी रहे थे. 2009 से 2014 तक यहां लालजी टंडन सांसद रहे थे. वे यहां से लगातार पांच बार चुनाव जीते। 2009 में पार्टी के ही एक अन्य वरिष्ठ नेता लालजी टंडन ने बाज़ी मारी. पिछले लोकसभा चुनाव में, यानी 2014 व 2019 में यहां से पूर्व मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने जीत हासिल की है। इस बार हैट्रिक लगाने की तैयारी में है।
इतिहास
लखनऊ, भारत के सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश की राजधानी है। लखनऊ शहर अपनी खास नज़ाकत और तहजीब वाली बहुसांस्कृतिक खूबी, दशहरी आम के बाग़ों और चिकन की कढ़ाई के काम के लिये जाना जाता है। गोमती नदी के किनारे बसा यह इलाका नवाबों के शहर के रूप में भी जाना जाता है। इस शहर को नवाबों के शहर के अलावा पूर्व का गोल्डन सिटी, शिराज-ए-हिंद और भारत के कांस्टेंटिनोपल भी कहते हैं. शुजा-उदौला के बेटे असफ-उद-दौला ने साल 1775 में फैजाबाद से अपनी राजधानी लखनऊ शिफ्ट की. फिर इस शहर को देश के समृद्ध और शानदार शहरों में से एक बना दिया. लखनऊ शिया इस्लाम का एक अहम केंद्र माना जाता है जहां बड़ी संख्या में शिया मुस्लिम आबादी रहती है. शुरुआत में अवध की राजधानी दिल्ली सल्तनत के नियंत्रण में थी, बाद में यह मुगल शासकों के अधीन आ गई. फिर अवध के नवाबों ने यहां पर शासन किया. 1856 में, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस शहर को कब्जा करते हुए अवध शहर पर पूर्ण नियंत्रण कर लिया और 1857 में ब्रिटिश राज में शामिल कर लिया. लखनऊ में 6 विश्वविद्यालय हैं, लखनऊ विश्वविद्यालय, उत्तर प्रदेश तकनीकी विश्वविद्यालययूपीटीयू, राममनोहर लोहिया राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालयलोहिया लॉ विवि, बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय है।
बात जीत के दावो की
बसपा, भाजपा और सपा अपनी जीत की रणनीति जातीय समीकरण के आधार पर करते है। 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा ने दो सीटों पर कब्जा किया था। इसमें लखनऊ मध्य सीट से विजेता रहे रविदास मेहरोत्रा खुद इस बार मैदान में हैं। वहीं, लखनऊ पश्चिम से सपा के अरमान खान ने बाजी मारी थी। यही वजह है कि इस बार के चुनाव में जातीय समीकरण को अहम मान रही हैं। या यूं कहे सभी जातियों की आबादी को देख राजनीतिक दल मतदाताओं को साधने के लिए हर जुगत लगा रहे हैं। पश्चिमी विधानसभा मुस्लिम आबादी वाला है, जहां कुल 4,61,554 मतदाता हैं। इनमें तकरीबन 1,15,000 मुस्लिम हैं। वहीं, 52000 के करीब ब्राह्मण और 40 हजार कायस्थ हैं। पूर्व में इस सीट पर लालजी टंडन का कब्जा रहा। हालांकि 2012 के चुनाव में सपा से मोहम्मद रेहान ने जीत हासिल की। 2017 में सुरेश श्रीवास्तव विधायक चुने गए, लेकिन 2022 में सपा के अरमान खान ने जीत हासिल की। लखनऊ मध्य भी मुस्लिम आबादी ज्यादा है। यह पुराने लखनऊ से सटा इलाका है। यहां कुल 3,71,070 मतदाता हैं, जिसमें 90 हजार के करीब मुस्लिम हैं। इस सीट पर 80,000 वैश्य व अन्य वोटर हैं, जबकि 45 के करीब ब्राह्मण व इतने ही कायस्थ मतदाताओं की संख्या है। वहीं, 35 प्रतिशत के करीब सोनकर और धानुक वोटर हैं। यहां से वर्ष 2022 के चुनाव में सपा के रविदास मेहरोत्रा ने जीत दर्ज की थी। लखनऊ उत्तरी में ब्राह्मण निर्णायक भूमिका में हैं। यहां से भाजपा ने वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में जीत हासिल की थी। इस सीट पर ब्राह्मण मतदाताओं की संख्या ज्यादा है। हालांकि मुस्लिम मतदाता भी निर्णायक हैं। उत्तरी सीट पर कुल 4,80,609 मतदाता हैं। इनमें करीब 80,000 ब्राह्मण, 71000 मुस्लिम, 40,500 यादव और 40,000 कायस्थों की संख्या है। लखनऊ कैंट में ब्राह्मण और सिंधी की पकड़ मजबूत है। इस सीट से ब्रजेश पाठक ने पिछली बार चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। इस सीट पर सबसे ज्यादा ब्राह्मण मतदाता हैं। यहां पहाड़ के रहने वाले लोगों की संख्या भी अच्छी है। यहां कुल 3,66,388 मतदाता हैं। इनमें 1.40 लाख तो अकेले ब्राह्मण हैं। वहीं, 40 हजार मुस्लिम, 50 हजार सिंधी, 25 हजार वैश्य और 35 हजार के लगभग दलित मतदाताओं की संख्या है।
बड़ा है राजनाथ सिंह का कद
नेता के तौर पर देखें तो राजनाथ सिंह का खुद का पोर्टफोलियो बहुत भारी भरकम है। साल 1977 में राजनाथ पहली बार विधायक बने थे। 1983 में उत्तर प्रदेश भाजपा के प्रदेश सचिव, 1984 में भाजपा युवा मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष, 1986 से 1988 तक भाजपा युवा मोर्चा के महासचिव और 1988 में राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। 1988 में उत्तर प्रदेश विधानसभा में एमएलसी के लिए निर्वाचित हुए और 1991 में शिक्षा मंत्री बने। 1994 में राज्यसभा सांसद बने। 1997 में राजनाथ ने भाजपा प्रदेश अध्यक्ष का कार्यभार ग्रहण किया। 1999 में वह केन्द्रीय परिवहन मंत्री बने। 2000 में राजनाथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और बाराबांकी के हैदरगढ़ निर्वाचन क्षेत्र से दो बार विधायक चुने गए। 2002 में उन्होंने भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव का पद संभाला। 2003 में उन्होंने केन्द्रीय कृषि मंत्री एवं खाद्य सुरक्षा का भार संभाला। 2004 में एक बार फिर राजनाथ भाजपा के महासचिव बने। 2005 में राजनाथ सिंह ने भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष का कार्यभार ग्रहण किया। इसके बाद वह 2009 में उत्तर के गाजियाबाद से सांसद चुने गए। फिर 2014 में लखनऊ से जीतकर सांसद बने और गृह मंत्री के रूप में काम किया और 2019 के चुनाव में फिर लखनऊ से जीते और रक्षा मंत्रालय संभाल रहे हैं।
मुलायम के करीबी रहे मेहरोत्रा
सपा ने विधायक रविदास मेहरोत्रा को प्रत्याशी बनाया है। रविदास मेहरोत्रा 2022 के विधानसभा चुनाव में लखनऊ मध्य से विधायक बने थे। गौर करने वाली बात ये है कि पिछले विधानसभा चुनावों में रविदास मेहरोत्रा ने मोदी-योगी लहर के बावजूद लखनऊ मध्य से भाजपा प्रत्याशी को 10 हजार से ज्यादा वोटों से हराया था। सपा प्रत्याशी रविदास मेहरोत्रा पहली बार 1989 में जनता दल के टिकट पर लखनऊ पूर्वी से विधायक बने थे। साल 2012 में लखनऊ मध्य से सपा के टिकट पर चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की। इतना ही नहीं रविदास मेहरोत्रा अखिलेश सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं। लेकिन कैबिनेट मंत्री होने के बावजूद वह 2017 के विधानसभा चुनाव में लखनऊ मध्य से चुनाव हार गए थे। अब अखिलेश यादव ने रविदास को लखनऊ सीट से उम्मीदवार बनाया है और राजनाथ की हैट्रिक तोड़ने का मिशन दिया है। इनके पोर्टफोलियो की बात करें तो सपा के लोकसभा उम्मीदवार रविदास मेहरोत्रा राजनीति के बड़े खिलाड़ी माने जाते हैं। मेहरोत्रा कॉलेज के दिनों से ही राजनीति में सक्रिय हैं। रविदास मेहरोत्रा के नाम एक अनोखा रिकॉर्ड भी है। वह 251 बार जेल जाकर लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में सबसे ज्यादा जेल जाने का रिकॉर्ड दर्ज करा चुके हैं। रविदास ने लखनऊ के केकेसी विद्यालय से पहली बार छात्रसंघ का चुनाव लड़े और जीतकर उपाध्यक्ष बने। इसके बाद उनकी राजनीति का सफर शुरू हो गया। रविदास की मुलायम सिंह यादव से मुलाकात हुई और फिर यहीं से रविदास ने कभी भी राजनीति में पीछे मुड़कर नहीं देखा। इतना ही नहीं रविदास मेहरोत्रा को पूर्व सीएम मुलायम सिंह यादव का करीबी माना जाता था। यही वजह है कि सपा सरकार में उन्हें अहम विभाग सौंपे गए थे।
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी
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