सियासी खेल में कांग्रेस के विधान परिषद सदस्य रहे दिनेश प्रताप सिंह अब योगी के दरबार में मंत्री बन चुके है। लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय अस्मिता के सवाल पर लोग कांग्रेस के साथ हो जाते रहे है। लेकिन विधानसभा चुनाव आते-आते कांग्रेस का यह वोट बैंक बिखरने लगता था । यह टेन्डेन्सी क्यों बनी इस सवाल को बाहर खोजने से अधिक कांग्रेस के अन्दर ही खोजना पड़ेगा। आतंकवाद पर सीधी लड़ाई लड़ने वाला मंजीत सिंह बिट्टा उसूलों पर लड़ते-लड़ते कांग्रेस के लिये बेईमानी हो गया। उसी तरह उसूल के कांग्रेसी बेईमानी होते गये। तो लोग चेहरे बदल के, झण्डे बदल के, रंग बदल के अपने स्वार्थ सिद्ध करते रहे। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के देश में आगमन के साथ कांग्रेस के कार्यकर्ता बड़ी संख्या में पलायन कर गये। सिर्फ रायबरेली ही नही पूरे सूबे में कांग्रेस का बेसिक स्टेक्चर चरमरा गया। इस स्टेक्चर को खड़ा करने की जगह लोकलुभावन टोटको के बल पर दूसरी बार सत्ता में आने का जतन कांग्रेस करती है। आंकड़े की बात करें तो कि उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों में 60 प्रतिशत लोग रायबरेली के बाशिन्दे है। क्या प्रधानमंत्री देने वाले क्षेत्र और वीवीआईपी नेताओं को जिताने के बाद यहॉ की जनता के खाते में सिर्फ पिछड़ापन ही लिखा है? जनता के बीच जब यह संवाददाता पहुँचा तो राम खेलावन से पूछा कि कांग्रेस के प्रति आपका क्या नजरिया है तो वह बड़ी बेवाकी के साथ बताता है कि भाजपा सरकार के खिलाफ कोई आन्दोलन यहॉ के कांग्रेसियों ने नही छेड़ा न ही पब्लिक के बीच कोई नेता गया। समस्या से जब त्राहि-त्राहि जनता कर रही कोई भी राजनैतिक दल आगे नही आया। इसके कारण जनता ने इस बार सत्ता में आ रही पार्टी के पक्ष में जाने का निर्णय लिया है। बड़ी संख्या में लोग गांधी परिवार से नाराज नही है। लेकिन अपनी समस्याओं के प्रति चिंतित है। कांग्रेस के नेता वोट मॉगने आये या न आये। इससे कोई फर्क नही पड़ता। चाहे राहुल गॉधी लड़े या प्रियंका फर्क नही करते। हम तो परंपरा का पालन करेंगे। कांग्रेस के जिलाध्यक्ष का भी रोना यही है। कई सरकारी इंडस्ट्री बंद होने के कगार पर पहुँच गयी। जनता बेरोजगार है करे तो क्या करें। विकास का जो माडल रायबरेली के लिये चुना गया उस माडल में खामियॉ ही खामियॉ है। रोजगार तो मिले है लेकिन बाहरी लोगों को जिसके कारण महंगाई बड़ी है। रायबरेली के बाशिंदे जानते हैं कि बैसवाड़ी ठाट क्या होता है। कभी बैसवाड़ी बोली वाला यह इलाका अपने ठाट की धमक के लिए प्रसिद्ध था। 1857 की जंगे आजादी और बाबा रामचंद्र की अगुवाई में हुए किसान आंदोलन में इस ठाट ने जो धमक दिखाई, वह आज भी मिटाये नहीं मिटती। इस इलाके की स्याही से लिख दी गई गणेशशंकर विद्यार्थी की कलम को भला कौन भूल सकता है गौरतलब है यूपीए की मुखिया सोनिया गांधी ने अपने संसदीय क्षेत्र में कोच फैक्टरी , एम्स , राष्ट्रीय फैशन टेक्नोलाजी संस्थान (निफ्ट) देकर रायबरेली में कमजोर पड़ रही कांग्रेस को मजबूत करने की कोशिश की है। सोनिया अब अपनी विरासत अपनी बेटी प्रियका के हाथों में सौपने को आतुर दिख रही है। 2024 का चुनाव में बेटी पिं्रयका गांधी ही चुनावी समर में उतरे इसकी तैयारी जोरो पर है। कांग्रेस आने वाले कल में कांग्रेस की विरासत की सियासत को संभालने के लिये चौथी पीढ़ी आने को तैयार है। लेकिन फिर भी हालात जस के तस ही है।
दुःख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ आज, जो नहीं कहीं !
कवि निराला ने बैसवारा में जन्म लेकर अपनी व्यथा को जिस तरह व्यक्त किया वह बैसवारा रायबरेली पर सटीक बैठती है।
सुरेन्द्र अग्निहोत्री
विधानसभा मार्ग, लखनऊ
मो0ः 9415508695
लेखक-दैनिक भास्कर के 25 वर्ष तक उत्तर प्रदेश राज्य प्रमुख रहे है
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