पटना, इंडिया गठबंधन के शुभचिंतक भी अब परेशान होने लगे हैं। महागठबंधन को बिहार में उम्मीदवार नहीं मिल रहे हैं। इसलिए उम्मीदवारों के नाम की घोषणा में विलंब हो रहा है। 40 लोकसभा में से मात्र 30 उम्मीदवारों के नाम फाइनल किये जा सके हैं, जबकि 10 उम्मीदवार यानी 25 फीसदी सीट पर उम्मीदवार नहीं तय हो पा रहे हैं। अब तक दो चरण के नामांकन की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है और एक सप्ताह बाद पहले चरण के लिए मतदान 19 अप्रैल को होने वाला है। यह किसी पार्टी या गठबंधन की कितनी बड़ी त्रासदी है कि उम्मीदवार का संकट झेलना पड़ रहा है। कांग्रेस ने अपने 9 में से सिर्फ 3 उम्मीदवार तय किये हैं, जबकि वीआईपी को गिफ्ट में मिली तीन सीटों में से किसी पर उम्मीदवार फाइनल नहीं हैं। राजद ने भी सीवान सीट काे लटका रखा है। माना यह जा रहा है कि राजद और माले के पास कार्यकर्ताओं का आधार है, इसलिए दावेदारों की भी बड़ी तादात थी। इस वजह से प्रत्याशी चयन में ज्यादा माथापच्ची नहीं करनी पड़ी। जबकि कांग्रेस और वीआईपी के पास न संगठन है और न कार्यकर्ता हैं। वैसे में उन्हें उम्मीदवार भी सहयोगी दलों से उधार में मांगना पड़ रहा है या दूसरे दलों से उठाना पड़ रहा है।
अब पूरी राजनीतिक व्यवस्था का हिस्सा हो गया है कि उम्मीदवार को पहले टिकट लेने के लिए पार्टी को चंदा देना पड़ता है और फिर करोड़ों का चुनावी खर्च अलग से उठाना पड़ता है। कुछ जातीय पार्टियों ने इसे ही अपना धंधा बना लिया है। वैसे में उम्मीदवार का संकट होना स्वाभाविक है। बड़ी पार्टियों के पास टिकट बेचने के अलावा भी माल जुटाने के कई रास्ते होते हैं। चुनावी बांड के धंधा से सभी परिचित हैं। भाजपा अपने सहयोगियों के साथ 40 सीट जीतने का दावा कर रही है और राजद अपने सहयोगियों के साथ 40 उम्मीदवार भी नहीं तय कर पा रहा है। यही अंतर है भाजपा और राजद में। दोनों गठबंधनों की ताकत भाजपा और राजद से जुड़ी है। इस यथार्थ को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। जिस गठबंधन को सभी सीटों पर उम्मीदवार नहीं मिल रहे हैं, उनकी जीत के दावों पर कितना विश्वास किया जा सकता है।
वीरेंद्र यादव
वरिष्ठ पत्रकार , पटना
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